निखरती है जिंदगी ठोकरें खाकर

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- शिवकुमार मिश्र 'रज्‍जन'
जीवन की राह में ठोकरें तो लगेंगी ही और इन्हीं से भविष्य के लिए कोई न कोई सीख भी मिलेगी। बदकिस्मत होते हैं वे जो बिना ठोकर खाए मंजिल तक पहुँच जाते हैं, क्योंकि उनके हाथ अनुभव से खाली ही रह जाते हैं।

विद्यार्थीकाल में हमारे अँगरेजी के शिक्षक एक न एक सूक्ति अक्सर बोर्ड पर लिख देते, उसका भावार्थ भी समझाते और उसे अपनी होम वर्क कॉपी में पहले पृष्ठ पर लिख लाने का भी आग्रह करते। हम सुंदर अक्षरों में कुछ सजावट के साथ लिख लाते, तो उसी के नीचे अपने हाथ सेवैरी गुड वे भी अक्षरों में लिखकर हस्ताक्षर कर देते।

उन्हीं ने एक प्रेरक सूक्ति दी थी- 'स्ट्रगल एंड शाइन।' जिसने निःसंदेह जीवन संघर्ष में बड़ी शक्ति दी। ठीक है कि 'शाइन' को तो हम उतना सार्थक नहीं कर सके, किंतु उसे अभी भूले तो नहीं हैं हम।

सच, जीवन में बाधाएँ, कठिनाइयों का संकट तो आते ही हैं और कभी-कभी तो इतने अप्रत्याशित कि संभलने का भी पूरा समय नहीं मिलता। यही तो जीवन पथ की ठोकरें हैं जिन्हें खाकर ही हम संभलना सीख सकते हैं। उनसे बचने की कोशिश तो करना है, पर ठोकर कहते ही उसे हैं जो सावधानी के बाद भी गलती है और आखिर एक न एक नई सीख भी दे जाती है। ठोकरें खाकर संभलती और सँवरती है जिनकी जिंदगी वे सबेरे का सूरज जरूर पा लेते हैं, जिसकी किरणें उनके कीर्ति शिखर से चमकती हैं।

कभी-कभी जीवन में कठिनाइयाँ एक के बाद एक या एक साथ भी कई आ जाती हैं और हम अपने आपको उनके जंगल में राह भटके हुए की तरह भ्रमित होते रहते हैं। लगता है जैेसे एकदम सुनसान काली अँधेरी अमावस्या का सघन घेरा हमें जकड़े जा रहा हो। ऐसी विकट स्थितिके लिए शायर ने बड़ा ही उम्दा शेर कहा है- 'इस घनघोर अँधेरे में तो ठोकर ही उजाला देगी/ रात जंगल में कोई शम ा जलाने से रही।

' सीधे-सीधे संदेश है शायर का कि ऐसे विकट संकट में कोई ठोकर की तरह दुर्घटना भी आकस्मिक रूप से हो जाए, तो निश्चित समझिए कि वही ठोकर हमारे जीवन की राह की मुश्किलों से निकलने की सही तरकीब भी सुझा देगी। जो ऐसी मुश्किल राहों से बिना ठोकर खाए, सही- सलामत अपनी मंजिल पर पहुँच जाते हैं, उन्हें बहुत भाग्यशाली मत समझिए।

वे ठोकर के कटु अनुभव के बिना पार तो हो गए परंतु मंजिल पर खाली हाथ पहुँचते हैं वे और लक्ष्य प्राप्ति का उल्लासपूर्ण आनंद भी उन्हें प्राप्त नहीं होता। ठोकरें भोगते चले आते राही, जब मार्ग मैं कहीं साथ बैठकर थोड़ी देर विश्राम करते हैं, तो उनके मार्ग के अनुभवों की चर्चा बड़ी ही मजेदार होती है।

ठोकरें खाने का भी अपना ही एक मजा है। जो अनूठा है व अविस्मरणीय भी। उनके पास खट्टे-मीठे संस्मरणों की बहुमूल्य थाती सदा साथ रहती है और बाद के आने वालों को वही जीवन का सच्चा स्वरूप दिखाती है।


ठोकर खाकर बिना उस पत्थर को राह से हटाए यदि हम आगे बढ़ जाएँ तो फिर भी कुछ नहीं सीखा हमने। याद रखिए आपके पहले के कई युगों के राहगीरों ने ढेर सारे पत्थर हटाकर ही तो वह रास्ता बनाया है जिसे बाद में मार्ग या सड़क कहा जाता है। साहसी व अन्वेषक बुद्धि के दीवाने यात्री ही नई पगडंडियाँ बनाते चलते हैं, जो रास्तों में बदल जाती हैं हमारे लिए।

हम भी क्यों न कुछ कंकर-पत्थर हटाते चलें हमसे पीछे आने वालों के लिए। यह अहसान नहीं, पर हर राहगीर की अपनी जिम्मेदारी है, कर्तव्य है और राहगीर का धर्म भी बल्कि कुछ तो अत्यंत साहसी और खोजी प्रवृत्ति के पथिक ऐसे होते ही हैं जो शायर का यह संदेश अपने कदमों को देते रहते हैं कि 'शाह राहें आम से पाबंद होता है कदम उस तरफ से चल जिधर से रास्ता जाता नहीं।' नित नए रास्ते ऐसे ही बिरले यायावर बनाते चलते हैं।

जीवन की नई राहें भी ठीक इसी तरह बनाई हैं गाँधी ने, भगतसिंह ने या सुभाषचंद्र बोस सरीखी हस्तियों ने। उन्हें किसी की प्रशंसा या पुरस्कार की जरा भी चाहत नहीं होती। उल्टे उन्हें तो चैन नहीं पड़ता, नई राहों को निर्माण के बिना। ठीक है कि उन्हें पूर्ण सफलता की मंजिलें अपने जीवन में कभी-कभी प्राप्त भी नहीं होती, पर उन्हें उसका कोई मलाल नहीं रहता। उन्हें सबसे बड़ा संतोष इसी बात का रहता है कि वे कितना भी जिए एक-एक पल चलते रहे और ठोकरें खा-खाकर संभलते रहें।

तो अथक चलते रहे हम भी। वक्त ने किसे नहीं दी है ठोकर? पर वक्त को भी ठोकर मारकर आगे निकल जाने वाले ही इतिहास रचते हैं। वे कुछ न कुछ तो ऐसा कर ही जाते हैं कि जो बाद की पीढ़ी के लिए बहुमूल्य सिद्ध होता है। राह से ठोकर लगे पत्थर हम उठाएँ जरूर, परंतु राह तो अपने तन पर नित नए पत्थर जैसे उगाती रहती है।

शायद सही राह का भी अपना धर्म है, जो बाद के राही को उनसे टकराकर संभलना सिखाती है। तो कितने सफल हुए हम जीवन में इसका लेखा-जोखा तो रहने दें, पर कितना चले हम, कितनी ठोकरें खाईं और कितने राह के पत्थर बीने, इसका महत्व जरूर है। यह शेर भी याद रखिए-

' माना चमन को न हम गुलजार कर सके
दो-चार खार कम किए गुजरे जिधर से हम।'
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