उच्च शिक्षा की मुश्किलें

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- रंजीत अभिज्ञान

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यों तो देश में आजादी के आंदोलन के समय से ही शिक्षा की व्यवस्था, उसके स्वरूप और उद्देश्य को लेकर विचार-मंथन हो रहा है। आजादी के बाद देश के कर्णधारों ने इस दिशा में पूरी शिद्दत के साथ सोचा था कि देश में सक्षम विश्वविद्यालयों के रूप में ज्ञान, शोध और संस्कृति के ऐसे स्वायत्त व समृद्ध केंद्र विकसित होंगे।

आजादी के बाद 1948 में गठित डॉ. राधाकृष्णन आयोग की अनुशंसाएँ उन्हीं भावों व विचारों से प्रेरणा प्राप्त करने वाली थीं। बाद में 1968 में बना डॉ. डीएस कोठारी आयोग और 2005 में ज्ञान आयोग भी इसी शिक्षा में उत्पन्न चिंता का परिणाम थे।

उच्च शिक्षा में जड़ता के फैलाव को रोकने की जरूरत अरसे से महसूस की जा रही थी। प्रोफेसर यशपाल की अध्यक्षता में फरवरी 2005 में बनी समिति की रिपोर्ट के बारे में शिक्षाविदों और विद्वानों ने महसूस किया है कि सिफारिशें लागू हुईं तो शायद वह जरूरत पूरी हो। इस समिति का सबसे बड़ा योगदान यह है कि इसने देश में उच्च शिक्षा को जड़ता की शिकस्त में ढकेलने वाले सभी जगहों, ढाँचों तथा सोच पर मारक चोट की है।

इसने सिर्फ विश्वविद्यालय अनुदान आयोग जैसे 'सुपर बॉस' संस्थाओं के नकारेपन की चर्चा ही नहीं की है, बल्कि उसकी जगह चुनाव आयोग की तर्ज पर एक ऐसा 'राष्ट्रीय उच्च शिक्षा और शोध आयोग' बनाने की सिफारिश की है, जो सीधे संसद के प्रति जबावदेह होगा।
क्यों हमारे आईआईटी केवल 'अंडर-ग्रेजुएट्स की फैक्टरी' बनकर रह गए हैं, उनके रिश्ते प्राकृतिक तथा समाज विज्ञान, साहित्य तथा संस्कृति से खत्म हो गए हैं और वे नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने लायक एक भी प्रतिभा को तैयार नहीं कर पाते?


ज्ञान समाज और अर्थव्यवस्था का आधार है। इस आधार को मजबूत बनाने के लिए सबसे ज्यादा जरूरी है कि बड़े पैमाने पर नए-नए ज्ञान का सृजन हो। पर आखिर ऐसा सृजन क्यों नहीं हो पा रहा है? इसका उत्तर है कि हम अब भी एक-दूसरे से पूरी तरह कटे हुए खाँचों में ही सोचने-विचारने की आदत के शिकार हैं। जबकि नए ज्ञान का जन्म बहुधा विषयों व अनुशासनों की सरहदों पर ही होता है।

इस दिशा में किए गए अध्ययन सोचने को विवश करते हैं कि क्यों अमेरिका के एमआईटी (मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी) में ज्ञान की विभिन्न शाखाओं से जुड़े विषय पढ़ाए जाते हैं और वहाँ से प्रौद्योगिकी के साथ-साथ भाषा विज्ञान, अर्थशास्त्र तथा अन्य विषयों के भी ऐसे-ऐसे विद्वान निकलते हैं, जिन्हें नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने लायक माना जाता है और उनमें से कई एक को वह पुरस्कार मिलता है?

क्यों हमारे आईआईटी केवल 'अंडर-ग्रेजुएट्स की फैक्टरी' बनकर रह गए हैं, उनके रिश्ते प्राकृतिक तथा समाज विज्ञान, साहित्य तथा संस्कृति से खत्म हो गए हैं और वे नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने लायक एक भी प्रतिभा को तैयार नहीं कर पाते?

आखिर क्यों देश के विज्ञान के करीब सभी उत्कृष्ट शोध संस्थान विश्वविद्यालयों के परिसरों से बाहर हैं? उत्तर यही आता है कि हमारे उच्च शिक्षा के संस्थान और वहाँ चलने वाली प्रक्रियाएँ जीवन, परिवेश और समाज की संवेदनाओं, हलचलों, आवश्यकताओं तथा आकांक्षाओं से पूरी तरह कटी हुई है।

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