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कोरोना वायरस: अभी तो जंग शुरू हुई है!

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ऋतुपर्ण दवे

कोरोना को लेकर सुलगते सवाल, दिखती हकीकत और बदलते तेवरों से समूची दुनिया परेशान है। यह सच है जो दिखा भी कि एक संक्रमण जिसे आम भाषा में छुआछूत कहते हैं, कितना भयावह, जानलेवा और दुखदायी हो सकता है।

इस पीढ़ी और 21 वीं सदी के लिए यह एक अलग अनुभव है। पृथ्वी पर मानव अस्तित्व की सबसे बड़ी उपस्थिति के इस कालखण्ड में शायद ही इससे बड़ा कोई ग्रास जीवन के लिए प्रकोप बना हो, आगे बनेगा या नहीं इसका उत्तर भी किसी के पास नहीं है। लेकिन इससे इनकार नहीं कि हर भाषा में एक ही नाम से पहचाने, पुकारे, लिखे और बोले जाने वाले शब्द ‘कोरोना’ ने विश्व में महज एक वर्ष में अपनी पहचान, नाम और कम समय में सबसे ज्यादा बोले जाने का जो कीर्तिमान रच दिया है उसका वर्तमान में शायद ही कोई उदाहरण हो।

चीन खुश होगा उसका भूतिया नाम दुनिया में गूंज रहा है, विश्व रिकॉर्ड बन लिया है। भले ही चीन इसे अपनी उपलब्धि कह ले लेकिन विश्व समुदाय में चीन की नीयत और करतूत को लेकर पनपा संदेह उस विश्वास में तब्दील हुआ है जिससे उसकी साख और धाक दोनों में जबरदस्त कमीं आई है। चीन अन्दरूनी तौर पर परेशान भी होगा।


इस बात से इनकार भी नहीं किया जा सकता कि वुहान की प्रयोगशाला में जन्मा चीनी संक्रमण देर-सबेर चीन के ही व्यापार की ताबूत बन आखिरी कील भी साबित हो। दुनिया में चीन को लेकर नकारात्मकता, घृणा और व्यावसायिक प्रतिस्पर्धा में मानव अस्तित्व से ही ऐसे खिलवाड़ की मंशा समूचा विश्व देख और समझ रहा है। 
बच्चे, बूढ़े, शिक्षित, अशिक्षित हर कोई कोरोना से परिचित है। लेकिन यह विडंबना नहीं तो क्या जो जीवन के लिए बेहद डरावने और जानलेवा संक्रमण को लेकर लोग एकदम से निडर हो गए! ऐसी निडरता किस कदर और कितनी भारी पड़ने वाली है इसका अंदाजा भी है, लेकिन लोग हैं कि मानते नहीं। हर धर्म और संप्रदाय में नवजात के जन्म के बाद उसको बाहरी संपर्क से रोकने के लिए अपनी-अपनी रीतियां हैं।

अमूमन सभी का मकसद एक ही होता है कि बच्‍चा बुरे यानी सेहत के प्रतिकूल प्रभावों या बाहरी संक्रमण से बचा रहे और स्वस्थ रहे। बस यही भावना सराकर की कोरोना को लेकर भी है। लेकिन आश्चर्य और दुख है कि शुरु में तो सरकारी आदेशों के दौर में लोगों ने इसे माना भले ही मजबूरी में और कोरोना को मात भी मिली। लेकिन यह भी सच है कि लंबे समय तक सारी गतिविधियों को ठप्प भी तो नहीं किया जा सकता। जैसे ही कठिन बंदिशों का दौर ढ़ील में तब्दील होने लगा, लोग एकाएक इतने बेकाबू हो गए कि कोरोना संक्रमण को लेकर बनी और प्रभावी गाइड लाइन्स से उलट एकदम बेफिक्र हो गए। तमाम नियम और आदेश बस कागजों में ही सिमट गए।

वाकई में इस चूक, लापरवाही या नाफरमानी की बहुत बड़ी कीमत सार्वजनिक जीवन और स्वास्थ्य को लेकर चुकानी होगी और चुका भी रहे हैं। लेकिन लोग हैं कि जानकर भी अंजान हैं।

