ईश्वर की आठवीं आज्ञा

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' यदि तुम मुझसे प्यार करते हो, तो मेरी आज्ञाओं का पालन करोगे।' (योहन 14:15)

आठवीं आज्ञा कहती है- 'अपने पड़ोसी के प्रति झूठी गवाही मत दो।' (निर्गमन 20:16)

यह आज्ञा हमेशा सत्य बने रहने के लिए हमसे कहती है और यथासंभव दूसरों के वचनों एवं कार्यों की उचित व्याख्या करने के लिए कहती है।

यह आज्ञा हमसे कहती है कि हम झूठ बोलने, शंकालू बनने, अविवेकी निर्णय करने, निंदा करने, चुगलखोरी और गुप्त रहस्यों को उजागर करने आदि से बचे रहें।

ईश्वर ने अपनी दयालुता से हमें बहुत से दान दिए हैं, उनमें से मुख्य हैं-

हमारी बुद्धि : जिसके द्वारा हम सोचते और निर्णय लेते हैं।
हमारी स्वतंत्र इच्छा : जिसके द्वारा हम चुनाव करते या इनकार करते हैं।
हमारे बोलने का वरदान : जो हमें पूरी तरह जानवर के स्तर से ऊँचा ले जाता है।

ईश्वर का उद्देश्य यही था कि हम अपने विचारों का सत्यतापूर्वक आदान-प्रदान कर सकें। जैसे हम जानते हैं कि ईश्वर सत्य है। वह झूठ नहीं बोल सकता, क्योंकि दूसरी बुरी चीजों के समान झूठ बोलान भी दोषपूर्ण है और ईश्वर पूर्णतया सिद्ध है वह नहीं चाहता कि हम झूठे बनें।

ख्रीस्त ने कहा, 'सिद्ध बनो, जैसा मेरा स्वर्गीय पिता सिद्ध है।' अर्थात्‌ हमें, हमेशा ईमानदार एवं सत्यवान बनने का प्रयास करना चाहिए।

क्या कभी तुमने इस विषय में सोचा है? यदि हम सब झूठे होते और कभी भी सत्य बोलने का प्रयत्न नहीं करते, तब बोलने का वही वरदान व्यर्थ हो जाता और तब कोई किसी पर विश्वास और भरोसा नहीं करता।

केवल कहे गए वचन ही नहीं, अपितु लिखे गए शब्द भी सत्य होने चाहिए। समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, रेडियो, दूरदर्शन पर झूठा या गुमराह प्रचार, साथ ही साथ गलत तरीकों का विज्ञापन, सब आठवें नियम के विरुद्ध पाप है।

संत याकूब के तीसरे पाठ को पढ़ने से, जुबान के विषय में बहुत से विचार पाते हैं। वह लिखता है, 'हम सबों से बार-बार भूल-चूक होती है, जो मनुष्य वचन से नहीं चूकता, वह सिद्ध पुरुष है, वह अपना अंग-अंग वश में रख सकता है। यदि हम घोड़े को अपने संकेत पर चलाने के लिए उनके मुँह में लगाम लगा देते हैं, तो उनके सारे शरीर को घूमा-फिरा सकते हैं।

जहाजों पर भी दृष्टि डालिए। यद्यपि वे इतने विशाल हैं और प्रचंड वायु उन्हें उड़ाए चलती है, फिर भी छोटी सी पतवार के सहारे माँझी उनको मनमाने ढंग से घूमता रहता है। इसी प्रकार जिह्वा भी एक छोटा सा अंग है, पर बातें करती है बड़ी-बड़ी।

आग की छोटी चिंगारी कितने बड़े जंगल को भस्म कर देती है। जिह्वा भी एक ज्वाला है, जिससे अमिट बुराई हो सकती है। हमारे अंगों में स्थित यह जिह्वा सारे शरीर को कलुषित करती है। यह नरकाग्नि से प्रज्ज्वलित होकर हमारे जीवन चक्र में ही आग लगा देती है।

प्रत्येक जाति के पशु-पक्षी, रेंगने वाले जन्तु तथा जलचर घरेलू बन सकते और मनुष्य जाति के अधीन हो सकते हैं, परन्तु कोई भी मनुष्य, बुराई के लिए विकल तथा प्राणघातक विष से भरे इस अंग जिह्वा को वश में नहीं कर सकता। हम इससे प्रभु तथा परम पिता की प्रशंसा गाते हैं और इसी से मनुष्य को शाप देते हैं, जो ईश्वर की समानता पर बने हैं। एक ही मुँह से प्रशंसा और अभिशाप की धारा निकलती है। मेरे भाइयों, ऐसा होना उचित नहीं।'

जिस तरह हम चुराई हुई वस्तु उसके मालिक को लौटाने के लिए बाध्य हैं, उसी प्रकार हमें हमारी निंदा, मिथ्यावाद और झूठ के पापों से जो नुकसान हुआ है, उसकी क्षतिपूर्ति करने की कोशिश करनी चाहिए।

इस समय मन में संत फिलिप नेरी द्वारा कहीं गई कहानी याद आती है। एक बहुत ही विख्यात बड़वादी स्त्री ने फादर फिलिप से पूछा कि वह किस तरह दूसरों की कहानियाँ फैलाने से चंगी या अच्छी हो सकती है। यद्यपि वह इस बात का पूरा-पूरा आनन्द लेती थी, फिर भी, वह जानती थी कि ऐसा करना उचित नहीं है और इस तरह वह इस बुरी आदत को छोड़ना चाहती थी।

तब फादर फिलिप ने उससे कहा, 'लूसी, बाजार जाओ और वहाँ से बिना पंख (पर) निकाली मुर्गी खरीद कर लाओ। रास्ते में लौटते वक्त पंखों को एक के बाद एक खींच निकालो और फेंक दो, तब मेरे पास आओ और मैं तुम्हें बताऊँगा कि आगे क्या करना है।

ऐसा करना उसे बेहूदा लगा, परन्तु वह बाजार गई और जैसा उससे कहा गया था उसने वैसा ही किया... इसमें कोई शक नहीं कि ऐसा करते समय उसे मूर्खता का अनुभव हुआ। उसके लौटने पर, फादर फिलिप ने उसकी आज्ञाकारिता की प्रशंसा की और तब कहा 'अब लूसी, वापस जाओ और सब पंखों को एकत्र कर मेरे पास लाओ।'

' परन्तु फादर', लूसी ने कहा, 'आप जानते हैं कि यह बिल्कुल ही असंभव है। हवा ने उन्हें बहुत दूर इधर-उधर बिखेर दिया होगा।'

' बिल्कुल सच है', संत ने कहा, 'इसी तरह तुम अपने अपने पड़ोसियों के प्रति कहे गए हानिकार शब्दों को वापस बुला नहीं सकती हो, जो इस समय तक एक मुँह, से दूसरे मुँह, तुम्हारी पहुँच के बाहर चले गए होंगे।'

' लूसी सावधान रहो और अपनी जबान संभालो।'

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