' पर्यटकों के लिए स्वर्ग है भारत।' इस नारे को लघु फिल्मों और टीवी विज्ञापनों के जरिए हिन्दी में प्रचारित करने के लिए भारत सरकार एक साल में करीब 30 करोड़ रुपया खर्च कर रही है। आगरा, खजुराहो, वाराणसी, उज्जैन, भीमबेटका, पचमढ़ी, भेड़ाघाट, उदयपुर, जैसलमेर, जगदलपुर-बस्तर, अमृतसर, अजंता-एलोरा, लाल किले की दिल्ली, कोच्चि, मुंबई-गोआ, श्रीनगर-गुलमर्ग, लद्दाख, गया-राजगीर, पुरी-भुवनेश्वर, शांति निकेतन, तवांग-अरुणाचल, शिलांग जैसे अनगिनत स्थानों पर पहुँचकर दुनिया जहान के लोग दंग रह जाते हैं।
योरप में लोग 700 साल पुराने अवशेषों पर गौरवान्वित होकर अरबों यूरो-डॉलर कमा रहे हैं।
योरप-अमेरिका में मंदी की हवा का असर आने वाले महीनों में भारत पर भी पड़ सकता है। मुंबई में हुए आतंकवादी हमलों के कारण पाँच सितारा होटलों में ठहरने वाले विदेशी भी बुरी तरह विचलित हुए हैं
यहाँ भारत में 7000 साल पुरानी इमारतों या दो लाख पुराने भित्ति-चित्रों अथवा हिमालय के विराट स्वरूप की मार्केटिंग की गुंजाइश है। लगभग 50 लाख से अधिक विदेशी अतिथि (पर्यटक) भारत दर्शन को आते हैं। योरप-अमेरिका में मंदी की हवा का असर आने वाले महीनों में भारत पर भी पड़ सकता है। मुंबई में हुए आतंकवादी हमलों के कारण पाँच सितारा होटलों में ठहरने वाले विदेशी भी बुरी तरह विचलित हुए हैं।
संभव है आने वाले महीनों में बुकिंग भी रद्द की जा रही हो। वैसे भारत की छवि सुधारने के काम में भारतीय दूतावास बहुत निकम्मे साबित होते रहे हैं। हिंसा और अपराध की घटनाएँ लंदन, न्यूयॉर्क, पेरिस और रोम में भी भारत के बड़े शहरों से कम नहीं होतीं, लेकिन भारतीय अधिकारी या नेता योरप-अमेरिका के गीत गाते हुए भारत की हालत खराब होने का रोना खुद रोते रहते हैं, लेकिन हमारी 'समझदार' सरकार को उसकी चिंता करने के साथ घरेलू पर्यटकों की ओर भी अधिक ध्यान देना चाहिए।
भारत सरकार का अपना आधिकारिक बही-खाता बताता है कि भारत में प्रति वर्ष लगभग 52 करोड़ लोग किसी न किसी रूप में यात्रा पर जा रहे हैं। अमेरिका की तो पूरी आबादी इससे आधी है। योरपीय देशों की आबादी तो कई गुना कम है। मेरी इस बात को भारत सरकार के पर्यटन मंत्री और पर्यटन सचिव भी स्वीकारते हैं कि 2009 या 2010 में संभव है ऐसे भारतीय यात्रियों की संख्या 55 से 60 करोड़ तक पहुँच जाए, लेकिन मजेदार बात यह है कि दुनिया भर में भारत की प्रगति और पर्यटन संभावना की मार्केटिंग करने वाली सरकार का वित्त मंत्रालय पर्यटन के बजट को न्यूनतम रखता है।
भारतीय पर्यटन स्थलों की जानकारी देने के लिए तैयार होने वाली हिन्दी की मुद्रित सामग्री, अखबारों-पत्रिकाओं के विज्ञापनों पर एक वर्ष में मात्र 22 लाख 75 हजार रुपए खर्च किए जाते हैं। मीडिया को समझने वाले साधारण मैनेजर भी बता देंगे कि 22 लाख रुपया तो देश के 3 बड़े हिन्दी अखबारों में केवल 5 विज्ञापन छापने पर खर्च हो जाएगा। भारत का पर्यटन मंत्रालय पर्यटन संबंधी हिन्दी किताबें खरीदने पर साल भर में मात्र 18 हजार रुपए खर्च कर रहा है। इस समय यदि 52 करोड़ पर्यटकों में से आधे भी हिन्दी प्रदेशों या हिन्दी समझने वाले राज्यों के हों तो क्या सरकार उनकी जानकारी के लिए 1 रुपया भी खर्च नहीं कर सकती?
आप जर्मनी, जापान, फ्रांस, ब्रिटेन, अमेरिका, रूस, चीन, स्वीडन, स्विट्जरलैंड, ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण अफ्रीका, ब्राजील, क्यूबा- कहीं चले जाएँ, विदेशियों के साथ उनके अपने देशी पर्यटकों के लिए कम खर्च वाले होटल-होस्टल, सस्ती बस-रेल सेवा, पर्यटन-स्थलों पर अपनी भाषा की मुद्रित सामग्री नाममात्र के मूल्य या मुफ्त में उपलब्ध रहती है, लेकिन भारत में गरीब-मध्यम वर्ग के वोट से जीतने वाली सरकारें देशी पर्यटकों के साथ बेगानों जैसा व्यवहार करती है। अभी 6 राज्यों के विधानसभा चुनाव संपन्न हो रहे हैं। क्या किसी क्षेत्र में किसी पार्टी, उम्मीदवार ने अपने भोले-भाले पथिकों की सुध ली है या सामान्य यात्री-पर्यटक को न्यूनतम सुविधाएँ देने का मुद्दा उठाया है?
