मैं तस्वीर उतारता हूँ

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वे जो तस्वीर उतारते हैं, सारी दुनिया पहचानती है। रघुराय के चित्रों को किसी परिचय की आवश्यकता भी नहीं है। भारत के इस लब्ध फोटोग्राफर ने शौक-शौक में फोटोग्राफी को अपनाया और अपनी प्रतिभा का लोहा सारी दुनिया से मनवाया। 1964 में दिल्ली स्थित अपने भाई के घर पर रघुराय ने पहली बार उत्सुकता से आग्फा का छोटा कैमरा उठाया और फिर इसी को अपना साथी बना लिया।

सिविल इंजीनियरिंग के रूप में तब रघुराय फिरोजपुर स्थित जाट रेजीमेंट में ड्रॉइंग इंस्ट्रक्टर थे और उन्हें फोटोग्राफी का कोई ज्ञान नहीं था। लेकिन अपने बड़े भाई और फोटोग्राफर मित्रों की सोहबत में रहकर उन्हें फोटोग्राफी से लगाव हो गया और वे फोटोग्राफर बन गए।

वे दोस्तों के बीच बैठकर फोटोग्राफी पर बतियाते रहते थे। उन्हें लगता था फोटोग्राफर थोड़े पागल होते हैं। मजाक ही मजाक में उन्होंने एक दिन रोहतक के नजदीक एक गाँव जाकर गधे के बच्चे का चित्र लिया और उसे लंदन टाइम्स में भेज दिया। टाइम्स ने पिक्चर एडिटर नार्मन हाल ने केवल उस चित्र की प्रशंसा की बल्कि सटरडे कॉलम में प्रकाशित करने के वायदे के साथ 30 पौंड का पारिश्रमिक भी पहुँचाया। इस तरह गायक बनने का अरमान लिए संयोग से रघुराय फोटोग्राफर बन गए।
  रघुराय के चित्रों को किसी परिचय की आवश्यकता भी नहीं है। भारत के इस लब्ध फोटोग्राफर ने शौक-शौक में फोटोग्राफी को अपनाया और अपनी प्रतिभा का लोहा सारी दुनिया से मनवाया।1964 में पहली बार आग्फा का छोटा कैमरा उठाया और फिर इसी को अपना साथी बना लिया।      


लंदन टाइम्स ने इसके बाद उनके कई चित्र प्रकाशित किए, जिसे उन्होंने इसे अपना पेशा बनाने का विचार पक्का किया और हिन्दुस्तान टाइम्स में फोटोग्राफर के रूप में अपना करियर आरंभ किया। वहाँ एक वर्ष तक काम करने के बाद अपने मित्र कार्टूनिस्ट राजेन्द्र पुरी के आफ्टरनून पेपर 'द लोक' से जुड़ गए। यह अखबार 40 दिनों में बंद हो गया और रघुराय बेरोजगार हो गए। तब वे दिल्ली से भागकर दुधवा वन्यजीव संरक्षण चले गए और तराई में जाकर प्रकृति तथा वन्य जीवों की तस्वीरें उतारीं।

1966 में 'द स्टेट्समैन' ने उन्हें चीफ फोटोग्राफर का पद दिया और वे एक दशक तक इवान कालर्टन की कंपनी से जुड़े रहे। उसी दौरान लंदन टाइम्स ने उनके पोलिटिकल पिक्चर्स को प्रकाशित करना आरंभ कर दिया था। वहाँ से ऊबकर उन्होंने एमजे अकबर का प्रस्ताव मानकर संडे मैगजीन से नाता जोड़ लिया।

दो साल तक वहाँ काम करने के बाद 1980 में वे इंडिया टुडे से जुड़े। उनकी जिंदगी का अविस्मरणीय पल तब आया, जब दुनियाभर में इंसानों पर वृत्तचित्र बनाने वाले हेनरी कार्टियर ब्रेसन ने 1970 में पेरिस में रघुराय की प्रदर्शनी देखी। 1990 से वे अपनी पिक्चर बुक के प्रति समर्पित हो गए।

40 वर्षों में फोटोग्राफी में नाम और दाम कमा चुके रघुराय का मानना है कि हमारे यहाँ शायद ही ऐसा कोई संस्थान है जो स्थिर चित्र के लिए बेहतर प्रशिक्षण देता हो। इसके लिए उनकी राय में या तो विदेश जाकर प्रशिक्षण लिया जाना चाहिए या विश्वविख्यात फोटोग्राफरों की पुस्तकों का अध्ययन करना चाहिए। फोटोग्राफी में शार्टकट की तरह कोई रास्ता नहीं है। अनुभव ही आपके चित्रों को पैनापन देता है।

नए फोटोग्राफरों को प्रशिक्षित करने का उनके पास समय नहीं है। फिर भी वे कहते हैं कि यदि वास्तव में कोई गंभीर तथा इस कला के प्रति समर्पित है तो वे किसी भी हद तक जाकर मदद करने को तैयार हैं। यदि कोई आकर छोटी-मोटी बातें सीखे और कहे कि मैंने रघुराय के साथ काम किया है तो यह उन्हें गँवारा नहीं है।

उनका मानना है कि नौसिखियों के लिए इसमें ज्यादा पैसा नहीं है और सुस्त लोगों के लिए यह ऊबाऊ पेशा है। जब तक आप खुद जमकर मेहनत न करें तो सफलता मुश्किल है क्योंकि फोटोग्राफी सृजनशीलता है, न कि कोई जादू। उनका मानना है कि फास्टफूड खाने वाली आज की पीढ़ी हर बात की तरह फोटोग्राफी में भी शार्टकट ढूँढती है, लेकिन यहाँ न तो कोई शार्टकट है और ही घर बैठे पैसा मिलता है।

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