ऐसी गति किस काम की

-अनुराग तागड़े

Webdunia
शुक्रवार, 4 मार्च 2011 (11:09 IST)
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जिंदगी खूबसूरत है और इसमें न जाने कितने रंग हैं जिनमें सुख है तो थोड़ा दुःख भी है। जिंदगी हमें कई मौके देती है आगे बढ़ने के, सुकून पाने और प्रेम पाने के पर क्या हम इन मौकों को भुना पाते हैं और खास बात कि‍ क्या हमें पता चल पाता है कि मौका आया है?

जिंदगी अपनी गति से चलती रहती है और हम अपनी गति से उसे चलाने का प्रयत्न करते हैं हम अपनी तरह से उसे मोड़ने का प्रयत्न करते हैं। जिंदगी हमें अपने आप को करीब से जानने का मौका देती है पर हम अपनी व्यस्तताओं और स्वार्थ के चलते ध्यान देने योग्य ही नहीं बचते। यह आप अपने आप पर भी आजमा के देख सकते हैं।

हमारी दिनचर्या ही ऐसी हो गई है कि सुबह उठते ही हमें ऑफिस और काम दिखाई देने लगता है टारगेट पूर्ण करने से लेकर घर के कामों में हम उलझ जाते हैं। काम की भागदौड़ में हम यह भूल जाते हैं कि हमारे काम करने की गति कितनी बढ़ चुकी है और जिंदगी ने हमें जो खूबसूरती और जिंदादिली दी है उसकी तरफ ध्यान ही नहीं जाता।

गति बढ़ने से हम सुकून के पल कभी बिता ही नहीं पाते और अपने लिए विचार ही नहीं कर पाते। यह गति इतनी तेज होती है कि कई लोग अपने करियर की गति को भी इस गति में शामिल कर आगे बढ़ते रहते हैं। इसका नतीजा यह होता है कि काम करते-करते कुछ वर्षों बाद पता चलता है कि अरे हम कहाँ आ गए।

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एक सज्जन थे काफी होशियार और युवावस्था में उनके काम करने की गति और आगे बढ़ने की चाहत देखने लायक थी। वे अपने करियर के मामले में भी तेज गति से आगे बढ़ने का प्रयत्न करते थे। तेज गति से आगे बढ़े और शिक्षा के क्षेत्र में आ गए और वहाँ पर भी दस वर्ष गुजर जाने के बाद उन्हें एहसास हुआ कि अरे मैं तो बिजनेसमैन बनना चाहता था और यह जो काम कर रहा हूँ यह मेरे दिल की पसंद नहीं है।

उन्होंने पाया कि वे जिंदगी को काफी फास्ट ट्रेक पर ले जा रहे हैं बिल्कुल रेसिंग ट्रेक में दौड़ती कारों के समान। जिसके ड्रायवर को इस बात से कोई मतलब नहीं रहता है कि दर्शकों की क्या प्रतिक्रिया है या वातावरण कैसा है उन्हें तो बस रेसिंग ट्रेक दिखता है और गति पर ही उनकी नजर रहती है और कैसे भी करके आगे बढ़ने की तमन्ना रहती है।

क्या आपको नहीं लगता हम सभी इस प्रकार से जिंदगी जी रहे हैं जिसमें गति और प्रगति का ही मतलब है जिंदगी की मासूमियत और उसके दूसरे पक्षों को जानने का मौका ही नहीं ढूँढ पा रहे हैं। ऐसी गति किस काम की जिसमें हम स्वयं को ही सही तरीके से नहीं जान पाए और बस दौड़ लगाते जाएँ।

जरूरी नहीं की हम इतनी तेज गति से भागें कि सुख की परिभाषा ही भूल जाएँ और आखिर यह दौड़ हम लगा किस लिए रहे? ताकि सुख के दो क्षणों का उपभोग कर सकें ना कि स्वयं को ही भूल जाएँ।

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