पं. जवाहरलाल नेहरू

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इस प्रश्न का उत्तर देना कठिन है कि भारत जैसे विशाल देश के प्रधानमंत्री होने से जवाहरलाल की शोभा बढ़ी या जवाहरलाल जैसे ऊँचे व्यक्ति का प्रधानमन्त्रित पाकर भारत की शोभा-वृद्धि हुई। कुछ भी ह ो, यह सच है कि विश्व के भूगोल में जितना महत्व भारत का है भारत को उसके अनुकूल ही पथप्रदर्शक मिला था ।

नेहरूजी का व्यक्तित्व देश की सीमाओं से ऊँचा उठ गया था। वे राष्ट्रीय ही नही ं, अन्तरराष्ट्रीय नेता बन गए थे। उनका स्थान विश्व के इने-गिने शक्तिशाली राजनीतिज्ञों में बन चुका था। उनके हाथ में भारत की सुरक्षा निश्चित ही नही ं, बल्कि सुरक्षित भी थी। विश्व में शान्ति की रक्षा के लिए जो शक्तियाँ काम कर रही है ं, उनमें जवाहरलालजी का नाम सबसे प्रथम आता था ।

जवाहरलाल उन व्यक्तियों में से थ े, जिनका जन्म ही महान बनने के लिए होता है। जवाहरलाल के पिता पं. मोतीलाल नेहरू अपने समय के नामी और धनी वकीलों में थे। जवाहरलाल का लालन-पालन राजपुत्रों के समान हुआ। उनको शिक्षा के लिए उस समय के अच्छे यूरोपियन शिक्षक रखे गए थे। प्राथमिक शिक्षा समाप्त करके जवाहरलालजी उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए इंग्लैंड चले गए ।

इंग्लैंड से लौटने के बाद वे तय नहीं कर पा रहे थे कि क्या करें। तभी उनकी मुलाकात गाँधीजी से हुई। गाँधीजी से मिलने के बाद जवाहरलाल की दिशा बदल गई। उनका समय देश-सेवा के कामों में बीतने लगा। धन कमाकर आनन्द से जीवन व्यतीत करने के स्वप्न भंग हो गए। मोतीलालजी को इस दिशा-परिवर्तन से पहले तो दुःख हु आ, किन्तु कुछ वर्ष बाद वे भी अपना विलासी जीवन त्यागकर यशस्वी पुत्र के अनुयायी बन गए ।

जवाहर ने ज्यादातर आंदोलन कार्यों में ही भाग लिया था। उनका संगठनात्मक और रचनात्मक शक्तियों को प्रदर्शन सबसे पहले 1922 में तब हु आ, जब उन्होंने गाँधीजी की सलाह से इलाहाबाद की म्युनिसिपैलिटी का अध्यक्ष-पद ग्रहण किया। अध्यक्ष-पद पर रहते हुए उन्होंने जो सुधार किए वे विशुद्ध राष्ट्रीय थे।

उनके कार्य ने नगर-निवासियों को यह भली भाँति दिखा दिया कि स्वाधीनता मिलने पर उसका उपयोग किस तरह किया जा सकता है। उनके सुप्रबंध और उनकी योजनाओं की प्रशंसा तत्कालीन कमिश्नर ने भी मुक्तकंठ से की थी। जवाहरलाल के विचारों में क्रांति थी किन्तु कार्यों में उतना ही अनुशासन भी था ।

गाँधीजी को अपना पथप्रदर्शक मानने के बाद जवाहरलाल ने उनकी आज्ञाओं का अक्षरशः पालन किया। सन 1919 से सन 1927 तक उन्हें कई बार जेलयात्रा करनी पड़ी। जवाहरलालजी की सेवाओं के पुरस्कार में राष्ट्र ने उन्हें सन 1930 में कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशन का अध्यक्ष निर्वाचित किया। यह पहला अवसर था कि देश ने राष्ट्र का सर्वोच्च आसन इतनी छोटी अवस्था के युवक को प्रदान किया था ।

यह अधिवेशन बहुत महत्वपूर्ण था। इस अधिवेशन ने पहली बार कांग्रेस के ध्येय में परिवर्तन किया था। अभी तक कांग्रेस केवल औपनिवेशिक स्वराज की माँग कर रही थ ी, लेकिन इस प्रस्ताव द्वारा कांग्रेस ने घोषित कर दिया कि उसे पूर्ण स्वतंत्रता ही चाहिए। जवाहरलालजी के अध्यक्ष बनने के बाद कांग्रेस के शरीर में नए रक्त का संचार शुरू हो गया।

देश के नवयुवकों ने कांग्रेस को अपना लिया। इन्हीं गुणों ने उन्हें भारत का ही नही ं, एशिया का प्रमुख राजनीतिज्ञ बना दिया था। उनकी गणना विश्व के इने-गिने जीवित महापुरुषों में होने लगी थी। भारत का सौभाग्य है कि उसे ऐसे विश्ववंद्य व्यक्ति का नेतृत्व मिला ।

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