दो उदाहरणों से समझना होगा। इसी साल 15 जनवरी को साउथ कोरिया और अमेरिका में कोरोना के पहले मामले एक साथ सामने आए। लेकिन जहां साउथ कोरिया ने पूरी सतर्कता और पारदर्शिता बरती, नागरिकों को लगातार समझाइश और चेतावनी देता रहा जिससे मार्च मध्य तक ही उसने काफी हद तक इस पर काबू पा फैलने से रोक लिया। वहीं अमेरिका ने यहां तक कि वहां के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप तक ने मजाक उड़ाया और कोरोना को बेहद हल्के से लिया।

आज दुनिया का सबसे शक्तिशाली देश जो स्वास्थ्य सुविधाओं में अव्वल होने, दुनिया के सर्वश्रेष्ठ चिकित्सकों की फौज, प्रयोगशालाओं, शोध में भी आगे होने के बावजूद कोरोना संक्रमण के चलते कितनी बुरी स्थिति है सबको पता है। इतना ही नहीं कोरोना के लेकर ट्रम्प को अपने बयानों, विफलताओं यहां तक कि मास्क न लगा घूमने-फिरने की क्या कीमत चुकानी पड़ रही है जगजाहिर है।

कोरोना के लक्षण को लेकर भी धारणा और वास्तविकता दोनों तेजी से बदले हैं। पहले मार्च में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कहा कि जिन्हें लक्षण दिख रहे हैं वहीं मास्क लगाएं। लेकिन देखते ही देखते सबके लिए मास्क जरूरी हुआ बल्कि सामाजिक दूरी भी मजबूरी बनी। इसी तरह पहले कोरोना के साधारण लक्षण सर्दी, खांसी, खराश, बुखार और सांस लेने में तकलीफ, फेफड़े में संक्रमण और खून का थक्का जमने तक ही सीमित थे। लेकिन देखते ही देखते दूसरे गंभीर लक्षण भी कारण बनते चले गए जिनमें अतिसार यानी डायरिया, गैस्ट्रो इन्ट्राइटिस यानी जठरांत्र शोथ का कारण भी कोरोना बन गया।

इसके अलावा कई लोगों को सूंघने की शक्ति का जाना, कुछ को तेज सिरदर्द तो कइयों को बहुत ज्यादा कमजोरी की शिकायत भी कोरोना वायरस का प्रकोप बना। अभी कोरोना के मामलों में एकाएक गिरावट दर्ज होने के बाद जिस तरह की देश व्यापी लापरवाहियां उजागर हुई हैं उससे कोरोना की दूसरी लहर को फैलने में मदद मिली। हालांकि अभी भी 7 राज्यों में 5 लाख से ऊपर संक्रमण के मामले हैं लेकिन यह आगे नहीं बढ़ेंगे इस बात का जवाब किसी के पास नहीं है। सबको पता है कि भारत दुनिया का दूसरी बड़ी आबादी वाला देश है।

कोरोना से निपटने की हर राज्यों की अपनी अलग योजना भी है। इस पर सभी जुटे भी हैं उसके बावजूद राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली और छोटे से राज्य केरल से ही अभी लगभग हर दिन कुल मामलों के 25 प्रतिशत सामने आना बेहद चिन्ताजनक संकेत है।

यह भी सही है कि कई राज्यों में टेस्टिंग में कमीं भी आई है, कहीं चुनाव तो कहीं उपचुनाव के चलते भी टेस्टिंग प्रभावित होने की बातें सुनाई दे रही हैं। स्वाभाविक है भारत बहुत घनी आबादी वाला देश है, कई कारण हो सकते हैं। लेकिन इस सच्चाई को भी स्वीकारना होगा कि जान है तो जहान वरना यमराज बनकर सामने वुहान का शैतान है। दिल्ली की मौजूदा स्थिति की भयावहता को नसीहत समझ ही लोग सतर्क हो जाएं तो काफी है। वहां जिस तरह से संक्रमण को लेकर चौंकाने वाले आंकड़े सामने आए हैं उसने कोरोना की पहली लहर को बेहद गंभीर बन मात दे दी है।

