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क्रिसमस : ईसा मसीह के जीवन की पहेलियाँ

राम यादव
ईसा मसीह का जीवन पीड़ाओं और प्रेरणाओं का ही नहीं, पहेलियों का भी एक अनुपम उदाहरण है। इसीलिए अपनी मान्यताओं के अनुसार कोई उन्हें मसीहा (उद्धारक) मानता है, कोई एक ऐतिहासिक पुरुष तो कोई उन्हें दोनों के रूप में देखता है। ईसाइयों की धर्मपुस्तक बाइबल में उनके जीवन के बारे में कुछ ऐसे वर्णन भी हैं, जिनकी पुष्टि कर सकने वाले उस समय के ऐतिहासिक साक्ष्य नहीं मिलते।
 
इसका मतलब यह है कि धर्मनिरपेक्ष इतिहासकारों के लिए ईसा मसीह के बारे में ऐसी जानकारी प्राप्त कर सकना काफी कठिन है, जो बाइबल में नहीं है। फिर भी, पिछले कुछ दशकों में कुछ दिलचस्प खोजें भी हुई हैं। कुछ लोग बाइबल में वर्णित कथा-कहानियों को सच मानते हैं, तो कुछ दूसरे सच नहीं भी मानते।
 
जन्मदिनः हालांकि अधिकांश ईसाई, 25 दिसंबर को ईसा मसीह का जन्मदिन मानकर धूम-धाम से ख़ूब क्रिसमस मनाते हैं। लेकिन वे यह नहीं जानते कि न्यू टेस्टामेंट में ऐसी किसी विशेष तारीख का उल्लेख नहीं है, जिस दिन बालक यीशु दुनिया में आए थे।
 
अब तक की शोध के अनुसार, यीशु का जन्म 25 दिसंबर को नहीं हुआ था। वैज्ञानिकों का कहना है कि सबसे अधिक संभावना यही है कि उनका जन्म, उन्हीं के सम्मान में इस समय प्रचलित ईस्वी-सन शुरू होने से 4 या 6 वर्ष पहले, मई और नवंबर के बीच के किसी दिन हुआ था। यानी, उनका जन्म किसी ऐसे दिन हुआ था, जब इज़राइल में सर्दी नहीं, गर्मी के महीने होते हैं। जन्मस्थान इसराइल का नाज़ारेथ शहर माना जाता है।
 
तीन ज्ञानी पुरुषः कहा जाता है कि उन दिनों तीन ऐसे ज्ञानी पुरुष थे, जिन्होंने आकाश में ईसा मसीह के जन्म का सूचक एक ऐसा तारा देखा, जो साथ ही उनका मार्गदर्शन भी कर रहा था कि उन्हें शिशु यीशु को देखने के लिए किस दिशा में जाना चाहिए। तारे को देखने के बाद वे बेथलेहेम के लिए रवाना हुए।
 
शोधकों ने तीनों ज्ञानियों के संभावित मार्ग का पता लगाया और पाया कि उन्हें अपने गंतव्य तक पहुंचने में लगभग दो साल लग गए होंगे। इसका मतलब यही है कि आम धारणा के विपरीत, यीशु के जन्म के तुरंत बाद तो वे उनसे मिलने वहां पहुंच नहीं सके होंगे, जहां उन्हें पहुंचना था। खगोलविदों का मानना है कि यीशु के जन्म का संकेत देने वाला तारा शनि और बृहस्पति ग्रह की युति का परिणाम था। यह ज्योतिषीय घटना आज का ईस्वी-सन शुरू होने से 7 साल पहले मीन (फ़िश) राशि में घटी थी।
 
यह ग़लतफ़हमी कि वे ग़रीब थे, संभवतः इस कारण पैदा हुई कि उनका जन्म एक पशुशाला में हुआ था। हालांकि ऐसा दुर्भाग्यपूर्ण परिस्थितियों के कारण हुआ था। जब उनकी मां मैरी प्रसव-पीड़ा में थीं, तब बेथलेहम में जनगणना चल रही थी। आस-पास की जगहों के लोग अपनी गिनती करवाने के लिए वहां जमा हुए थे। कहीं ठहरने की सराय आदि जैसी सारी जगहें पहले से ही भर गई थीं। इसलिए य़ीशु के माता-पिता के पास पालतू जानवरों को रखने की पशुशाला जैसे किसी आश्रय के अलावा कोई विकल्प नहीं था। वहीं यीशु का जन्म हुआ।
 
