‘जब वी मेट’ : ताजगी से भरी मुलाकात

समय ताम्रकर
निर्माता : धीलिन मेहता
निर्देशक : इम्तियाज अली
संगीत : प्रीतम चक्रवर्ती
कलाकार : करीना कपूर, शाहिद कपूर, दारासिंह, पवन मल्होत्रा, किरण जुनेजा, तरूण अरोरा
रेटिंग : 3/5

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बॉलीवुड की फिल्मों में इन दिनों प्रेम-कथाएँ कम नजर आ रही हैं और ऐसे समय में निर्देशक इम्तियाज अली ‘जब वी मेट’ लेकर हाजिर हुए हैं। ‘जब वी मेट’ की कहानी में नयापन नहीं है। इस तरह की कहानियों पर पहले फिल्में बन चुकी हैं, लेकिन इसका ताजगीभरा प्रस्तुतिकरण फिल्म को देखने लायक बनाता है।

प्रेम में धोखा और व्यवसाय में पिटा हुआ इनसान आदित्य (शाहिद कपूर) हताशा में एक रेल में बैठ जाता है। उसकी मुलाकात होती है हद से ज्यादा बोलने वाली लड़की गीत (करीना कपूर) से। गीत मुंबई से अपने घर भटिंडा जा रही है। वहाँ से मनाली भागकर वह अपने प्रेमी अंशुमन (तरुण अरोरा) से शादी करने वाली है।

एक स्टेशन पर दोनों की ट्रेन छूट जाती है। दोनों सड़कों पर, टैक्सी में, बस में नाचते-झूमते और गाते हुए भटिंडा पहुँचते हैं। इस यात्रा में आदित्य के दिल में गीत के प्रति प्यार जाग जाता है। गंभीर रहने वाला आदित्य गीत से जिंदगी को जिंदादिली से जीना सीख जाता है। इसके बाद आदित्य अपनी राह और गीत अपनी।

9 महीने बाद जब आदित्य को पता चलता है कि गीत को उसके प्रेमी ने धोखा दिया है तो वह गीत की खोज करता है। गीत को उसके प्रेमी से भी मिलवाता है, लेकिन कुछ उतार-चढ़ाव के बाद गीत आदित्य को ही अपना बनाती है।

इम्तियाज ने आदित्य और गीत के चरित्र पर खूब मेहनत की है और उनका विस्तार बहुत अच्छे तरीके से किया है। फिल्म के दोनों मुख्य पात्र असल जिंदगी से लिए गए लगते हैं। उनका रोमांस नकली नहीं लगता।

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आदित्य और गीत की आपसी नोकझोंक को बेहद अच्छे तरीके से पेश किया गया है। दर्शक बहुत जल्द उनमें खो जाता है और उन चरित्रों के सुख-दु:ख को महसूस करने लगता है। जब पात्र अच्छे लगने लगते हैं तो कई बार फिल्म की कमियों को नजरअंदाज कर दिया जाता है।

फिल्म का पहला हाफ बेहद मनोरंजक है। दूसरे हाफ में जब गीत और आदित्य अलग होते है तो फिल्म गंभीर हो जाती है। यहाँ फिल्म की लंबाई भी ज्यादा लगने लगती है। इस हाफ को थोड़ा छोटा किए जाने की जरूरत है। फिल्मी के शुरूआती दृश्य को बेहतर तरीके से दिखाया जा सकता था, जब आदित्य हताश होकर रेलवे स्टेशन पहुँचता है। पटकथा में थोड़ी कसावट की जरूरत महसूस होती है, खासकर मध्यांतर के बाद।

शाहिद और करीना की जोड़ी को परदे पर रोमांस करते देखना सुखद लगा। शाहिद ने अपना काम बखूबी निभाया। हालाँकि वे एक उद्योगपति लगते नहीं हैं, इसलिए उन्हें परिपक्व दिखाने के लिए चश्मा पहनाया गया।

एक सिख लड़की के रूप में करीना का अभिनय सब पर भारी पड़ा। पहली फ्रेम से लेकर आख‍िरी तक करीना का अभिनय सधा हुआ है। उसके संवाद बढि़या लिखे गए हैं, इसलिए उनका ज्यादा बोलना भी प्यारा लगता है।

दारासिंह को देखना भी सुखद लगा। दारासिंह के दृश्य एक खास कोण से शूट किए गए। उनके पीछे दीवारों पर लगे जानवरों के कटे सिर दारासिंह के व्यक्तित्व को बलशाली बनाते हैं। पवन मल्होत्रा तो एक मँजे हुए कलाकार हैं।

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प्रीतम का संगीत हिट तो नहीं है, लेकिन गाने मधुर हैं। पूछो ना पूछो, तुमसे ही, मौजा-मौजा सुनने और देखने लायक हैं। कोरियोग्राफी उम्दा है। नटराज सुब्रमण्यम ने कैमरे की आँख से आउटडोर दृश्यों को उम्दा फिल्माया है।

इम्तियाज ने युवाओं को ध्यान में रखकर यह फिल्म बनाई है, लेकिन यह हर वर्ग के दर्शकों का मनोरंजन करती है।
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