एक क्षण के लिए पंडितजी सोच में पड़ गए और फिर मानो एक ऋषि की वाणी में उन्होंने कहा, 'तीन बातें हैं। पहली तो यह है कि मैं बच्चों में हिलमिल जाता हूं। उनसे प्यार करता हूं और उनकी मासूमियत में जिंदगी पाता हूं।
दूसरी यह कि हिमालय में मेरा मन सबता है। उन बफीर्ली चोटियों में, उन घने जंगलों में उस निर्मल हवा में मुझे नए प्राण मिलते हैं।
तीसरी वजह यह है कि मैं छोटी-छोटी और औछी किस्म की बातों से ऊपर उठ सकता हूं। मेरी जहनियत पर उनका असर नहीं पड़ सकता। मैं तो जिंदगी, दुनिया और मसलों को ऊंची नजर से देखने की कोशिश करता हूं और इस लिए मेरी सेहत और मेरे विचार ढीले-ढाले नहीं हो पाते।'
हम तो कहेंगे कि इन पिछली दो बातों का आधार भी पहली ही बात है। वस्तुतः उनकी प्रकृति बालक जैसी थी। जैसा उन्होंने कहा, उनकी मासूमियत में वे जिंदगी पाते थे। वही मासूयिमत उनकी महानता का कारण थी। सभी जानते हैहं कि वे जरा में गर्म, जरा में ठंडे, यानी वे अधिक समय तक नाराज नहीं रह सकते थे। उनमें कटुता थी ही नहीं। संसार की राजनीति में उनका क्या स्थान था यह सभी जानते हैं।
मानव समाज के भभविष्य के प्रति उनका मन सदा चिंता से भरा रहता था। लेकिन फिर भी बच्चों के प्रति उनकी ममता कम नहीं हुई, बढ़ी ही है। इस समय की बात है कि वह चुपचाप त्रिमूर्ति भवन से निकल पड़े। बहुत देर हो गई तो चारों ओर उनकी खोज मची। ढूंढते-ढूंढते उनके रक्षकों ने उन्हें एक स्थान पर बच्चों के बीच बैठे पाया था। उन रक्षकों को देखकर बच्चे ताली बजा-बजा कर नाचने लगे-'चाचा जी पकड़े गए, चाचाजी पकड़े गए। बुरी बात। बिना बताए नहीं जाना चाहिए था।
ऐसे उदाहरणों का कोई अंत नहीं है। और ऐसे उदाहरण भी असंख्य है कि जब उन्हें बच्चों की तरह बर्ताव करते देखा गया। एक बार सेंट्रल-हॉल में एक सभा का आयोजन था। सब स्थान भर चुके थे। पंडितजी लोगों से मिलते-जुलते रहे कि मीटिंग शुरू हो गई। चारों ओर निगाह दौड़ाई। कोई स्थान नहीं था। उनके पास की सीट पर तीन व्यक्ति बैठे हुए थे। तीन ही बैठ सकते थे, लेकिन पंडितजी सहसा उछले और सामने की डेस्क पर से कूद कर उनमें से एक व्यक्ति की गोद में जा गिरे। तपाक से बोले-'वाह। मेरे लिए कहीं जगह ही नहीं है।' और वे वही बैठ गए। लोगों को हंसी रोकना मुश्किल हो गया।