बच्चे एडवर्ल्ड के 'सुपरमैन'

बाल दिवस विशेष

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उनको देखकर पूरा परिवार आकर्षित हो जाता है। भाई-बहन से लेकर आसपास के रहने वाले भी इस पर मुग्ध रहते हैं। बच्चों में वो खासियत है कि वे सबको आकर्षित कर जाते हैं। ब़ड़ी से ब़ड़ी बात आसानी से कहने की ताकत उनके निर्मल मन के पास ही रहती है। चूँकि तन-मन की निर्मलता रहती है, शायद यह ताकत उसी के दम पर बनी रहती है।

चाचा नेहरू का दौर हो या 'मिसाइलमैन' के बाद की कहानी, बच्चे हर क्षेत्र में पहली वरीयता माने जाते रहे हैं। आजादी के बाद के दौर के बच्चों में और आज के बच्चों में जबर्दस्त परिवर्तन आया है। उस दौर के बच्चे गाते थे- नन्हा-मुन्ना राही हूँ और आज के बच्चों को क्रिश के मास्क चाहिए। इसको दुनिया भाँप चुकी है और कार्पोरेट बच्चों पर फिदा हैं।

आज के डिजिटल दौर में भी वे बाजार के गुरु बने हुए हैं। विज्ञापन कंपनियाँ उन्हें लेने के लिए लालायित रहती हैं। अधिकांश विज्ञापन उन्हीं पर केंद्रित रहते हैं। भले ही वह मोबाइल की बात हो या इलेक्ट्रॉनिक्स की या फिर कप़ड़ों की, सभी को बच्चों का आकर्षण रहता है। कार्पोरेट वर्ल्ड ये मान चुका है कि विज्ञापन में बच्चों को शामिल करने का अर्थ है, जोरदार कारोबार।
चाचा नेहरू का दौर हो या 'मिसाइलमैन' के बाद की कहानी, बच्चे हर क्षेत्र में पहली वरीयता माने जाते रहे हैं। आजादी के बाद के दौर के बच्चों में और आज के बच्चों में जबर्दस्त परिवर्तन आया है। उस दौर के बच्चे गाते थे- नन्हा-मुन्ना राही हूँ


स़ड़कों पर लगने वाले टीवी सीरियल के विज्ञापन हो या टीवी कंपनियों के। मोबाइल कंपनियाँ एयरटेल, सेमसंग हो या दूध, मक्खन बेचने वाली अमूल सभी की पहली पसंद है बच्चे। यदि देखा जाए तो विज्ञापन की दुनिया पर बच्चों का कब्जा है।

विशेषज्ञों का कहना है कि किसी विज्ञापन में जान डालने का काम बच्चों का ही रहा है। यहाँ तक कि फिल्मों में जो लोग बच्चे बनकर पहले आते थे और काफी पसंद किए जाते थे, लेकिन वे ही ब़ड़े होने पर चल नहीं सके। इनमें सचिन, हनी ईरानी, जूनियर मेहमूद, डेजी ईरानी जैसे कई उदाहरण हैं। इसलिए विज्ञापन कंपनियाँ मानती हैं कि मैगी नूडल्स हो या 'मुनिया को मेनिया हुई गवाँ रे...' वाला जिंगल हो बात तो बच्चे ही मनवाते हैं। इलेक्ट्रॉनिक गेजेट्स, वॉशिंग पावडर, घरों को रंगने की बात हो या अन्य उत्पाद, जो वयस्क प्रयोग में लेते हो, सभी पर बच्चे हावी हैं।

रेडिफफ्यूजन एडवर्टाइजिंग एजेंसी के कार्यकारी उपाध्यक्ष श्री रमेश श्री वत्स का कहना है कि परिवारों में आजकल जिनकी चल रही है, वे बच्चे ही हैं। बच्चों की बातें परिवारों में मानी जाती रही हैं और इसी का उपयोग कंपनियाँ कर रही हैं। वे चाहती हैं कि अपने प्रॉडक्ट कोपरिवारों के बीच लोकप्रिय बनाया जाए और ये काम केवल बच्चे ही कर सकते हैं।

हाल ही में एक टीवी कंपनी के विज्ञापन में बच्चों के एक झुंड का नेतृत्व एक छोटी-सी ल़ड़की करती है। वह कहती है कि प्रिटी जिंटा से मिलने का सही समय यही है। एक कंपनी में क्रिएटिव कंसलटेंट श्री सुमत सेठी कहते हैं कि बच्चे जो विज्ञापन करते हैं, वे सबसे पहले टीवी देख रहे बच्चों को अपने पक्ष में कर लेते हैं और उनके आते ही पूरा परिवार उस प्रॉडक्ट के गुणगान करने लगता है। किसी साबुन या टूथपेस्ट किसी का भी उदाहरण ले लीजिए। जब से कंपनियाँ प्रॉडक्ट के विज्ञापन कर रही है, तब से बच्चों के दम पर है। बिनाका के टूथपेस्ट में किसी समय में प्लास्टिक के खिलौने आते थे तो किसी प्रॉडक्ट में क्रिकेट खिला़िड़यों के चित्र और बच्चों की जिद रहती थी कि अमुक टूथपेस्ट ही खरीदा जाए।

देश में तेजी से ब़ढ़ती आय ने बच्चों की माँग को पूरा करना आसान बना दिया है। महानगरों में तो स्थिति और भी जोरदार है। 13 साल की ल़ड़कियाँ टीवी देखकर मेकअप का सामान खरीदती है। इनमें फेसमास्क, लिपस्टिक आदि उसे पंसद आते हैं। आयुष्मान को गिज्मो की दीवानगी है और अत्याधुनिक तकनीकी उसे आकर्षित करती है। वह अपने पिता से जब कहता है कि अमुक मोबाइल ही लेना तो पिता उस पर भरोसा करते हैं।

ये है इसके पीछे
दरअसल कंपनियाँ परिवारों के मनोविज्ञान को समझ चुकी हैं। उनका मानना है कि यदि कोई उत्पाद बच्चों से जो़ड़ा जाए और किसी उत्पाद पर उनको कुछ फ्री दिया जाता है तो बच्चे परिवारों को वह वस्तु खरीदने पर मजबूर कर देते हैं।

बच्चों की खुशी के लिए माता-पिता कुछ भी देने को तैयार हो जाते हैं और वह प्रॉडक्ट घर में जगह बना चुका होता है। भले ही बोर्नविटा हो या कॉम्प्लान या फिर टीवी-डीवीडी।
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