मौतों के हर रोज चौंकाते आंकड़ों ने एक अलग ही चिन्ता की लकीर खींच दी है। शमशान और कब्रिस्तान में अंतिम संस्कार के लिए भी लंबी प्रतीक्षा बुरा संकेत है।

दरअसल कुछ सवाल जो कई लोग पूछते हैं वह भी जरूरी हैं कि रात का कर्फ्यू भी काफी हद तक प्रभावी रहा। देर रात तक घूमने-फिरने और तफरी पर इससे जहां रोक लगी वहीं संक्रमण पर भी काफी काबू रहा। सबको पता है कि भारत ही नहीं दुनिया भर में शाम से लेकर  रात तक मॉल, सिनेमाघर,  होटल, रेस्टॉरेन्ट, क्लब, मयखाने आबाद रहते हैं। जितने लोग दिन भर सड़कों या दूकानों पर नजर नहीं आते उससे कई गुने ज्यादा रात के चन्द घण्टों में निकल पड़ते हैं।

काश पूरे देश में एक बार फिर तालाबन्दी तो नहीं लेकिन रात 8 बजे से सुबह 8 बजे तक का नाइट कर्फ्यू लगा दिया जाए तो ठण्ड के इस मौसम जो कोरोना के लिए वरदान बनने जा रहा है, अभिशाप बन सकता है और आश्चर्यजनक तरीके से दोबारा कमीं आ सकती है। इसके अलावा हर चेहरे पर मास्क की अनिवार्यता को कठोरता, भारी भरकम जुर्माना लगाकर लागू किया जाए। तमाम शोधों से सामने आए उस सच पर अमल किया जाए कि बार-बार हाथ धोने से कोरोना वायरस निष्प्रभावी हो जाता है।

इस बात को समझा जाए कि जहां कोरोना ने अपने स्वरूप को और भी कठोर कर कई बीमारियों को समाहित कर लिया है। हर छोटे-बड़े संक्रमण को लेकर सतर्क रहना ही कोरोना से बचाव है और मुकाबला भी। वैक्सीन को लेकर भी हर रोज अलग तरह की बातों से भी समझना होगा कि पास आकर भी यह हर किसी को मयस्सर होने से रही। 135 करोड़ की आबादी उसमें भी बड़ी संख्या बुजुर्गो, बच्चों, निःशक्तों और संक्रमितों की जिन्हें तुरंत वैक्सीन की जरूरत है। ऐसे में हर किसी को तुरंत मिले असंभव है। बस बचाव ही सतर्कता है और यही कोरोना को चुनौती भी।
प्रधानमंत्री जी के इन शब्दों में बड़ा अर्थ छुपा है ‘जब तक नहीं दवाई, तब तक नहीं ढ़िलाई’ और तब तक दुनिया, देश, नगर, मोहल्ले में जन-जन का दुश्मन वुहान की औलाद से मास्क और दूरी का फौलाद ही निपट सकता है।
सवाल किससे करें सरकार से या जनसाधारण से पता नहीं।

बस पता है तो इतना कि देश ने लंबे समय तक तालाबन्दी का बुरा वक्त भी देखा। दौड़ते-भागते, घरों को लौटते प्रवासी मजदूरों का दौर भी देखा। भागम, भाग और रेलम-पेल भी देखा। दुर्घटनाओं में बेवक्त मरते अपनों का दर्द भी देखा। बंदिशों के बाद फिर उठने, संभलने और चल पड़ने का दौर भी देख रहा है। बस नहीं दिख रहा है तो सावधानी, संक्रमण का डर और जान पर मौत बन मंडरा रही आफत का वह सच जो हर किसी के सर पर सुबह से शाम तक मंडरा रही है। लेकिन फिर वही कि लोग है कि मानते नहीं।

नोट: इस लेख में व्‍यक्‍त व‍िचार लेखक की न‍िजी अभिव्‍यक्‍त‍ि है। वेबदुन‍िया का इससे कोई संबंध नहीं है।

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