चेहरा-मोहराः फोरेंसिक विज्ञान के एक विशेषज्ञ, ब्रिटिश शोधकर्ता रिचर्ड नीव ने यीशु के समय के एक आम वयस्क के चेहरे का पुनर्निर्माण किया। निकला छोटे बालों वाला सांवले रंग का एक ऐसा आदमी, जो गोरे रंग, नीली आँखों और लंबे बालों वाली ईसा मसीह की उन तस्वीरों और मूर्तियों से बिल्कुल अलग है, जिन्हें हम आज हर जगह पाते हैं।
पहनावे के बारे में यही उल्लेख मिलता है कि ईसा मसीह को जब सूली पर चढ़ाया गया था, तब उन्हें एक ऐसा अंगरखा पहनाया गया था, जो आमतौर पर उस समय के अमीर लोगों द्वारा पहना जाता था। बाइबल कहती है कि उस समय वहां जो सैनिक थे, इस बात को लेकर वे आपस में झगड़ने लगे कि उनके कपड़े कौन अपने पास रखेगा।
 
व्यवसायः यीशु के व्यवसाय के लिए यूनानी शब्द "टेक्टन" इस्तेमाल किया गया है। इसका सबसे आम अनुवाद "बढ़ई" है। विद्वान बताते हैं कि यह शब्द एक शिल्पकार या राजमिस्त्री के संदर्भ में भी प्रयोग किया जाता है। ईसा मसीह ने संभवतः 12 से 30 वर्ष की आयु के बीच राजमिस्त्री के रूप में काम किया होगा।
 
आजकल बहुत से लोग ईसा मसीह की शिक्षाओं का तो सम्मान करते हैं, पर यह नहीं मानते कि ये शिक्षाएं उन्हें सीधे ईश्वर से मिली थीं। ईसाई नास्तिक उन्हें किसी सर्वशक्तिमान भगवान या देवता की संतान के रूप में नहीं, बल्कि एक दार्शनिक और मानवतावादी के रूप में देखना चाहते हैं।
 
कुरान में ईसा मसीहः इस्लाम के पवित्र ग्रंथ कुरान में पैगंबर मुहम्मद की तुलना में यीशु का उल्लेख 25 बार, यानी कहीं अधिक बार किया गया है, जबकि स्वयं मुहम्मद का केवल चार बार उल्लेख मिलता है। ईसा मसीह को पैगम्बर के रूप में मान्यता दी गई है, हालांकि उन्हें ईश्वर-पुत्र नहीं माना गया है। दिलचस्प बात यह भी है कि सऊदी अरब के मदीना में पैगंबर मुहम्मद की कब्र के बगल में ईसा मसीह के लिए निर्दिष्ट एक कब्र भी है।
 
क्या कभी विवाहित भी रहे?: ईसाई मानते हैं कि ईसा मसीह आजीवन कुंवारे रहे, कभी विवाह नहीं किया। लेकिन, 9वीं सदी की एक अद्भुत प्राचीन पाण्डुलिपि मिली है। इतिहासकारों द्वारा समीक्षा के बाद उसे 2012 में सार्वजनिक तौर पर भी उपलब्ध कर दिया गया। यह दस्तावेज़, जिसे कभी-कभी "खोया हुआ सुसमाचार" भी कहा जाता है, संकेत देता है कि यीशु किसी समय विवाहित भी थे।
 
