जिंदगी के गुण स्वयं में मौजूद

Webdunia
` डॉ. विजय अग्रवा ल
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दूसरा यह भी कि दूरदराज के लोगों के आत्मविश्वास का स्तर काफी नीचे था। हालाँकि उनके पास क्षमताएँ थीं और योग्यताएँ भी थीं। जज्बा भी था, लेकिन दुर्भाग्य से इन सबको सामने लाने के अवसर नहीं थे।

इसलिए आप देखेंगे कि यदि साहित्य, कला और संस्कृति के क्षेत्र को छोड़ दिया जाए तो प्रभुत्व वाले बड़े स्थानों पर उच्च तथा उच्च-मध्य वर्ग के ही शहरी लोगों का कब्जा था, लेकिन आप सौभाग्यशाली हैं कि आपके समय में इसका क्षेत्र व्यापक हो चुका है। अब तो जिंदगी की शायद ही कोई ऐसी जगह होगी, जहाँ गाँव, कस्बों के युवक मौजूद न हों और वे बहुत अच्छा न कर रहे हों। पहले की और आज की क्रिकेट टीम को ले लीजिए।

आप पहले और आज के प्रशासनिक अधिकारियों को ले लीजिए। आप पहले और आज के फिल्म जगत को ले लीजिए। राजनीति को ले लीजिए या फिर बौद्धिक क्षेत्र ले लीजिए। हर जगह आपको हिन्दी जानने वाला गाँव-गँवई के संस्कार से भरा हुआ नौजवान मौजूद दिखाई दे जाएगा। यह पहली बार हुआ है।
  साहित्य, कला और संस्कृति के क्षेत्र को छोड़ दिया जाए तो प्रभुत्व वाले बड़े स्थानों पर उच्च तथा उच्च-मध्य वर्ग के ही शहरी लोगों का कब्जा था, लेकिन आप सौभाग्यशाली हैं कि आपके समय में इसका क्षेत्र व्यापक हो चुका है।      


पहली बार सफलता के क्षेत्र में लोकतंत्र की स्थापना हुई है। निश्चित रूप से इसके लिए हमें सूचना क्रांति को सलाम करना चाहिए। यहाँ मैं यह बात एक विशेष उद्देश्य से कह रहा हूँ। मेरा उद्देश्य यह है कि छोटी जगहों से आए हुए नौजवान अपने जिन-जिन गुणों को और अपनी जिन-जिन स्थितियों को अपनी कमजोरियाँ समझते हैं, सच यह है कि उनके वे गुण और उनकी वे कमजोरियाँ ही उनकी सच्ची ताकत हैं।

यह बात मैं आप लोगों को बरगलाने के लिए नहीं, बल्कि सचाई से अवगत कराने के लिए कह रहा हूँ और वह सचाई यह है कि गाँव-कस्बे या छोटे शहरों से आए हुए लोगों के पास जिंदगी के जितने व्यापक अनुभव होते हैं, उतने दूसरों के पास नहीं।

वे जिंदगी की सचाइयों जानते हैं और जिंदगी के संघर्ष को भी। ये नौजवान अहंकार के बहुत ऊँचे कंगूरे पर हमेशा बैठे नहीं रहते। इन्हें अपने कंगूरों से नीचे उतरकर अपने जैसे लोगों से बातचीत करने में लाज नहीं आती। चूँकि ये खुद दुःख-दर्दों को झेले रहते हैं इसलिए दूसरों के दुःख-दर्दों को समझते हैं और समझकर उन्हें दूर करने की कोशिश भी करते हैं।

इनके साथ सबसे बड़ी बात यह होती है कि मानवीय-प्रबंधन के लिए जिन-जिन गुणों की जरूरत होती है, उन गुणों को जानने और उन्हें अपने अंदर विकसित करने के लिए इन लोगों को किसी आईआईएम में भर्ती नहीं होना पड़ता।

ये सहज रूप में जानते हैं कि दूसरों के साथ तालमेल कैसे बैठाया जाता है, क्योंकि इनकी अब तक की जिंदगी तालमेल बैठाते-बैठाते ही यहाँ तक पहुँची होती है। इसमें भारतीय जीवन मूल्य प्रबल होते हैं। इसलिए ये जानते हैं कि अनुशासन क्या होता है और बड़ों की इज्जत क्यों की जानी चाहिए। ऐसा नहीं है कि ये किसी का विरोध नहीं करते। ये विरोध भी करते हैं, लेकिन इस तरीके से कि न तो सामने वाले की गरिमा घटे और न ही स्वयं शिष्टाचार से नीचे गिरें। इनमें अपने आप ही नेतृत्व के वे गुण आ जाते हैं, जहाँ यह माना जाता है कि नेतृत्व करने वाले को सबसे मेल-जोल रखना चाहिए और पाने की बजाय देने की भावना से भरा होना चाहिए।

मित्रो, ये सारे गुण, जिन्हें विकसित करने के लिए हजारों-लाखों रुपए की फीस ली जाती है, आप सबके अंदर सहज रूप में मौजूद हैं। आप अपनी मिट्टी को पहचानिए और अपने अंदर छिपे हुए इन बीजों को मौका दीजिए कि ये सब अंकुरित होकर लहलहा सकें। याद रखिए कि वे गुण, जो जिंदगी के सबसे कीमती गुण हैं, आपके अंदर यूँ ही मौजूद हैं। क्या यह कम बड़ी बात है?

( लेखक पत्र सूचना कार्यालय, भोपाल के अपर महानिदेशक हैं)
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