न मनाएँ मात का मातम मात से सीखें और दें मात

मनीष शर्मा
ND
एक बार एक नवाब ने शतरंज खेलने की इच्छा होने पर इस खेल में पारंगत अपने एक सेवक को बुलाकर कहा- चलो, जल्दी से बिसात बिछाओ। हम शतरंज खेलेंगे। सेवक ने वैसा ही किया और खेल शुरू हो गया।

खेल में अनाड़ी नवाब शुरुआत से ही गलतियाँ करने लगा, जबकि सेवक एक-एक चाल सोच-समझकर चलते हुए नवाब के मोहरों को पीटता गया। जल्द ही नवाब का राजा घिर गया। इस पर सेवक चिल्लाया- हुजूर, ये लो शह और मात। सेवक के खुशी से खिले चेहरे को देखकर नवाब का चेहरा फूल गया। उसने शतरंज की गोटियाँ उठाकर सेवक को यह कहते हुए दे मारीं कि तेरी इतनी मजाल, जो हमें मात दे।

हाथी दाँत से बनी गोटियों की चोट से सेवक कराह उठा। कुछ देर बाद नाराजगी खत्म होने पर नवाब सेवक से बोला- चलो, कोई बात नहीं। एक बाजी और हो जाए। इस बार देखना कि मैं तुम्हें कैसा मजा चखाता हूँ। सेवक कैसे मना करता, वह चुपचाप खेलने लगा। चाल पर चाल चली जाने लगीं।

एक चाल चलने के बाद सेवक अचानक एक खंभे की आड़ में जाकर खड़ा हो गया। यह माजरा नवाब की समझ में नहीं आया। उसने कड़कती आवाज में पूछा- ये क्या गुस्ताखी है? सेवक कँपकँपाती आवाजमें बोला- हुजूर, एक बार फिर शह और मात।

दोस्तो, कई लोग इसी तरह हार को पचा नहीं पाते और उसकी खीझ सामने वाले पर निकालते हैं। ऐसे में वे अगली बार भी हारेंगे ही, क्योंकि वे अपनी सारी ऊर्जा सामने वाले की सफलता से जलने में ही लगा देते हैं और अपनी कमजोरियाँ दूर नहीं कर पाते। ऐसे में कई बार व्यक्ति बार-बार एक ही दाँव से सामने वाले से मात खाता है।

इसलिए अपनी मात का मातम मनाने, मात पर तमतमाने की बजाय उस मात से सीखें। कहा भी गया है कि व्यक्ति अपनी जीत से नहीं, बल्कि हार से सीखता है। वैसे भी एक बार हार जाने का मतलब यह नहीं कि अगली बार आप जीत नहीं सकते। ऐसा तो तब होता है जब आप अपनी असफलताओं से हारकर बैठ जाते हैं और जीत के लिए प्रयास ही नहीं करते। तब तो सफलता का हार कभी आपके गले की शोभा नहीं बन सकता।

इसलिए यदि आप होनहार हैं और बहुत आगे बढ़ना चाहते हैं तो हर बार जीत की कामना करने की बजाय हार के लिए भी मनुहार करें, क्योंकि जीतने की आदत पड़ जाए तो फिर हार बर्दाश्त नहीं होती। और जीवन तो खेल ही हार-जीत का है। आज आप लगातार जीत रहे हैं तो यह संभव नहीं कि हमेशा ऐसा ही होगा। कई बार ऐसा होता है कि शुरुआती नाकामियों से सीखकर आगे बढ़ने वालों को बाद में जीत ही जीत नसीब होती जाती है, तो कई शुरुआती सफलताओं के बाद लगातार हारते जाते हैं।

अच्छी स्थिति तो वह होती है, जब हार-जीत का क्रम बराबरी से चलता रहे। इससे रुतबा भी बना रहता है। जैसे कि कितने ही बड़े सुपर स्टार की हर मूवी तो सुपर हिट हो नहीं सकती। कुछ तो फ्लॉप होंगी ही। यदि हिट-फ्लॉप का क्रम बना रहे तो उसकी माँग बनी रहती है।

दूसरी ओर, व्यक्ति को अपने से छोटे से हारना बर्दाश्त नहीं होता। उसकी यह हार इसलिए होती है, क्योंकि उसे अपनी जीत का विश्वास होता है और वह अति आत्मविश्वास में गलतियाँ कर बैठता है। इसलिए यदि आप मैदान में हैं तो सामने वाले को हमेशा अपनी बराबरी का मानें, भले ही वह छोटा या कमतर हो।

वैसे नीति तो यही कहती है कि व्यक्ति को अपने से कमतर से मुकाबला करने से बचना चाहिए, क्योंकि इससे प्रतिष्ठा घटती ही है। कहते भी हैं कि निबल जानि कीजै नहीं, कबहूँ बैर विवाद। जीते कछु शोभा नहीं, हारे निंदा बाद। इसलिए मुकाबला हमेशा अपनी बराबरी वाले या श्रेष्ठ से ही करना चाहिए। तब हारने के बाद भी आपकी प्रतिष्ठा नहीं गिरती। होती है।

और अंत में, आज 'चैस डे' है। कहते हैं जिंदगी शतरंज का खेल है। जहाँ जीतने के लिए व्यक्ति उल्टी-सीधी चाल चलकर, अपनी गोटियाँ बिठाकर सामने वाले की गोटियाँ पीटता रहता है। जीतने के लिए वह कई बार छोटी-मोटी बाजियाँ गँवा देता है ताकि सामने वाले की चालों को समझ सके और वह जीत के मुगालते में आकर महत्वपूर्ण बाजी हार जाए। इसी को कहते हैं हारने के बाद हार को जीत में बदलना। अरे भई, आपकी शह पर ही हम सामने वाले को मात दे पाए।

(19 जुलाई 2008 के गुरुमंत्र में 'मिस्र के तत्कालीन राष्ट्रपति टीटो' प्रकाशित हुआ है। इसे इस तरह पढ़ा जाए- 'मिस्र के तत्कालीन राष्ट्रपति नासर और यूगोस्लाविया के नेता मार्शल टीटो।' त्रुटिवश बीच के शब्द छूट गए थे।)
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