हाथ में हो अंकुश तभी काबू में रहती है हाथी की चाल

मनीष शर्मा
नेहरूजी की कश्मीर और पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) संबंधी नीतियों के विरोध में भारत के पहले वाणिज्य मंत्री डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी अप्रैल 1950 में अपने पद से इस्तीफा देकर विपक्ष के नेता बन गए। संसद में उन्होंने देशहित से जुड़े मुद्दों पर अपनी भाषण कला और तर्कशक्ति का कई बार लोहा मनवाया।

एक बार बहस के दौरान उपचुनावों में हुई धाँधली के लिए सरकार पर आरोप लगाते हुए वे बोले- प्रधानमंत्री शायद इस बात से अनजान हैं कि चुनावों में मनी एंड वाइन (धन और शराब) ने प्रमुख भूमिका निभाई है। और आप गाँधीवाद की बात करते हैं...।

नेहरूजी- इस तरह से आरोप लगाना निहायत ही शर्मनाक बात है। डॉ. मुखर्जी- मुझे खुशी है कि प्रधानमंत्री ने इसे शर्मनाक कहा। यह वाकई शर्मनाक बात है। नेहरूजी- माननीय सदस्य का इस तरह के बेबुनियाद और गैरजिम्मेदाराना आरोप लगाना शर्मनाक बात है। इससे इनके भाषण के स्तर का पता स्वतः ही चल जाता है।

डॉ. मुखर्जी- अच्छा, बहुत अच्छा। नेहरूजी (गुस्से में)- इसके पीछे की मानसिकता, इसके पीछे की लापरवाही का। डॉ. मुखर्जी- उनकी उत्तजेना ही बताती है कि उनमें देश पर शासन करने का सामर्थ्य नहीं।

नेहरूजी- मैं माननीय सदस्य को चुनौती देता हूँ कि वे या तो वाइन एंड वूमन के बारे में अपने आरोप साबित करें या फिर वापस लें। डॉ. मुखर्जी- मैंने मनी और वाइन कहा था। मैंने वूमन शब्द का इस्तेमाल नहीं किया। मुझे नहीं पता कि उनका इस्तेमाल भी हुआ या नहीं।

नेहरूजी (तमतमाते हुए)- मैं आपको चुनौती देता हूँ कि आप अपने गैरजिम्मेदाराना वक्तव्य को साबित करें। डॉ. मुखर्जी- इसमें आपा खोने की क्या जरूरत है। नेहरूजी- मुझे लगता है कि आपा खोने और ऐसी बातें कहने का अधिकार केवल माननीय सदस्य का ही है। इस पर डॉ. मुखर्जी यह कहते हुए बैठगए कि आपा खोने का जन्मसिद्ध अधिकार तो श्री जवाहरलाल नेहरू का ही है और हमारा अधिकार तो है कि हम उसे सहें।

दोस्तो, कहते हैं कि अंकुश हाथ में रहने पर ही हाथी की चाल काबू में रहती है वर्ना चाल बिगड़ने का अंदेशा बना रहता है। शासन और शासक पर भी यही बात लागू होती है। कोई कितना ही महान और योग्य शासक क्यों न हो, उसे भी यदि विरोध का सामना न करना पड़ेतो उसके निरंकुश होने की संभावना बनी रहती है और अधिकतर तो हो ही जाते हैं।

इसके बाद वे मनमानी करके अपने फैसले दूसरों पर थोपने लगते है। अंततः तानाशाह बनकर विरोध के स्वरों को दबाने लगते हैं। वे भूल जाते हैं कि एक दिन वे दबे स्वर ही मिलकर उन्हें सत्ता से उखाड़ फेंकेंगे, फेंकते हैं। इसलिए महान शासक वही कहलाता है जो अपने विरोधियों को भी पूरा मौका दे ताकि वे उस पर अंकुश रख सकें। नेहरूजी भी ऐसा ही करते थे। कहा भी गया है कि एक मजबूत पक्ष के लिए मजबूत विपक्ष का होना जरूरी है।

दूसरी ओर, विपक्षी होने का मतलब यह नहीं कि सामने वाले की उचित बात, जनहित के फैसले का भी विरोध किया जाए। ऐसा करने वालों की बातों को लोग गंभीरता से नहीं लेते, क्योंकि उन्हें लगने लगता है कि ये सिर्फ विरोध करने के लिए ही विरोध करते हैं।

इसलिए यदि आप विपक्ष की भूमिका में हैं और चाहते हैं कि आपकी बात पर गौर किया जाए, तो अपनी विश्वसनीयता बनाकर रखें। केवल विरोध करने के लिए ही विरोध न करें। यदि मुद्दों पर तर्क सहित अपनी बात कहेंगे तो आपकी बात मानी जाएगी। और अंत में, आज डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी की जन्मतिथि है। डॉ. मुखर्जी ने सिखाया कि आपके सामने कितने ही बड़े कद-पद का व्यक्ति क्यों न हो, आपमें अपनी बात कहने का साहस होना चाहिए। यही साहस आपको आगे बढ़ाता है।

इसलिए यदि आपका बॉस कहीं गलत है तो उसे कहने से न चूकें। हो सकता है अचानक सामने आई बात से वह उत्तेजित हो जाए, लेकिन बाद में वह आपके लिए अच्छा ही सोचेगा, क्योंकि उसे आपके विरोध में अपनी या संस्था की भलाई जो दिखाई देगी, वर्ना तो चुप रहकर आप नुकसान भी होने दे सकते थे। अरे भई, आपने सही समय पर विरोध करके हमें मुसीबत से बचा लिया।

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