ईश्वर की 7वीं आज्ञा- चोरी नहीं करना

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'यदि तुम मुझसे प्यार करते हो, तो मेरी आज्ञाओं का पालन करोगे।' (योहन 14:15)
 

सातवीं आज्ञा कहती है, 'तू चोरी नहीं करना।' (निर्गमन ग्रंथ 20:15)
 
व्यक्तिगत संपत्ति का अधिकार प्राकृतिक अधिकार है, यह आज्ञा ईश्वर द्वारा अनुमोदित है। प्रकृति मनुष्य पर दबाव डालती है कि वह अपने जीवन को बनाए रखे। उसे अपने भविष्य की जरूरतों को देखना है और उन्हें अर्जित करने के लिए उचित कदम उठाने हैं। ऐसा करने के लिए मनुष्य को भौतिक पदार्थों की आवश्यकता है, जिनका बार-बार आवश्यकता के अनुसार उपयोग किया जा सके। उसे, उन्हें खोने के भय और नुकसान से रक्षा करना चाहिए। इसके अतिरिक्त व्यक्ति का यह अधिकार है कि वह विवाह करे एवं उसका परिवार हो। उस परिवार का भरण-पोषण करना उसका कर्त्तव्य है। इसके लिए निजी संपत्ति का होना जरूरी है।
 
निःसंदेह, निजी संपत्ति का होना प्रकृति से सीमित है, जो उपार्जित वस्तुओं एवं इस वास्तविकता द्वारा कि एक सामाजिक प्राणी होने के नाते उसे अपने पड़ोसियों के प्रति भी कर्त्तव्य है। जब सार्वजनिक भलाई की जरूरत होती है, राज्य निजी स्वामित्व को सीमित कर देता है और उस पर बंदिश लगा दी जाती है या सार्वजनिक रूप से स्वामित्व लिया जा सकता है। यदि सर्वसाधारण की अभिरुचि दावा करती है। फिर भी, किसी भी राष्ट्र को पूरे स्वामित्व को खत्म करने का अधिकार नहीं है, क्योंकि यह उसे ही खत्म करना है, जो मनुष्य के लिए स्वाभाविक है।
 
वास्तविक समाजवादी और साम्यवादी उन वस्तुओं के निजी स्वामित्व को समाप्त करना चाहते हैं, जो उत्पादकीय है। यह गलत है।
 
धर्म मंडली कहती है कि व्यक्तिगत स्वामित्व की प्रणाली में परिवर्तन लाना चाहिए, परन्तु इसे समाप्त करना विधि सम्मत जरूरी नहीं है। यदि मनुष्य को स्वामित्व का अधिकार है, तो इसी तरह उसे अपनी संपत्तियों के स्वामित्व का भी अधिकार है।
 
सातवीं आज्ञा दूसरों की संपत्ति को अन्यायपूर्ण ढंग से ले जाने या रखने और अपने पड़ोसियों की संपत्ति को नुकसान पहुंचाने से मना करती है।
 
सातवीं आज्ञा के विरुद्ध अनेक प्रकार से पाप किए जा सकते हैं -
 
1. चोरी या चोरी में सहायता करना .... माप-तौल के गलत नाप का प्रयोग करना।
2. न लौटाने के इरादे से उधार लेना।
3. अकारणवश खर्च, जिससे दूसरों को नुकसान पहुँचे।
4. जानते हुए भी चोरी का माल लेना।
5. घूस लेना-चेकों की जालसाजी।
6. उधार ली हुई वस्तुएं वापस न करना (पुस्तकालय की किताबें)।
7. न्यायपूर्ण और उचित मजदूरी नहीं देना।
8. वेतन देते समय नकली पैसे देना।
9. अतिशय ब्याज लेना।
10. बीमा संबंधी अनुबंध में बेईमानी वक्तव्य देना।
11. इच्छापूर्वक संपत्ति का नाश।
12. किराया चुकाने से इनकार और ऋण न चुकाना।
13. गैर कानूनी हड़ताल या कार्यों में समय बर्बाद करना।
14. चीजों में मिलावट और व्यापार में बेईमानी करना आदि-आदि।
 
क्षतिपूर्ति- यदि संभव हो तो हमें सब बुराई से प्राप्त वस्तुओं को लौटा देना है, नहीं तो हमारा पाप क्षमा नहीं होगा। जब चोरी आत्मामारू पाप है, तो उसकी क्षतिपूर्ति न करना भी आत्मामारू पाप है। यदि संभव हो तो, क्षतिपूर्ति उसके स्वामी को करनी चाहिए। यदि वह मर गया हो तो उत्तराधिकारी को और दोनों संभव न हो तो किसी सेवार्थ संस्था को उस व्यक्ति के नाम दे देना चाहिए। जब तक क्षतिपूर्ति (वापसी) नहीं होती है, चोरी का पाप क्षमा नहीं हो सकता।
 
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