ईश्वर की छठवीं आज्ञा

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' यदि तुम मुझसे प्यार करते हो, तो मेरी आज्ञाओं का पालन करोगे'। (मत्ती 14:15)

छठवीं आज्ञा कहती है- 'व्याभिचार मत कर' (निर्गमन 20:14)

जो कुछ ईश्वर ने बनाया, वह अच्छा है और उसके विषय में ज्ञान रखना उसी तरह अच्छा है।

छठवीं आज्ञा मनुष्य जाति को बनाए रखने के लिए मनुष्य की मूल प्रवृत्ति की ओर संकेत करती है।

( संत मत्ती के सुसमाचार में हम पढ़ते हैं- (19:5-7) 'सृष्टिकर्ता ने आरंभ से ही उनको नर-नारी बनाया और कहा, 'इस कारण पुरुष माता-पिता को छोड़ देगा और अपनी पत्नी से संयुक्त रहेगा और दोनों एक ही तन होंगे। इस तरह से अब दो नहीं, एक ही तन हैं, इसलिए जिनको ईश्वर ने जोड़ दिया है, उनको मनुष्य अलग न करे।')

इसलिए, यौन और यौन ज्ञान, अपने आप में अच्छा और उत्तम है। हम धर्मग्रंथ से जानते हैं कि ईश्वर ने मनुष्य को अपने ही प्रतिरूप और अपनी ही समानता में बनाया। अर्थात्‌ आदमी में भी ज्ञान, स्वतंत्र इच्छा और प्यार करने की शक्ति है। ईश्वर का प्रेम अनन्त और असीमित है, जबकि मनुष्य का प्रेम सीमित है।

मनुष्य को यौन शक्ति से सम्पन्न कर ईश्वर ने मनुष्य जाति को बनाए रखने में उसके सहयोग को मनुष्य के लिए संभव बनाया है, जो स्वर्ग के भावी नागरिक हैं। ईश्वर की इच्छा है कि वे पति-पत्नी के प्यार के प्रतिफल हो।

अतः विवाह ईश्वर की योजना है। विवाह में यौन संबंध ईश्वरीय योजना है। इसके द्वारा, माता-पिता उस योजना में भागीदार होने के विशेष अधिकारी हैं।

स्पष्टतः दोनों माता और पिता के लिए त्याग बँटा हुआ है। माँ के लिए बच्चे को जन्म देना बड़ा पीड़ामय है और बाद में बच्चों का पालन-पोषण और उन्हें शिक्षित करना ऐसा कार्य है, जो निरंतर प्रयत्न और त्याग चाहता है। पिता, पत्नी और बच्चों के लिए समस्त चीजें जुटाने में कड़ी मेहनत करता है और अकसर बहुत अधिक मानसिक चिन्ताओं से घिरा रहता है।

इन सभी और अन्य सब कड़ी मेहनतों की क्षतिपूर्ति के लिए ईश्वर ने यौन संबंध (सहवास) के साथ उत्तेजनात्मक आनंद को संयुक्त किया है।

आत्मरक्षा की दूसरी महत्वपूर्ण मूल प्रवृत्ति के साथ अच्छा समानान्तरण है।

अपना स्वास्थ्य और जीवन की रक्षा के लिए मनुष्य को भोजन चाहिए, इसलिए ईश्वर ने भोजन के साथ यथेष्ट आनंद जोड़ रखा है, अन्यथा एक स्त्री क्यों खाना पकाने और उसे स्वादिष्ट बनाने में इतना समय लगाए? वह भोजन बनाने में क्यों इतना समय बर्बाद करेगी? अब यदि यह कार्य दुःखदायी हो तो कोई भी स्त्री और पुरुष स्वेच्छा से नहीं खाँएगे। इसी तरह यदि यौन सुख का प्रलोभन न हो तो सहवास भी नहीं करेंगे।

इससे हम स्पष्टतया यह देखते हैं कि यौन सुख किसी व्यक्ति विशेष के हित के लिए नहीं है, परन्तु मानव जाति को बनाए रखने के लिए है।

इस तरह इसका प्रयोग मात्र आत्मतुष्टि और आत्मभोग के उद्देश्य से हो तो यह ईश्वर की इच्छा के विरुद्ध है।

विवाह के बाहर किसी भी तरह का यौन संबंध (सहवास) आत्मामारू पाप है।

एक विवाहित व्यक्ति और उसकी कानूनन विवाहित स्त्री ही केवल ऐसे हैं, जिन्हें सहवास का पूरा अधिकार है।

पवित्र जीवन के लिए कुछ सहायक बाते ं
- ख्रीस्त और उसकी धन्य माता महान प्रेम और भक्ति भावना रखो।
- पाप स्वीकार और परमप्रसाद संस्कार बारम्बार लो।
- पहरावे में सादगी रखो।
- अच्छी पत्रिकाएँ, पुस्तकें एवं अखबार पढ़ो।
- अच्छे चलचित्र, नाटक, टी.वी. कार्यक्रम और नृत्य देखो।
- अकसर माला विनती बोलने की आदत डालो... हो सके तो प्रतिदिन की आदत डालो।
छठवीं आज्ञा सुस्पष्ट रूप से मना करती है- परगमन, व्यभिचार, हस्तमैथुन और दूसरे अनैतिक अभ्यास।

धोखा न खाइए। न तो अनूढ़ागामी, न मूर्तिपूजक, न परस्त्रीगामी, न स्त्रैण, न पुरुषगामी न चोर, न लालची, न पियक्कड़, न गाली-गलौच करने वाले, न लुटेरे ईश्वर के राज्य के उत्तराधिकारी होंगे। (1 कुरिंथ 6:9-10)

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