बौद्ध मुद्राएँ

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(1) गतिमान धर्मचक्र की मुद्रा:
दाहिने हाथ का अँगूठा और तर्जनी अँगुली बुद्धि और जुड़ने की कला को इंगित करती हैं। बाकी की तीन खड़ी हुई अँगुलियाँ बौद्ध शिक्षा का प्रतीक है। बाएँ हाथ की मुद्रा मनुष्य की मिश्रित क्षमताओं को इंगित करती है, जिस पर कि वह ज्ञान के पथ और जुड़ने की ओर बढ़ता है।

(2) ध्यान की मुद्रा:
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मानव तंत्रिका प्रणाली जो कि मस्तिष्क के उस भाग से जुड़ी होती है जो परमानंद का कारक होता है, इसकी तंत्रिकाएँ हाथ के अँगूठों से होकर गुजरती हैं। इसे बौद्ध धर्म में बोधिचित्त कहा जाता है। इस मुद्रा में दोनों हाथों के अँगूठों का परस्पर जोड़ या मिलन बोधिचित्त के भविष्य में विकास की ओर इंगित करता है।

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(3) सर्वोच्च प्राप्ति की मुद्रा:
दाहिने हाथ की मुद्रा सवोच्च प्राप्ति को इंगित करती है और बाएँ हाथ की मुद्रा ध्यान-चिंतन को दर्शाती है। ये दोनों मिलकर बुद्ध की सर्वोच्च शक्ति की ओर इंगित करते हैं। बुद्ध ध्यान में इस मुद्रा में बैठते थे।

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(4) भूमि पर दबाव देने की मुद्रा:
दाहिने हाथ की मुद्रा भूमि पर दबाव देने की तथा बाएँ हाथ की मुद्रा ध्यान करने की होती है। ये दोनों मिलकर बुद्ध द्वारा सभी गतिरोधों पर पाई विजय को इंगित करती हैं। भूमि को छूने की मुद्रा बुद्ध के उस विजय का चिह्न है जब उन्होंने राक्षस मारा पर विजय पाई थी।

ध्यानावस्था में गतिशील धर्मचक्र की मुद्रा दाहिने हाथ की मुद्रा घूमते हुए धर्मचक्र और बाएँ हाथ की मुद्रा ध्यान-चिंतन को दर्शाती है। दोनों साथ मिलकर ध्यान के दौरान बौद्ध धर्म के शिक्षण की ओर इंगित करते हैं।

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(5) ध्यानावस्था में गतिशील धर्मचक्र की मुद्रा:
दाहिने हाथ की मुद्रा घूमते हुए धर्मचक्र और बाएँ हाथ की मुद्रा ध्यान-चिंतन को दर्शाती है। दोनों साथ मिलकर ध्यान के दौरान बौद्ध धर्म के शिक्षण की ओर इंगित करते हैं।
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