बौद्ध धर्म का पारमिता मार्ग

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हीनयान में अष्टांगिक मार्ग पर जोर है, तो महायान में पारमिता मार्ग पर। 'पारमिता' शब्द बना है, 'परम' से। इसका अर्थ है, सबसे ऊँची अवस्था। पारमिताएँ मुख्य रुप से छः प्रकार की होती हैं -

1) दान-पारमिता : दूसरों के हित के लिए अपना स्वत्व छोड़ने का नाम है, दान। दान-पारमिता तीन बातों से होती है :-

* जब दान के पात्र की कोई सीमा नहीं रहती। प्राणीमात्र दान का पात्र बन जाता है।
* जब देने की वस्तु की कोई सीमा नहीं रहती। मनुष्य अपना सबकुछ दूसरों के हित में लगाने को तैयार हो जाता है।
* जब दान के बदले में कुछ भी पाने की आकांक्षा नहीं रहती।

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2) शील-पारमिता : ' शील' यानी सदाचार। अहिंसा, सत्य आदि नैतिक नियमों को चोटी पर पहुँचाने का नाम है, शील-पारमिता। हिंसा न शरीर से होनी चाहिए, न वचन से, न मन से। इसी तरह दूसरे नियमों का पूरा-पूरा पालन होना चाहिए।

3) शांति-पारमिता : ' शांति' यानी क्षमा, सहनशीलता। चाहे जितना कष्ट आए, धैर्य न छोड़ना, विचलित न होना। मरने जैसा कष्ट होने पर भी शांति से उसे झेल लेना शांत- पारमिता है।

4) वीर्य-पारमिता : ' वीर्य' यानी उत्साह। अशुभ को छोड़कर पूरे उत्साह के साथ आगे बढ़ने का नाम है, वीर्य-पारमिता।

5) ध्यान-पारमिता : ' ध्यान' यानी किसी एक वस्तु में चित्त को एकाग्र करना। चित्त जब पूरी तरह वश में हो जाए, तो ध्यान-पारमिता सिद्ध होती है।

6) प्रज्ञा-पारमिता : ' प्रज्ञा' यानी सत्य का साक्षात्कार होना। चित्त जब निर्मल हो जाता है, तब प्रज्ञा की प्राप्ति होती है। निर्मल चित्त से ही सत्य के दर्शन होते हैं।

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