वैश्वि‍क बाजार में भारतीय शि‍क्षा

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- विष्णुदत्त नागर

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विश्वविद्यालयीन शिक्षा का अर्थ है देश में उत्तम श्रेणी के वैज्ञानिक, अर्थशास्त्री, साहित्यकार व सबसे पहले तो जागरूक राजनेता तैयार हों। क्या हम इस तथ्य को नकार सकते हैं कि हमारे देश में इनका नितांत अभाव बना हुआ है?

असल में विदेशी विश्वविद्यालयों के भारत में प्रवेश के मुद्दे को इतिहास, उपयोगिता और समता की दृष्टि से देखा जाना चाहिए। शैक्षणिक वैश्वीकरण के दौरान भारत में उच्च शिक्षा बाजार का उत्पाद बनती जा रहा है। युवा शक्ति की क्षमताओं और प्रतिभाओं को सबसे ऊँची बोली लगाने वालों के हाथों नीलाम किया जा रहा है।

एक ओर जहाँ नए उद्योगों और विद्याधाराओं के लिए शिक्षा और ज्ञान के नए दरवाजे खुल रहे हैं, वहीं दूसरी ओर शैक्षणिक संस्थाओं में शून्य की स्थिति आने लगी है। विश्व व्यापार संगठन ने भी अब शैक्षणिक सेवाओं को अपने जाल में लाने की कवायद शुरू कर दी। सभी सदस्य देशों से कहा गया है कि वे शैक्षणिक सेवाओं, ई-कॉमर्स समेत अन्य सेवाओं के व्यापार में निश्चित प्रतिबद्धता विश्व व्यापार संगठन को सूचित करें। इसके बाद वार्ता प्रक्रिया शुरू होगी और जो समझौते होंगे, वे सभी देशों पर लागू होंगे।

विश्व व्यापार संगठन की कवायद का मुख्य उद्देश्य यही है कि वस्तुओं और सेवाओं के स्वतंत्र व्यापार के समान ही शैक्षणिक सेवाओं का भी निर्बाध व्यापार हो। शैक्षणिक सेवाओं को बाजार व्यवस्था का अंग बनाने का नतीजा यह होगा कि स्थापित हो चुकने के बाद वे ब्रांड नाम से ही चलेंगी। ऐसी स्थिति में भारत को शैक्षणित पर्यावरण के अनुरूप शिक्षा के नए अवसर पैदा करने होंगे तथा विश्वविद्यालयों के शैक्षणिक पाठ्यक्रमों का पुनरीक्षण करने और शैक्षणिक गुणवत्ता बढ़ाने पर अधिक से अधिक ध्यान देना होगा ।

प्रश्न उठता है कि ऐसी स्थिति में विश्वविद्यालयों के शिक्षक और छात्र क्या करें? दुर्भाग्य से अधिकांश विश्वविद्यालयों में ज्यादातर शिक्षक प्रशासनिक नौकरशाही का हिस्सा बनकर गुणवत्ता विकास में अवरोध ही सिद्ध हुए हैं। यदि विश्वविद्यालय शिक्षक पर थोड़ा भी ध्यान देते तो आज ऐसा संकट नहीं होता।
अधिकांश शिक्षकों की स्थिति यह है कि अपने ही गोरखधंधे में उलझे रहने के कारण छात्रों से संवाद नहीं हो पाता और तालमेल भी नहीं बैठता। दूसरी ओर सभी बड़े छात्र संगठन अपने संरक्षक पार्टी के पिछलग्गू बनकर न तो देश के बुनियादी सामाजिक, आर्थिक माहौल के प्रति संवेदनशील रह गए हैं और न ही देश पर हो रहे सांस्कृतिक हमले के विरुद्ध आक्रोश ही व्यक्त कर रहे हैं।

दुर्भाग्य तो यह है कि देशी-विदेशी चैनलों के माध्यम से वे सांस्कृतिक हमले के शिकार होने के साथ उसके पोषक भी होते जा रहे हैं। यदि देश के उच्च शिक्षा क्षेत्र को वैश्विक बाजार व्यवस्था के तहत विदेशी कंपनियों द्वारा स्थापित किए जाने वाले विदेशी विश्वविद्यालयों और उनके सहभागी विदेशी चैनलों के हमले से बचाना है तो नई शैक्षणिक क्रांति का सूत्रपात करना होगा।

अभी तक पश्‍चि‍म अर्थात् औद्योगि‍क देशों ने ज्ञान को बेचा, लेकि‍न तीसरी दुनि‍या वि‍शेषकर भारत में शि‍क्षा को बि‍काऊ नहीं बनाया जा सका था। भारत की मेधा, सत्‍यनि‍ष्ठा और सत्‍य के आचरण ने पश्चि‍म के भौति‍कवादी दर्शन को परि‍मार्जि‍त कि‍या। पश्चि‍म का ज्ञान पूर्व की बुद्धि‍मत्ता के बि‍ना अपंग और अधूरा साबि‍त हुआ।

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