इस पाण्डुलिपि में मैरी नाम का एक संदर्भ मिलता है, जिससे कुछ लोगों ने अनुमान लगाया कि मैरी मैग्डलीन (मरिया मग्दालेना) ही उनकी पत्नी रही होंगी। एवैंगेलिक ईसाई कहते हैं कि मैरी उनकी सहचरी थीं। वे ईसा मसीह के सूलीरोहण की और बाद में उनके पुनरजीवित होने की साक्षी थीं। दोनों की एक बेटी भी थी- सारा। 19वीं सदी से ऐसी और भी कई पांडुलिपियां मिली बताई जाती हैं, जिनमें मैरी का उल्लेख है। कैथलिक ईसाई धर्मगुरू इसे स्वीकार नहीं करते कि मैरी मैग्डलीन ईसा मसीह की पत्नी थीं या दोनों की कोई संतान भी थी। 
 
भाई-बहनः ऐतिहासिक वृत्तांतों के अनुसार, यीशु के चार भाई और कम से कम दो बहनें थीं। उनके भाइयों के नाम जैकब, जोसेफ, जूड और साइमन थे। एक मान्यता यह भी है कि ये भाई उनके पिता की पिछली शादी से हुए बेटे या चचेरे भाई भी हो सकते हैं। बाइबल के अनुसार, जैकब को पत्थरों से मार डाला गया था।
15 साल के उत्खनन कार्य के बाद, पुरातत्वविद अमित रीम और उनकी टीम, प्राचीन कालीन 'हेरोदेस' महल को उजागर करने में सफल हो गई। पश्चिमी यरूशलेम में स्थित यह महल ऐतिहासिक रूप से उस स्थान के रूप में जाना जाता है जहां यीशु को मौत की सजा दी गई थी।
 
सूलीरोहणः इस खुदाई से संकेत मिलता है कि ईसा मसीह को जिस क्रॉस, यानी सूली या सलीब पर चढ़ाया जाना था, उसका वज़न क़रीब 27 किलो था। उसे रास्ते भर पूरी तरह उठा कर इस तरह चलना संभव नहीं रहा होगा कि वह ज़मीन को न छुए। इसलिए ज़मीन के समानांतर वाला उसका ऊपरी लट्ठा अपने कंधे पर तिरछा रख कर ईसा मसीह उसे घसीटते हुए ले गए होंगे।
 
सूलीरोहण की तस्वीरों में दिखाया जाता है कि सूली के क्षैतिजिक लट्ठे पर लगी उनकी हाथेलियों में कीलें ठोंकी गई हैं। लेकिन यदि ऐसा होता, तो उनके शरीर के वज़न से हथेलियां फट जातीं और वे गिर जाते। अब यह कहा जा रहा है कि कीलें हथेलियों में नहीं, कलाइयों में ठोंकी गई थीं। उनकी म़त्यु कई दिनों बाद नहीं, क़रीब 6 घंटों में ही हो गई थी। उन्हें सुबह 9 बजे सूली पर चढ़ाया गया था और मृत्यु हुई तीसरे प्रहर 3 बजे।
 
बाइबल के अनुसार, वह गुड फ्राइडे का दिन था। दिसंबर के अंत में मनाए जाने वाले क्रिसमस के बाद, ईसाइयों के मार्च-अप्रैल में पड़ने वाले ईस्टर त्योहार का पहला दिन, जो हमेशा एक शुक्रवार होता है, गुड फ्राइडे कहलाता है।
 
क्या भारत में भी रहे? 19वीं-20वीं सदी में एक अवधारणा यह बनने लगी कि ईसा मसीह की 12 से 29 वर्ष की आयु के बीच के समय का जो कोई उल्लेख नहीं मिलता, उस दैरान किसी समय वे भारत और नेपाल में भ्रमण कर रहे थे। उनके आध्यात्मिक संदेश भारत के सनातन और बौद्ध धर्म से प्रभावित हैं। उन्होंने इन दोनों का अध्ययन किया था। इस आशय की दस्तावेज़ी फिल्में भी बनीं।
 
लेकिन, ईसाई धर्माधिकारी और विद्वान इसे भला कैसे स्वीकार कर सकते हैं कि उनके पंथ का जन्मदाता भारत या सनातन धर्म से प्रभावित रहा हो सकता है। हर पंथ और संप्रदाय अपने आराध्यों के महिमा-मंडन के लिए बढ़ा-चढ़ा कर कथा-कहानियां गढ़ता या रचता है। ईसाइयत भी इसका अपवाद नहीं है।

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