नामी-गिरामी कंपनियाँ, आकर्षक 'पैकेज', पंच सितारा होटलों से टक्कर लेते ऑफिस... आज के युवाओं के ठाठ निराले हैं...मगर क्या इस चकाचौंध के पीछे कोई स्याह सचाई भी छिपी है? क्या आज के अनेक कॉर्पोरेट दफ्तर सोने के पिंजरे नहीं बन गए हैं, जहाँ 'पैकेजधारी' बँधुआ मजदूर कैद हैं?
बँधुआ मजदूरी प्रथा एक सामाजिक, आर्थिक अभिशाप है। सामाजिक एवं आर्थिक परतंत्रता को जन्म देने वाली इस प्रथा का उन्मूलन करने के लिए हमारी सरकार तथा सामाजिक संगठनों को सतत कठोर प्रयास करना पड़े; तब भी इस पाशविक प्रथा का पूर्णतः अंत नहीं हो सका है। खेतिहर मजदूरों के बँधुआ होने की घटनाएँ अब भी यदा-कदा दृष्टिगोचर होती रहती हैं। जमींदारों-जागीरदारों ने स्वहित साधन के लिए बँधुआ मजदूरी को भरपूर पोषित किया। जमींदारी, जागीरदारी का अंत होने पर इस शोषणकारी प्रथा को समाप्त करने में आंशिक कामयाबी हासिल हुई। शारीरिक श्रम का यह शोषण खेतों से होता हुआ औद्योगिक क्रांति से उपजे कल-कारखानों में भी प्रविष्ट हो गया। यह उस दौर की बात है, जब न तो देश आजाद हुआ था और न ही श्रम कानूनों में कारगरता आई थी। अशिक्षा के कारण जनजागृति का भी पूर्णतः अभाव था, लेकिन शनैः-शनैः श्रम कानून बनते गए और उनमें कारगरता भी आती गई। श्रम कानूनों के जरिए श्रमिक संगठन भी मजबूत तथा अधिकारसंपन्ना बने। इसके परिणामस्वरूप शोषण एवं स्वेच्छाचारिता के एक युग का अंत हुआ।
आज कॉर्पोरेट कल्चर द्वारा प्रवर्तित ग्लोबलाइजेशन के युग में बंधुआ कामगारों का नया स्वरूप उभरकर सामने आ रहा है। बहुराष्ट्रीय तथा निजी कंपनियों के कदम भी शोषण की राह पर आगे बढ़ रहे हैं। अच्छे वेतन पैकेज के नाम पर कुशल कामगारों (इंजीनियरों, तकनीकी विशेषज्ञों आदि) को भी इस शोषण का शिकार होना पड़ रहा है। कॉर्पोरेट जगत की ओर से इस प्रकार का परिवेश निर्मित किया जा रहा है कि इसके आकर्षण में ही युवा फौज अपना उज्ज्वल भविष्य देख रही है। ब्राण्डेड कंपनियों से जुड़ने की चाह इन युवाओं को कम वेतनपर भी काम करने को मजबूर कर रही है। अभी कुछ दिन पहले अखबारों में एक खबर प्रकाशित हुई थी : 'थकान मिटाने के ठिकाने बने ऑफिस : गोल्फ, स्वीमिंग, योगा सब कुछ ऑफिस में ही।' इन कंपनियों में काम करने वाले एक्जीक्यूटिव्स बड़ी शान से कहते हैं कि हमने साप्ताहिक अवकाश का ध्यान न रखते हुए वर्ष के 365 दिन पूर्ण ताजगी से काम किया है। यहाँ प्रतिदिन 10-12 घंटे काम कराना सामान्य बात है। कॉर्पोरेट जगत अपने सभी प्रोफेशनल्स से यह उम्मीद करता है कि वे 14-16 घंटे काम करें।
ऐसी कंपनियाँ समर्पित युवाओं को रोजगार देती हैं, जो घर-परिवार, नाते-रिश्तेदारों का मोह तथा संपूर्ण सामाजिकता को त्यागकर कंपनी के बँधुआ बनकर रहें। अनुबंध के बंधन के कारण कोई भी युवा कार्मिक अपनी मनमर्जी से नौकरी नहीं छोड़ सकता है। बढ़ती प्रतियोगिता तथा बदलती हुई प्रौद्योगिकी के कारण इन कंपनियों के दीर्घजीवी भविष्य पर भी प्रश्नचिह्न लगा है। कार्मिकों को मिलने वाला रोजगार कितने वर्षों का है, इसकी कोई गारंटी नहीं है। प्रत्येक कार्मिक व एक्जीक्यूटिव्स के पीछे पारिवारिक और सामाजिक दायित्व भीजुड़े हैं। ऐसे दायित्वों का निर्वहन भी कार्मिकों के लिए वैयक्तिक जवाबदेही होती है, इनसे कोई भी कामगार अपना मुख नहीं मोड़ सकता।
आर्थिक लाभ के आधार पर कामगार की उपयोगिता का मूल्यांकन कर अधिक काम के लिए मजबूर करना नए तरह की बँधुआ प्रथा है। अधिक कार्य करने से कार्मिकों के स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पड़ता है।
नए संस्करण तथा रूप में मानवश्रम का शोषणकारी चेहरा पूँजीवाद के नए बँधुआपन में प्रकट हो रहा है, जिसे हमारी युवा पीढ़ी मृग मरीचिका की तरह भ्रम के कारण पहचान नहीं पा रही है। सामाजिकता की बलिवेदी पर किया गया विकास विकास नहीं, विनाश सिद्ध होगा। इस बात को सदा याद रखते हुए युवा पीढ़ी को चाहिए कि वह काम के साथ सामाजिकता को भी जीवित रखे।
घर मत जाओ, दफ्तर में 'फैमिली आवर' मनाओ!
बं गलौ र की एक कंपनी अपने कर्मचारियों के लिए 'परिवार का घंटा' योजना बना रही है। इसके तहत कर्मचारी के बीवी-बच्चों को घंटे-दो घंटे के
आर्थिक लाभ के आधार पर कामगार की उपयोगिता का मूल्यांकन कर अधिक काम के लिए मजबूर करना नए तरह की बँधुआ प्रथा है। अधिक कार्य करने से कार्मिकों के स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पड़ता है
लिए ऑफिस परिसर में बुला लिया जाएगा। यहाँ वह अपने परिवार के साथ कंपनी के जिम, रेस्तराँ, स्वीमिंग पूल, स्टोर आदिमें समय बिताएगा। 'परिवार घंटा' खत्म होने पर बीवी-बच्चे घर चले जाएँगे और कर्मचारी वापस अपनी सीट पर आकर काम में जुट जाएगा। यानी परिवार के पास घर जाने की क्या जरूरत है? कंपनी आपके परिवार को ही दफ्तर में बुला लेगी। एक-दो घंटे वहीं पारिवारिक जीवन का 'आनंद' ले लो और फिर काम पर लग जाओ। बताइए, हुई न सोने के पिंजरे वाली बँधुआ मजदूरी!