कोई मजहब नहीं होता पसीने का

उमेश त्रिवेदी
इस वक्त हमारे देश में दो चीजें बड़े कमाल की चल रही हैं। पहली राजनीति और दूसरी मीडिया। दोनों इतने बड़े करतबबाज हैं कि कहीं भी, कभी भी कुछ भी रच सकते हैं। इनमें एक समानता है कि दोनों ही नंबर गेम के दीवाने हैं।

राजनीति वोटों के नंबर की खातिर औंधे मुँह पड़ी नजर आती है तो इलेक्ट्रॉनिक या प्रिंट मीडिया टीआरपी और प्रसार संख्या के कारण दिन में भी तारे गिनता रहता है। दिलचस्प यह है कि राजनीति में जो प्रतिस्पर्धा है, उसमें राजनीतिक दल सिर उठाकर आसपास भी नहीं देखना चाहते हैं। यदि एक औंधे मुँह पड़ा है तो दूसरा गड्ढा खोदकर और गहरे औंधे मुँह पड़े रहना चाहता है।

टीआरपी का चक्कर ऐसा है कि मीडिया खासतौर से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के लोग तो ज्यादा तारे गिनने के लिए दूसरे ब्रह्मांड भी ढूँढ लेते हैं। संयोग कहें या दुर्योग, दोनों एक-दूसरे के लिए बने हैं और एक-दूसरे के सहारे चलने के लिए अभिशप्त हैं। मीडिया को घटनाएँ रचने के लिए 'कोट' या 'बाइट' की जरूरत होती है और राजनीति को लोकप्रियता हासिल करने के लिए तथाकथित पब्लिक में अपना चेहरा बनाए रखना आवश्यक होता है।

नतीजतन एक बाइट लेता है, दूसरा देता है। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि दोनों के करतब देश और बड़े समाज को तात्कालिक रूप से व्यापक पैमाने पर प्रभावित करते हैं। इनका अपरिपक्व, असंयत, अविवेकशील व्यवहार अनजाने ही समाज को इतना कुरेद देता है कि खून छलछलाने लगता है। इस खतरनाक जुगलबंदी के दो ताजा उदाहरण हाल ही देखने को मिले हैं, जबकि छोटी-छोटी सी घटनाओं में से तूफान पैदा करने की कोशिशें की गईं। नतीजतन देश और समाज के सीने पर खून छलछलाने लगा।

पहला उदाहरण मध्यप्रदेश का है, जबकि एक दिन सवेरे-सवेरे राज्य सरकार को 'इलहाम' हुआ कि 'जोधा-अकबर' फिल्म के प्रदर्शन के कारण प्रदेश में नागरिक असंतोष की स्थितियाँ निर्मित हो सकती हैं, जिससे कानून व्यवस्था पर संकट हो सकता है। भारी संकट की आशंकाओं के बीच मध्यप्रदेश में 'जोधा-अकबर' के प्रदर्शन पर रोक लगा दी और थिएटरों में अच्छी-खासी चलती फिल्म को उतार दिया गया। सरकारी तर्क यह है कि मध्यप्रदेश में राजपूत समाज फिल्म के ऐतिहासिक तथ्यों से सहमत नहीं था, इसलिए प्रदर्शन को रोका गया। असहमति यह थी कि जोधा अकबर की नहीं बल्कि उनके बेटे जहाँगीर की पत्नी थी।

इस तथाकथित तथ्यात्मक भूल से राजपूत समाज की आन-बान को बट्टा लग सकता था, इसलिए मजबूरन सरकार को यह कदम उठाना पड़ा। इसी प्रदेश में पचास साल पहले बनी 'मुगले आजम' फिल्म खूब चली। जब पहली बार 'रिलीज' हुई, तब कोई एक साल तक थिएटरों में धूम मचती रही, और हाल ही जब उसका रंगीन प्रिंट आया, तब भी खूब चली, लोकप्रियता बटोरी। उसमें भी अकबर की पत्नी का नाम जोधाबाई ही रखा गया था।

' मुगले आजम' की जोधाबाई और 'जोधा-अकबर' की जोधाबाई में क्या अंतर है? उस समय राजपूत समाज क्यों आहत नहीं हुआ और इस मर्तबा इतना आहत क्यों हो गया कि प्रदेश सरकार की कानून-व्यवस्था काँपने लगी? इन विरोधाभासी स्थितियों में मौजूद सवाल का उत्तर तो सभी पक्षों की ओर से सामने आना चाहिए। कलात्मक स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की आजादी के सवाल इससे अलहदा हैं।

दूसरी घटना महाराष्ट्र की है, जहाँ राज ठाकरे के एक बयान और गुंडेनुमा राजनीतिक कार्यकर्ताओं ने अराजकता फैलाकर पूरे देश में चिंताएँ पैदा कर दीं। दूसरे में भी मीडिया, खासतौर से 'इलेक्ट्रॉनिक मीडिया' की भूमिका सवालिया रही है। इससे जुड़े कवरेज के संदर्भ में एक सत्य घटना का बयान एक राष्ट्रीय चैनल के संवाददाता ने अनौपचारिक बातचीत में इस संवाददाता के सामने बयान किया।

