ईश्वर की पहली आज्ञा- अपने धर्म में विश्वास रखें...

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'यदि तुम मुझे प्यार करते हो तो मेरे आदेशों का पालन करोगे।' (योहन 14:15)
 

 
पहली आज्ञा कहती है- 'मैं प्रभु तेरा ईश्वर हूं। प्रभु अपने ईश्वर की आराधना करना। उसको छोड़ और किसी की नहीं।' (निर्गमन 20:1)
 
धर्मग्रंथ इस आज्ञा का अर्थ निकालते हैं- 'ईश्वर ने कहा, और उसके ये शब्द थे, 'मैं प्रभु तेरा परमेश्वर हूं, जिसने तुझे मिस्र देश से, दासत्व के घर से बाहर निकाला है। तू मेरे अतिरिक्त किसी को ईश्वर न मानना। तुम अपने लिए स्वर्ग में या जमीन पर या पाताल में कोई प्रतिमा न बनाना।
 
तुम किसी भी मूर्ति की पूजा न करना न उनकी सेवा करना, क्योंकि मैं प्रभु तुम्हारा ईश्वर, इसे न सहन करने वाला ईश्वर हूं। मैं, मुझसे अवहेलना करने वाले पुरुषों के अपराधों का दंड उनके पुत्रों, पौत्रों, प्रपौत्रों तक को देता हूं, परंतु जो मुझसे प्रेम करते हैं और मेरी आज्ञाओं का पालन करते हैं, उनकी हजारों पीढ़ियों तक मैं उन पर अपनी अनुकम्पा बनाए रखता हूं।' (निर्गमन 20:1-6)
 
ईश्वर की पहली आज्ञा हमें विश्वास, भरोसा, प्रेम और धर्म के द्वारा ईश्वर की पूजा करने का निर्देश देती है।
विश्वास द्वारा : उसमें दृढ़ विश्वास करना
भरोसा द्वारा : उसमें दृढ़ भरोसा रखना
प्रेम द्वारा : सच्चे हृदय से प्यार करना
 
धर्म द्वारा : ईश्वर को समस्त वस्तुओं का सृजनहार और संभालने वाला मानना और इसलिए हमारी आराधना और पूजा का हकदार होना।
 
विश्वास के विरुद्ध पाप- यह धार्मिक उदासीनता है, जो हकती है कि एक धर्म दूसरे धर्म के समान ही अच्छा है। एक धर्म दूसरे के समान अच्छा नहीं है। क्या यह धारणा बनाए रखना स्पष्ट रूप से गलत नहीं है कि जो धर्म मनुष्य द्वारा स्थापित किए गए हैं, वे ईश्वर द्वारा स्थापित धर्म के बराबर हैं? कोई भी, किसी का धार्मिक विश्वास चुन नहीं सकता है। सब कुछ जो ईश्वर द्वारा प्रकट किया गया है, उसे मानना ही चाहिए।
 
विश्वास हमारा श्रेष्ठतम दान है और हमें निम्न कारण से इसे खो देने का खतरा नहीं उठाना चाहिए-
 
(क) आध्यात्मिक कर्त्तव्यों के प्रति लापरवाह होकर जैसे हमारी प्रार्थनाएं एवं संस्कारों के ग्रहण करने से।
(ख) अश्लील पुस्तकों एवं पत्रिकाओं के पढ़ने एवं अश्लील सिनेमा देखने से।
(ग) गैर काथलिक अधिकारिक पूजन विधियों में भाग लेकर.... क्योंकि वह उस विश्वास को प्रकट करने की अपेक्षा करती है, जो उनकी पूजन विधियों में व्यक्त है।
 
भरोसा के विरुद्ध पाप- अहंकार द्वारा, ईश्वर की सहायता के बिना स्वर्ग जाने की आशा करना और उसकी आज्ञाओं की परवाह नहीं करना।
 
निराशा द्वारा- ईश्वर में हमारे विश्वास या भरोसे का परित्याग और आत्मा को बचाने की कोशिश छोड़ देना।
 
प्रेम के विरुद्ध पाप- जब कभी भी हम ईश्वर या हमारे पड़ोसी के प्रति प्यार में असफल हो जाते हैं। संत योहन के प्रथम पत्र (4:19-21) में हम पढ़ते हैं, 'हम प्यार करते हैं, क्योंकि उसने पहले हमें प्रेम किया। यदि कोई यह कहे कि मैं ईश्वर को प्यार करता हूं और वह अपने भाई से बैर करे तो वह झूठा है। यदि वह अपने भाई को जिसे वह देखता है, प्यार नहीं करता, तो वह ईश्वर को, जिसे उसने कभी देखा नहीं, प्यार नहीं कर सकता, इसलिए हमें मसीह से यह आदेश मिला है कि जो ईश्वर को प्यार करता है, उसे अपने भाई को भी प्यार करना चाहिए।'
 
धर्म के विरुद्ध पाप
 
(क) प्रार्थना में जान-बूझकर विकर्षित होना या गिरजा में सोच-समझकर अनादर करना।
(ख) मूर्तिपूजा करना (जो न तो देख, सुन, आशीर्वाद या श्राप दे सकती है।) जो सम्मान ईश्वर को देना चाहिए, उसे किसी जीवन को देना हमेशा गलत है।
(ग) ज्योतिष शास्त्र पर विश्वास करना, ज्योतिषियों से सलाह लेना या यह विश्वास करना कि 'दैवकृत ताबीज' पहनने से अच्छा भाग्य बन सकता है। केवल ईश्वर ही भविष्य जानता है। दयालुता से उसने हमसे यह छिपा रखा है।
(घ) हमें सदा ईश्वर के चुने एवं अभिषिक्त लोगों का आदर करना चाहिए और उनका भी जिन्होंने उसे अपना जीवन समर्पित कर दिया है। (पुरोहित, धर्मभाई और धर्म बहनें) और प्रत्येक जो दैविक उपासना से संबंधित है, उनका आदर करना चाहिए।
(ङ) हम कुंवारी मरिया, स्वर्गदूतों एवं संतों का आदर करते हैं, उनकी उपासना नहीं करते, क्योंकि वे ईश्वर के मित्र हैं।
 
हम केवल ईश्वर की उपासना करते हैं।
(च) हम माला विनती, क्रूस, मेडल एवं कुंवारी मरिया और संतों की तस्वीरों का उतना ही आदर करते हैं, जितना हम हमारे माता-पिता एवं प्रियजनों की तस्वीरों का सम्मान करते हैं।
 
हम जानते हैं कि संतों के गुणों का अनुसरण करना ही उनके सम्मान का सबसे अच्छा तरीका है।
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