‘चक दे इंडिया’ ने चक दिया

समय ताम्रकर
निर्माता : आदित्य चोपड़ा
निर्देशक : शिमित अमीन
पटकथा-संवाद-गीत : जयदीप साहनी
संगीत : सलीम-सुलेमा न
कलाकार : शाहरुख खान, विद्या मालवदे, अंजन श्रीवास्तव, जावेद खान
रेटिंग : 4/5

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भारत में खेलों पर आधारित फिल्में गिनती की बनी हैं। खुशी की बात है कि पिछले एक-दो वर्षों से फिल्मों में भी खेल दिखाई देने लगा है। हॉकी हमारा राष्ट्रीय खेल है और इस समय यह पिछड़ा हुआ खेल माना जाता है। इस खेल पर फिल्म बनाकर निर्देशक शिमित अमीन ने एक साहसिक काम किया है।

‘चक दे इंडिया’ कबीर खान की कहानी है, जो कभी भारतीय टीम का श्रेष्ठ सेंटर फॉरवर्ड रह चुका था। पाकिस्तान के विरूद्ध एक फाइनल मैच में वह अंतिम क्षणों में पेनल्टी स्ट्रोक के जरिये गोल बनाने में चूक गया और भारत मैच हार गया।

मुस्लिम होने के कारण उसकी देशभक्ति पर प्रश्नचिह्न लगा दिया गया। उसे गद्दार कहा गया। उस मैच के बाद खिलाड़ी के रूप में उसका कॅरियर खत्म हो गया।

सात वर्ष बाद वह महिला हॉकी टीम का प्रशिक्षक बनता है। इस टीम को विश्व चैम्पियन बनाकर वह अपने ऊपर लगे हुए दाग को धोना चाहता है, लेकिन उसकी राह आसान नहीं थी।
‍हॉकी खिलाड़ी की स्थिति
भारत के लिए खेले एक श्रेष्ठ ‍हॉकी खिलाड़ी की आर्थिक स्थिति क्या होती है, ये निर्देशक ने शाहरुख को एक खटारा स्कूटर पर बैठाकर बिना संवाद के जरिये बयाँ कर दी।

इन लड़कियों का ध्यान खेल पर कम था। वे केवल नाम के लिए खेलती थीं। अलग प्रदेशों से आई इन लड़कियों में एकता नहीं थी। सीनियर खिलाडि़यों की दादागीरी थी।

कबीर इन खिलाडि़यों के दिमाग में यह बात डालता है कि वे भारतीय पहले हैं, फिर वे महाराष्ट्र या पंजाब की हैं। फिर शुरू होता है प्रशिक्षण का दौर। हर तरफ से बाधाएँ आती हैं और कबीर इन बाधाओं को पार कर अंत में अपनी टीम को विजेता बनाता है।

कहानी बड़ी सरल है, लेकिन जयदीप साहनी की पटकथा इतनी उम्दा है कि पहली फ्रेम से ही दर्शक फिल्म से जुड़ जाता है। छोटे-छोटे दृश्य इतने उम्दा तरीके से लिखे और फिल्माए गए हैं कि कई दृश्य सीधे दिल को छू जाते हैं।

शाहरुख जब अपनी टीम का परिचय प्राप्त करते हैं तो जो लड़की अपने नाम के साथ अपने प्रदेश का नाम जोड़ती है, उसे वे बाहर कर देते हैं और अपने नाम के साथ भारत का नाम जोड़ने वाली लड़की को वे शाबाशी देते हैं। ये उन लोगों पर करारी चोट है, जो प्रतिभा खोज कार्यक्रम में प्रतिभा चुनते समय अपने प्रदेश के पहले होते हैं और भारतीय बाद में।

ऑस्ट्रेलिया में स्टेडियम के बाहर खड़े शाहरुख एक विदेश ी कर्मचारी को भारत का तिरंगा लगाते हुए देखते रहते हैं। एक खिलाड़ी उनसे आकर पूछती है कि सर आप यहाँ क्या कर रहे है ं, तो शाहरुख का जवाब होता है कि मैं एक गोरे को तिरंगा फहराते हुए पहली बार देख रहा हूँ।

भारत के लिए खेले एक श्रेष्ठ ‍हॉकी खिलाड़ी की आर्थिक स्थिति क्या होती है, ये निर्देशक ने शाहरुख को एक खटारा स्कूटर पर बैठाकर बिना संवाद के जरिये बयाँ कर दी।

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महिला टीम होन े क े कार ण इन्हे ं पुरुषों की छींटाकशी ‍का‍ शिकार भी होना पड़ता है। हॉकी एसोसिएशन के पदाधिकारियों की सोच रहती है कि चकला-बेलन चलाने वाली लड़कियाँ हॉकी क्या खेलेंगी, लेकिन निर्देशक ने कई दृश्यों के जरिये साबित किया है कि महिलाएँ किसी भी मामले में पुरुषों से कम नहीं हैं। शाहरुख एक जगह संवाद बोलते हैं 'जो महिला पुरुष को पैदा कर सकती है वह कुछ भी कर सकती है'।

शिमित का निर्देशन बेहद शानदार है। एक चुस्त पटकथा को उन्होंने बखूबी फिल्माया है। वे हॉकी के जरिये दर्शकों में राष्ट्रप्रेम की भावनाएँ जगाने में कामयाब रहे। एक सीन में मैच के पूर्व जब ‘जन-गण-मन’ की धुन बजती है, तो थिएटर में मौजूद दर्शक सम्मान में खड़े हो जाते हैं।

फिल्म में हर मैच के दौरान सिनेमाघर में उपस्थित दर्शक भारतीय टीम का इस तरह उत्साह बढ़ाते हैं, जैसे स्टेडियम में बैठकर वे सचमुच का मैच देख रहे हों। प्रत्येक दर्शक टीम से अपने आपको जुड़ा हुआ पाता है और यहीं पर शिमित की कामयाबी दिखाई देती है।

शाहरुख खान ने एक कलंकित खिलाड़ी और कठोर प्रशिक्षक की भूमिका को बखूबी निभाया है। वे शाहरुख खान नहीं लगकर कबीर खान लगे हैं। कई दृश्यों में उन्होंने अपने भाव मात्र आँखों से व्यक्त किए हैं। कलंक धोने की उनकी बेचैनी उनके चेहरे पर दिखाई देती है।

उनकी टीम में शामिल 16 लड़कियाँ भी शाहरुख को टक्कर देने के मामले में कम नहीं रहीं। उनकी आपसी नोकझोंक और हॉकी खेलने वाले दृश्य उम्दा हैं। पंजाब और हरियाणा से आई लड़कियों का अभिनय शानदार है।

फिल्म में गाने हैं, लेकिन वे पार्श्व में बजते रहते हैं। इन गीतों का उपयोग बिलकुल सही स्थानों पर किया गया है। जयदीप साहनी के संवाद सराहनीय है।

कुल मिलाकर ‘चक दे इंडिया’ एक बार जरूर देखी जानी चाहिए।
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