निर्वाण क्या है?

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बौद्ध धर्म निर्वाण का अर्थ बुझ जाने से लगाता है। तृष्णा का बुझ जाना। वासनाओं का शांत हो जाना। तृष्णा और वासना से ही दुःख होता है। दुःखों से पूरी तरह छुटकारे का नाम है- निर्वाण।

भगवान बुद्ध ने कहा है- 'भिक्षुओं! संसार अनादि है। अविद्या और तृष्णा से संचालित होकर प्राणी भटकते फिरते हैं। उनके आदि-अंत का पता नहीं चलता। भवचक्र में पड़ा हुआ प्राणी अनादिकाल से बार-बार जन्मता-मरता आया है।

संसार में बार-बार जन्म लेकर प्रिय के वियोग और अप्रिय के संयोग के कारण रो-रोकर अपार आँसू बहाए हैं। दीर्घकाल तक दुःख का, तीव्र दुःख का अनुभव किया है। अब तो सभी संस्कारों से निर्वेद प्राप्त करो, वैराग्य प्राप्त करो, मुक्ति प्राप्त करो।'

जिघच्छा परमा रोगा, संखारा परमा दुखा।
एव ञत्वा यथाभूतं निब्बानं परम सुखं ॥

बुद्ध कहते हैं रोगों की जड़ जिघृक्षा है। ग्रहण करने की इच्छा, तृष्णा। सारे दुःखों का मूल है संस्कार। इस तत्व को जानकर तृष्णा और संस्कार के नाश से ही मनुष्य निर्वाण पा सकता है।

सचे नेरेसि अत्तानं कंसो उपहतो यथा।
एस पत्ती सि निब्बानं, सारम्भो तेन विज्जति ॥

बुद्ध सलाह देते हैं यदि तुम टूटे हुए काँसे की तरह अपने को नीरव, निश्चल या कर्महीन बना लो तो समझो तुमने निर्वाण पा लिया। कारण, कर्मों का आरंभ अब तुम में रहा नहीं और उसके न रहने से जन्म-मरण का चक्कर भी छूट गया।

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