वाहवाह की चाह कहीं निकलवा न दे आह

मनीष शर्मा
एक जमींदार को दुनियादारी की बहुत फिक्र रहती थी। वह दिन-रात दूसरों की समस्याएँ सुलझाता रहता था। आसपास के गाँवों में होने वाले हर कार्यक्रम में वह अनिवार्य रूप से उपस्थित रहता था। एक बार वह पड़ोस के एक गाँव के कार्यक्रम में भाग लेने गया हुआ था। तभी उसका घरेलू नौकर घबराया हुआ वहाँ पहुँचा।

जमींदार को सार्वजनिक जीवन में घर के लोगों की दखलंदाजी पसंद नहीं थी। उसने झुँझलाकर नौकर से पूछा- क्या बात है? नौकर बोला- मालिक, आपका प्यारा कुत्ता मर गया। जमींदार- अरे, कैसे? नौकर दस्त लगने से। घोड़े का मांस ज्यादा खा गया था। घोड़े का मांस! कहाँ से आया? अपनी घुड़साल से।

क्या? घोड़े मर गए? हाँ मालिक, बहुत दिनों से दाना-पानी नहीं मिला था। क्यों? वे कामचोर साईस कहाँ मर गए? वे तो तनख्वाह न मिलने से कब के भाग गए। क्या बकते हो? तनख्वाह क्यों नहीं मिली? जब धंधा-पानी ही चौपट हो गया तो तनख्वाह कहाँ से आती।

अरे, मालकिन ने हमें बताया नहीं। जब गाँव पहुँचूँगा तो पूछूँगा। किससे पूछेंगे मालिक। अब वे भी कहाँ रहीं। वे तो चल बसीं। क्या? कैसे? घर में आग लग गई थी, उसमें सब कुछ स्वाहा हो गया। मालकिन भी चपेट में आ गईं।

दोस्तो, हद कर दी ना जमींदार ने। उसे फुरसत ही नहीं है अपने घर की आग बुझाने की। क्योंकि जब उसके घर में आग सुलग रही थी तब वह कहीं और जाकर फूँक मारने में व्यस्त था ताकि वहाँ की आग बुझा सके और उसे वाहवाही मिल सके।

जी हाँ, यह 'वाहवाही' की चाह है ही ऐसी जो आदमी को अपने घर से दूर कर देती है। अपना घर फूँककर तमाशा देखने वाले लोग इसी के लपेटे में आकर अपने घर में उठती लपटों को देख नहीं पाते या देखकर भी अनदेखा कर देते हैं, क्योंकि इन्हें चिंता इस बात की नहीं रहती है कि घर वाले इनके बारे में क्या सोचते हैं, बल्कि इन्हें चिंता इस बात की होती है कि बाहर वाले इनके लिए अच्छा सोचें। इन्हें एक अच्छा इंसान मानें। इनकी तारीफों के पुल बाँधें। इन्हें सम्मान दें।

इस तरह बस वाहवाही लूटने में लगे रहते हैं, इस बात से अनजान कि इसके चक्कर में ये अपना बहुत कुछ खोते जा रहे हैं। ये नहीं जानते कि तारीफ करने वाले अधिकतर लोग केवल अपना काम निकलवाने के लिए इनकी तारीफों के पुल बाँधते हैं।

तारीफ-पसंद लोग आपको आपके गाँव या शहर में होने वाली अधिकतर पार्टियों, कार्यक्रमों, मंचों पर नजर आ जाएँगे। इन्हें देखकर आपको लगता होगा कि इतनी व्यस्तताओं के बीच भी ये समय कैसे निकाल लेते हैं। तो हम आपको बता दें कि ऐसे लोगों के पास समय ही समय होता है, क्योंकि इनका ध्यान घर या कामकाज की ओर तो होता ही नहीं। ये तो अपना सारा समय दुनियादारी निभाने में लगाते हैं, क्योंकि इससे इन्हें प्रचार जो मिलता है।

अखबारों में इनकी फोटो छपती है। चार लोग फोन करके इन्हें बधाइयाँ देते हैं। इस तरह ये ऐसी चकाचौंध के इतने आदी हो जाते हैं कि किसी दिन अगर इन्हें कोई फोन या बुलावा न मिले, शहर के किसी कार्यक्रम में इनकी शिरकत न हो तो ये बेचैन हो उठते हैं। जब बेचैनी बढ़ जाती है तो खुद ही संदेश भेजकर सामने वाले से न्यौता मँगवा लेते हैं और मंच पर बैठने के बाद ही इन्हें चैन आता है।

यदि आप भी इसी प्रवृत्ति के हैं तो हम आपको कहना चाहेंगे कि ये सब बेकार की बातें हैं। इनसे आपको कुछ भी हासिल होने वाला नहीं। आज आपका जो सम्मान है वह आपकी हैसियत के कारण है जो आपकी पारिवारिक स्थिति या आपके कामकाज की वजह से बनी है। यदि आप उसे छोड़कर दुनियादारी में लग जाएँगे तो जमींदार की तरह आप भी बहुत कुछ खो देंगे। तब जो लोग आपकी वाहवाही करते थे, वे आपकी ओर देखेंगे भी नहीं।

इसलिए इससे पहले कि आपकी वाहवाह की चाह आपकी आह निकलवाए, आप सुधरकर अपना ध्यान धंधे-पानी पर लगाएँ। आप तब तक ही सलामत रहेंगे जब तक वह सलामत रहेगा। यदि आप वाकई दूसरों के लिए कुछ करना चाहते हैं तो जरूर करें, लेकिन पहले अपनों के लिए कुछ करें। इससे घर के लोग खुश रहेंगे और वे भी आपके साथ दूसरों की मदद करने में आपकी मदद करेंगे। अरे, आप उठकर कहाँ चल दिए? घर वालों को समय देने। वाह भई वाह!

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