उन दिनों जब घण्टी बजती थी तो हम दौड़ लगाकर उस कक्ष में प्रवेश कर जाते थे, जहां फ़र्श की धूल में बिछी टाटपट्टी पर बैठकर हमने क, ख, ग, गाया।
उसी घण्टी की ध्वनि पर संध्या घर लौटते थे ख़ुशी ख़ुशी।
घण्टी हमारे बचपन की ध्वनि है, वो ध्वनि जिसकी गूंज में इस देस के ज़्यादातर बचपन अब भी जीवित हैं,
और अब, जब हम बड़े हो गए हैं, और जीवन की तकलीफों और दुश्वारियों से वाबस्ता हैं तो हमने इन घण्टियों की आवाजों को अपनी प्रार्थनाओं के संगीत में तब्दील कर लिया है।
हम इसी घण्टे की आवाज़ से आदि और अंत की नींद में सो रहे उस अज्ञात ईश्वर को जगाते हैं/ और कहते हैं जागो/ और हमारी प्रार्थनाएं सुनो,
जागों, नहीं तो हर सांयकाल/ प्रत्येक भोर हम इसी तरह तुम्हारे माथे पर लटकते ये घण्टे बजा- बजाकर तुम्हारी अनंत की योग नींद में विघ्न डालते रहेंगे।
तुम्हें हैरान करते रहेंगे,
आने वाले कई कालों तक तुम्हारे प्रति मानव सभ्यता की यह आस्था तुम्हें अपने एकांत और अमूर्तता में सोने नहीं देगी,
इन तालियों से तुम्हारी इतनी आरती उतारेंगे कि पूरी दुनिया की तकलीफें तुम्हारे सामूहिक गान में बदल जाएगी/
की तुम्हारी स्तुति में बदल जाएंगे हमारे सारे दुःख,
हम अपनी तकलीफों को तुम्हारी भक्ति में बदल लेंगे, और तुम उन दुखों पर रोओगे हमारे लिए,
क्योंकि इन्हीं तालियों के बीच हमारे जीवन का उत्सव है। हम सब हिजरों की बजाई हुई इन्हीं तालियों पर पैदा हुए थे/ और पैदा होते रहेंगे/ लेकिन नहीं करेंगे किसी मौत पर कोई हास्य,
तो अब इस संकट पर हम क्यों नहीं बजाएंगे ताली, क्यों न बजाएं घण्टा और थाली?
वो थाली जो यहां की औरतें बजाती रहीं हैं मंगल काज में/ कई बार अपने क्रोध में/ अपनी आवाज़ सुनाने के लिए,
यही तो इस सभ्यता का सामूहिक कोरस है/ इस देस का संगीत/हमारे होने का गीत है/ यह संकट से लड़ने का प्रतीक है।
इस पर हास्य कैसा/ उपहास कैसा!
जो उपहास करे/ वो इस देस का कहां?