यह काम मेरे से कहाँ होगा? कैसे करूँगा। मेरे बस का नहीं है। या क्या करना है यार सब ठीक चल रहा है। इन सब बातों से यही सिद्ध होता है कि आपने कभी अपनी क्षमताओं को पहचाना ही नहीं। उनका आकलन नहीं किया।
वाकई एक व्यक्ति के लिए बहुत मुश्किल होता है स्वयं का मूल्यांकन करना, स्वयं के बारे में जानना। जबकि दूसरों के बारे में वह ढेर सारे सकारात्मक और नकारात्मक बिंदु कुछेक सेकंड्स में बता सकता है।
चाहे सामने वाला उसका बहुत अच्छा मित्र हो या जिससे उसके विचार मेल नहीं भी खाते हों। इसके लिए चाहें तो कभी अपने मित्रों की मदद लें। या उनके विचारों को ईमानदारी से सुनें। आत्मविश्लेषण करें। निश्चित रूप से पाएँगे कि आपने कभी इस ओर तनिक भी ध्यान नहीं दिया। आप अपने को जहाँ 5 अंक ही देते थे वहीं आप स्वयं को 80-85 अंक के तुल्य पाएँगे। और यह कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी और न ही यह कोई गलत मूल्यांकन होगा आपका।
आखिर यह अंतर क्यों? स्वयं को जानना काफी कठिन है लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं कि हम स्वयं को कम आँकने लग जाएँ।
यह काम मेरे से कहाँ होगा? कैसे करूँगा। मेरे बस का नहीं है। या क्या करना है यार सब ठीक चल रहा है। इन सब बातों से यही सिद्ध होता है कि आपने कभी अपनी क्षमताओं को पहचाना ही नहीं। उनका आकलन नहीं किया।
इससे न केवल हमारी क्षमताओं का ह्रास होता है वरन् धीरे-धीरे हम हीन भावना से ग्रस्त होने लगते हैं। आगे बढ़ने के प्रति हम जो नीरसता दिखाते हैं। उसके पीछे कुछ कारण होते हैं जैसे परिवर्तन आदमी को पसंद नहीं होता। जो चल रहा है उसे ऐसा ही चलने दें। आदमी को सबसे अच्छी स्थिति वही लगती है। यह वह आदमी है जो भीड़ के साथ बस खड़ा है। सभी एक-दूसरे को धक्का देते-देते, इधर-उधर हटाते स्वयं के लिए रास्ता बनाते चलते चले जाते हैं। यहाँ आदमी स्वयं नहीं भी चले तो अपने गंतव्य (जहाँ उसे इस भीड़ भरे स्थान से बाहर जाना है) तक पहुँच जाता है।
या उसे असुरक्षा घेरे रहती है मैं कुछ आगे करने जाऊँ तो कहीं ऐसा न हो कि जो आज मेरे पास है वह भी हाथ से चला जाए। मतलब उसे नकारात्मकता पहले नजर आती है और अपने कदम पीछे खींच लेता है। बल्कि वह नहीं देखता कि मेरे से पहले जिन्होंने इस परिवर्तन को स्वीकार किया वह आज कहाँ से कहाँ पहुँच गए।
कभी दुर्भाग्य से ऐसा हुआ भी कि तत्काल आपको आगे सफलता नहीं मिल पाई। तो कम से कम वह तो आप रहेंगे ही जो स्तर आपका पहले था। फिर नाहक ही चिंतित क्यों होते हैं।
आज इन्हीं कारणों से आदमी जिस नौकरी में है या जो छोटा-मोटा अपना काम-धंधा कर रहा है , से आगे जाने का विचार ही नहीं करता और वर्षों बाद भी वहीं का वहीं स्वयं को पाता है। कभी सोचेगा भी तो बहाना ले लेगा। यार समय ही नहीं मिलता। कब समय निकालूँ इसके लिए। अरे भाई समय निकलता नहीं समय तो निकालना पड़ता है।
किनारे बैठकर सोचने से समंदर पार नहीं होता। उसके लिए कूदकर 2-4 हाथ-पैर भी चलाने पड़ते हैं। और यकीन मानिए कूद जाने के बाद यह इतना कठिन भी नहीं होता जितना आप पहले सोच रहे थे।
किसी ने ठीक ही कहा है - कौन कहता है आसमाँ में छेद नहीं हो सकता एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारो ं
आपको खुद ही एहसास हो जाएगा कि आप अभी तक स्वयं को कितना कम आँक रहे थे और इस सिलसिले को आगे भी जारी रखें। आज जितने बड़े-बड़े उद्योगपति घरानों के नाम हम सुनते हैं, इनके बारे में पढ़ते हैं। इनमें से अधिकांश ने किसी इतने नीचे स्तर से शुरुआत की है कि सोचा ही नहीं जा सकता कि आज इन ऊँचाईयों तक कैसे आ गया। फर्क क्या है हममें और इनमें अपनी क्षमताओं को पहचानने का। इन्होंने अपने अंदर छुपे इंसान को पहचाना और हम किनारे पर बैठे सोचते ही रहते हैं।