गुरुमंत्र : सीखें कालिदास के लाइफ मैनेजमेंट से

डॉ. विनोद कुमार शर्मा

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कालिदास संस्कृत के सर्वश्रेष्ठ महाकवि थ े। उनके साहित्य में जीवन-प्रबंधन के ऐसे सूत्र मिलते हैं जिनके बल पर अनायास ही जीवन-यात्रा को सुगम और मंगलप्रद बनाया जा सकता है। यहां प्रस्तुत हैं कुछ सूत्र।

आशावादी बनें
उम्मीदें ही जीवन का स्रोत है। आशा को सर्वोत्तम ज्योति और निराशा को परम अंधकार कहा गया है। महाकवि के अनुसार आशा के सहारे बड़े से बड़े दुःख को सहन किया जा सकता है। हृदय को टूटने से बचाया जा सकता है और आत्महत्या जैसे महापाप से बचा जा सकता है-'शक्यं खलु आशाबन्धेनात्मानं धारयितुम्‌' (विक्रमोर्वशीय)।

दुःख की अभिव्यक्ति आवश्यक
कहा ही जाता है कि दुख बांटने से हल्का होता है। स्नेहीजनों में बांटा गया दुःख सहन करने योग्य हो जाता है। अतः आवश्यक है कि हम अपने दुःख से भीतर ही भीतर घुटें नहीं बल्कि उसे मित्रों को बताकर परामर्श लें-'स्निग्धजनसंविभक्तं हि दुःखं सह्‌यवेदनं भवति।'

सुख-दुःख में रखें समभाव
मेघदूत में कहा गया है कि ऐसा कोई नहीं है जिसे जीवन हमेशा सुख ही सुख या फिर हमेशा दुख ही दुख देता है। जीवन की दशाएं पहिए की धार के क्रम से नीचे-ऊपर चलती रहती हैं-'कस्यात्यन्तं सुखमुपनतं दुःखमेकान्ततो वा, नीचैगच्छित्युपरि च दशा चक्रनेमिक्रमेण' (उत्तरमेघ 46)। अतः हमें दोनों को ही जीवन का हिस्सा मानकर ग्रहण करना चाहिए।

पहले रोग की पहचान फिर चिकित्सा
आजकल लोग रोग को ठीक से जाने बिना ही जल्दबाजी में उसका उपचार प्रारंभ कर देते हैं जो कई बार बड़ा घातक सिद्ध होता है। कालिदास की सलाह है कि रोग को अच्छी तरह पहचाने बिना उसकी चिकित्सा आरंभ नहीं करनी चाहिए- 'विकारं खलु परमार्थतो अज्ञात्वा अनारम्भः प्रतीकारस्य' (अभिज्ञानशाकुन्तलं, अंक 3)।

वाणी का प्रयोग हो संतुलित
जीवन में अनेक संकट वाणी के अनुचित प्रयोग से उत्पन्न होते हैं। सफल जीवन-प्रबंधन के लिए उचित, अवसरानुकूल तथा संतुलित वाग्व्यवहार महत्वपूर्ण है। रघुवंश (9.8) में इसका उदाहरण है-'राजा दशरथ ने अपने सत्तारूढ़ होने पर इंद्र के सामने भी दीनतापूर्ण वाणी का प्रयोग नहीं किया, हास-परिहास में भी असत्य नहीं बोला और अपने शत्रुओं से भी कटुवचन नहीं कहे।'

लक्ष्य प्राप्ति तक न लें विश्राम
जैसे-जैसे प्रतिस्पर्धा बढ़ रही है वैसे-वैसे लक्ष्य प्राप्ति कठिन होती जा रही है। कालिदास का संदेश है कि जीवन-प्रबंधन के लिए हमें उचित समय पर कार्य करने के लिए तत्पर रहना चाहिए और फल प्राप्ति तक विश्राम नहीं लेना चाहिए। जैसे कि रघुवंशी फल प्राप्ति तक कर्म करते थे और उचित समय पर सावधान रहते थे (रघुवंश, 1.5)।

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