धर्म के नाम पर डंडे-झंडे उठाकर राजनीतिक पाखंड और प्रलाप होता रहता है, लेकिन किसी धार्मिक पर्यटन स्थल को प्रदूषण मुक्त करने, उसे विश्व का 'सर्वश्रेष्ठ स्वच्छ शहर' घोषित करवाने का बीड़ा क्या किसी ने उठाया है? पतित पावन गंगा-यमुना और क्षिप्रा का जल हर साल अधिक गंदा, प्रदूषित और जहरीला होने के मुद्दे पर चुनाव जीते या हारे क्यों नहीं जाते? वाराणसी में तो सारे शहर का मल-मूत्र इकट्ठा कर संगम में प्रवाहित करने वाले संसाधनों पर लाखों रुपया हर वर्ष खर्च हो रहा है।
फिर भी 'गंगा और प्रज्ञा' की आरती उतारने वालों को एक बड़े गंदे नाले का रुख बदलने का
लालूजी को रेल के मुनाफे के लिए पर्यटक चाहिए, लेकिन उनके ठहरने, खाने-पीने की सुविधाएँ माफिया ठेकेदारों पर निर्भर हो रही हैं। वक्त की जरूरत यह है कि परदेसी से अधिक देसी पथिकों की खुशियों पर ध्यान दिया जाए
संकल्प लेने की इच्छा नहीं होती। बोध-गया, राजगीर, नालंदा, वैशाली और सारनाथ के लिए जापान सहित दुनिया के हजारों यात्री आकर लाखों डॉलर खर्च कर जाते हैं, लेकिन इन पवित्र पर्यटनस्थलों के आस-पास मध्यम श्रेणी के पर्यटकों के लिए सुविधाओं का अकाल है। विदेशी सरकारें ऐसे स्थानों के लिए लाखों डॉलर अनुदान भी भेजती हैं, लेकिन उसे भी ठीक से खर्च नहीं किया जाता।
भारत सरकार तो परमाणु नशे में चूर रहती है, लेकिन उत्तर भारत के राज्यों की सरकारें भी तो खानापूर्ति ही कर रही हैं। वे अपने ऐतिहासिक अथवा आकर्षक पर्यटनस्थलों तक पहुँचने और वहाँ कुछ दिन सुख-शांति से मौज करने का न माहौल बना पा रही हैं और न ही उनका प्रचार कर पा रही हैं। मेरे अपने मध्य प्रदेश के संवेदनशील नेता और अधिकारी दिल्ली में अंतरराष्ट्रीय व्यापार मेले, स्थायी पर्यटन स्थल दिल्ली हाट, न्यूयॉर्क-टोक्यो-बीजिंग के भारत महोत्सवों में अपने क्षेत्र के व्यंजनों तक का प्रचार करने तक में रुचि नहीं लेते।
दिल्ली के प्रगति मैदान में हर साल लगने वाले अंतरराष्ट्रीय व्यापार मेले के मध्य प्रदेश मंडप में इस बार भी मालवा के किसी नमकीन, दाल-बाफले की बिक्री की बात दूर रही उसके फोटो तक देखने को नहीं मिले। पता नहीं मध्य प्रदेश के आला 'उद्योग अफसरों' को यह गलत-फहमी कैसे है कि अब उज्जैन, रतलाम, इंदौर, झाबुआ, भोपाल या सागर का प्रमुख व्यंजन छोले-भटूरे हो चुका है। इसी तरह मध्य प्रदेश में पिछड़ेपन के बावजूद लाख की चूड़ियों, दरियों-चादरों सहित पचासों किस्म की वस्तुएँ बनती हैं, देश-विदेश में बिकती हैं, लेकिन मध्य प्रदेश के नाम पर दिल्ली या अन्य राज्यों का सामान बेचने की धोखाधड़ी पर किसी अधिकारी की बर्खास्तगी नहीं हुई।
मध्य प्रदेश के पर्यटन-स्थलों की मार्केटिंग की बजाय अफसरों ने हमेशा अपनी मार्केटिंग पर ध्यान दिया है। मध्य प्रदेश से विभाजित छत्तीसगढ़ कम साधनों व स्थानों के बावजूद अपने पर्यटन स्थलों को आकर्षण का केंद्र बना रहा है, लेकिन मध्य प्रदेश के अफसर पर्यटन और औद्योगिक विकास के क्षेत्र में उत्तर प्रदेश और बिहार से बदतर स्थिति बना रहे हैं।
नीतीश कुमार ने बिहार के बीमार-तंत्र का ऑपरेशन किया है, लेकिन बहन मायावती को सारनाथ, इलाहाबाद, लखनऊ, आगरा की ऐतिहासिक इमारतों के संरक्षण की अपेक्षा अपनी मूर्तियाँ लगवाने में अधिक रुचि है। नया इतिहास जो बनना है। लालूजी को रेल के मुनाफे के लिए पर्यटक चाहिए, लेकिन उनके ठहरने, खाने-पीने की सुविधाएँ माफिया ठेकेदारों पर निर्भर हो रही हैं। वक्त की जरूरत यह है कि परदेसी से अधिक देसी पथिकों की खुशियों पर ध्यान दिया जाए।