आरटीई : स्कूल कर रहे हैं ग़रीब बच्चों को परेशान!

वेबदुनिया डेस्क

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बेंगलुरू के एक स्कूल में हुई एक घटना से यह सामने आया ‍कि बड़े और प्रायवेट स्कूल आरटीई कानून के प्रति कितनी असंवेदनशीलता रखते हैं। इस कानून के लागू होने की सजा उन बच्चों को भुगतना पड़ती है जो इस कानून आरक्षण में बड़े महंगे प्रायवेट स्कूलों में भर्ती हुए हैं।

ऐसे स्कूल गरीब तबके के बच्चों को मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा कानून के तहत अपने यहां प्रवेश तो दे देते हैं, किंतु उन बच्चों को स्कूल में अमानवीयता का शिकार होना पड़ता है। स्कूल में उनके साथ सौतेला व्यवहार किया जाता है। बेंगलुरू के एक स्कूल में हुई घटना इसका प्रमाण है।

बेंगलुरू के इस स्कूल में मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा अधिकार कानून (आरटीई) के तहत कमजोर तबकों के लिए आरक्षित पच्चीस फीसदी सीटों पर स्कूल में पढ़ रहे चार बच्चों के सिर के आगे हिस्से के बाल इसलिए काट दिए गए ताकि उनकी पहचान हो सके।

इतना ही नहीं, आरटीई के तहत भर्ती हुए इन बच्चों के लिए अलग सीटें भी बनाई गई हैं। यह घटना किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को झकझोर देने वाली है। इस घटना से यह साफ जाहिर है कि ये स्कूल थोपे गए कानून का किस तरह से विरोध करते हैं।

यह स्कूल उस एसोसिएशन का हिस्सा है जो आरटीई के तहत सीटें आरक्षित रखने का विरोध कर रही है। देश में 1 अप्रैल 2010 से लागू नि:शुल्क एवं अनिवार्य बाल शिक्षा अधिकार अधिनियम 2009 का बड़े निजी स्कूल शुरू से ही विरोध कर रहे हैं।

ऐसे स्कूलों ने कानून को सुप्रीम कोर्ट में भी चुनौती दी थी। स्कूलों ने इस कानून के विरोध में अमीर बच्चों के साथ गरीब बच्चों के कक्षा में एकसाथ बैठने पर कई तर्क दिए, लेकिन देशहित में सुप्रीम कोर्ट ने इस कानून को सवैंधानिक ठहरा दिया।

ऐसे स्कूल कानून के अंतर्गत गरीब एवं आरक्षित बच्चों को अपने यहां भर्ती तो कर लेते हैं, लेकिन इस कानून टीस उनके मन में बनी रहती है और वे बच्चों के साथ अत्याचारपूर्ण व्यवहार करते हैं। इस घटनाओं से पता चलता है कि सरकार के न्याय और समता लाने के प्रयासों की किस तरह धज्जियां उड़ाई जाती है।

हाल ही एक एनजीओ ने आरटीई के जमीनी सचाई जानने के लिए एक सर्वे किया था। उस अध्ययन में जानना चाहा कि ‍देश में कितने प्रतिशत स्कूल नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा कानून का पालन करते हैं।

अध्ययन में आंकड़े भी चौंकाने वाले आए। देश के 95 प्रतिशत स्कूलों में आरटीई के दिशा-निर्देशों का पालन नहीं किया जाता है। देश ‍नीति-निर्माताओं को इस सचाई को स्वीकार करना होगा कि सिर्फ कानून बनाने से देश की गरीब जनता का भला नहीं होगा।

आवश्यकता इस बात की है कि स्कूलों में इस कानून को अमल में लाने के लिए सख्त कदम उठाए जाएं। देश या राज्य स्तर पर एक मॉनीटरिंग कमेटी या गवर्नमेंट बॉडी का गठन किया जाए। मानवीय मर्यादा तोड़कर मासूम बच्चों पर अत्याचार करने वाले ऐसे स्कूलों पर भी कठोर कार्रवाई की जाए।

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