न दबें परफेक्शन के बोझ से

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राम को उसकी कंपनी में एक बड़े प्रोजेक्ट का इंचार्ज बनाया गया था, तब से ही उसके साथी उससे कॉम्पिटिशन करने लगे थे। इस बढ़ते कॅम्पिटिशन में राम अपने काम पर ज्यादा ध्यान देने लगा। वह हर कार्य को बारीकी से दो-तीन बार देखता। शुरुआत में तो सब ठीक चलता रहा, लेकिन धीरे-धीरे वह एक खास तरह के दबाव का शिकार बनने लगा।

एक काम को कई बार देखना। मन में यह आशंका बनी रहना कि कहीं कोई कमी तो नहीं रह गई। इस दबाव के कारण वह अपना प्रेजेंटेशन समय पर नहीं बना पाया। प्रोजेक्ट पेश करते समय सब गड़बड़ हो गया। उसने जो प्रोजेक्ट तैयार किया था, उसे भी ठीक तरह से पेश नहीं कर सका।

ऐसी‍ स्थितियां जॉब के दौरान अक्सर बनती हैं। जो कार्य के दौरान अपने ऊपर काम का भारी दबाव बना लेते हैं, अक्सर उनके साथ ऐसा होता है। वे सहज रहकर अपना कार्य नहीं कर पाते। असल ऐसा नाकामयाबी के डर के कारण होता है। जब किसी काम करने को आगे बढ़ते हैं तो अपने ऊपर ही भरोसा नहीं होता।

हम उस कार्य में पूर्णता चाहते हैं। हमारे मन में यह रहता कि हम जो भी काम करें उसमें सब बेहतर होना चाहिए। किसी प्रकार की गड़बड़ी न हो। यह परफेक्टोहॉलिक सिंड्रोम कहलाता है। यही सिंड्रोम हमारे मन में टहलता रहता है। उसकी वजह हम अपने काम जरा सी गलती बर्दाश्त नहीं कर पाते। यह एक बीमारी की तरह हमें जकड़ लेता है।

इससे हमें अपने काम पर भरोसा कम होने लगता है। स्पोर्ट्‍स में भी ऐसा होता है। खिलाड़ी प्रैक्टिस में तो कई ‍कीर्तिमान बनाते हैं, लेकिन जब असल मैच में उन्हें फिसड्डी साबित होते हैं। ऐसी स्थिति बचने के लिए जरूरी है कि परफेक्शन के बोझ के नीचे दबे नहीं। इससे आपको कार्य बोझ नहीं लगेगा। आपका हर कार्य बेहतर हो यह जरूरी नहीं।

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