तृष्णा का बंधन

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न तं दल्हं बन्धनमाहु धीरा यदायसं दारुजं बब्बजं च।
सारत्तरत्ता मणिकुंडलेसु पुत्तेसु दारेसु च या अपेक्खा॥

बौद्ध धर्म कहता है लोहे का बंधन हो, लकड़ी का बंधन हो, रस्सी का बंधन हो, इसे बुद्धिमान लोग बंधन नहीं मानते। इनसे कड़ा बंधन तो है सोने का, चाँदी का, मणि का, कुंडल का, पुत्र का, स्त्री का।

सरितानि सिनेहितानि च सोममस्सानि भवन्ति जन्तुनो।
ते सीतसिता सुखेसिनो ते वे जातिजरूपगा नरा॥

तृष्णा की नदियाँ मनुष्य को बहुत प्यारी और मनोहर लगती हैं। जो इनमें नहाकर सुख खोजते हैं, उन्हें बार- बार जन्म, मरण और बुढ़ापे के चक्कर में पड़ना पड़ता है।

न वे कदरिया देवलोकं वजन्ति बालाह वे न प्पसंसन्तिदानम्‌।
धीरो च दानं अनुमोदमानो तेनेव सो होति सुखी परत्थ॥

बुद्ध कहते हैं कि कंजूस आदमी देवलोक में नहीं जाते। मूर्ख लोग दान की प्रशंसा नहीं करते। पंडित लोग दान का अनुमोदन करते हैं। दान से ही मनुष्य लोक-परलोक में सुखी होता है।

मा पमादमनुयुञ्जेथ मा कामरतिसन्थवं।
अप्पमत्तो हि झायन्तो पप्पोति विपुलं सुखं॥

भगवान बुद्ध कहते हैं कि प्रमाद में मत फँसो। भोग-विलास में मत फँसो। कामदेव के चक्कर में मत फँसो। प्रमाद से दूर रहकर ध्यान में लगने वाला व्यक्ति महासुख प्राप्त करता है।

अप्पमादो अमतपदं पमादो मच्चुनो पदं।
अप्पमत्ता न मीयन्ति ये पमत्ता यथा मता॥

प्रमाद न करने से, जागरूक रहने से अमृत का पद मिलता है, निर्वाण मिलता है। प्रमाद करने से आदमी बे-मौत मरता है। अप्रमादी नहीं मरते। प्रमादी तो जीते हुए भी मरे जैसे हैं।

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