घटना राज ठाकरे की गिरफ्तारी और उनके जमानत के प्रसंग से जुड़ी है। क्षेत्र के अधिकांश चैनल इस घटना का 'लाइव टेलीकास्ट' कर रहे थे। टीवी स्क्रीन पर मची एंकरों और फील्ड रिपोर्टरों की चीख-पुकार सुनकर ऐसा महसूस हो रहा था कि राज ठाकरे के जमानत पर छूटते ही जैसे जलजला आ जाएगा। एक राष्ट्रीय चैनल के परदे पर एंकर और संवाददाता तनावपूर्ण मुद्रा में एक-दूसरे से सवाल के माध्यम से गुत्थम-गुत्था हो रहे थे।

फील्ड रिपोर्टर मुंबई के किसी कोने पर व्याप्त तथाकथित 'तनाव' को रिपोर्ट करने के लिए शब्दों में आग झोंक रहा था। दूसरी ओर स्क्रीन पर मौजूद एंकर सवालों की गोलाबारी के बीच आग्रह कर रहा था कि कैमरे को भीड़ की ओर मोड़िए। भीड़ की नाराजी दिखाइए, तनाव दिखाइए। राज ठाकरे की समर्थक जनता की उग्रता से दर्शकों को रूबरू कराइए, लेकिन रिपोर्टर टस से मस नहीं हो रहा था। माइक्रोफोन हाथ में पकड़े सिर्फ अपनी बातें दुहराने के अलावा कुछ नहीं कर रहा था। बहरहाल, हल्ला खत्म हुआ। इस संवाददाता ने तत्काल उससे फोन पर पूछा कि 'भाई, भीड़ की ओर कैमरा क्यों नहीं मोड़ा?' उधर से जवाब आया कि जब भीड़ नहीं थी तो कैमरा कैसे घुमाता?

ये दो घटनाएँ हमारी राजनीति और मीडिया के चालचलन को उजागर करती है। जो समाज और लोगों को गहराई से प्रभावित करता है। मसले गंभीर हैं, जिनका विश्लेषण गंभीरता और गहनता का वैचारिक आग्रह करता है। मोटे तौर पर हम एक प्रजातांत्रिक देश हैं। जहाँ हर पाँच साल में चुनाव होते हैं और निर्वाचित सरकारें केंद्र और प्रदेश के काम करती हैं।

सबको कहने, सुनने और बोलने की आजादी है। कोई कहीं भी आ-जा सकता है, रह सकता है और अपना धंधा-पानी कर सकता है। सरकारें उन्हें इसके लिए संरक्षण देंगी। ये बातें संविधान में लिखी हैं, जिन्हें दोहराते हुए हम कभी भी थकते नहीं हैं। सवाल यह है कि क्या सही अर्थों में समाज, सरकार और व्यवस्थाएँ संविधान की मंशा के अनुरूप चल रहे हैं। अगर नकारात्मक है।

हमारे देश का संविधान, उसमें दी गई स्वतंत्रताएँ, व्यक्तिगत, सामाजिक, सामूहिक, अधिकार, लोकतांत्रिक व्यवस्थाएँ, प्रतिबद्धताएँ शब्द संसार का हिस्सा मात्र है, जिसकी शाब्दिक और सैद्धांतिक व्यवस्थाएँ अभिभूत करती रहती हैं। लेकिन रोजमर्रा के व्यवहार में हमारे आसपास संविधान नदारद नजर आता है।

सही है कि देश में शासन स्तर पर तानाशाही नहीं है, क्योंकि हर पाँच साल में जनता अपनी सरकारें चुनती है, लेकिन यह बात इसलिए राहतदायी नहीं हो सकती है, क्योंकि अपरोक्ष तानाशाही, जो छोटे-छोटे स्तर पर अलग-अलग आकार-प्रकार और व्यवहार में मौजूद है, जीवन को दूभर बना रही है।

विडंबना यह है कि संप्रदाय, जाति, भाषा, क्षेत्र और स्थानीयता की ओछी भावभूमि पर पैदा खंडित ताकतों की इस तानाशाही से निपटने में सर्वशक्तिमान सरकारें सक्षम नहीं हैं। वो कमजोर हैं, क्योंकि उन्हें राष्ट्र से ज्यादा अपने क्षेत्र की फिक्र है, वो कमजोर हैं, क्योंकि उन्हें जनता से ज्यादा अपने वोट की चिंता है। वो कमजोर हैं क्योंकि उन्हें धर्म से ज्यादा जाति, जाति से आगे गुट, गुट से ऊपर 'अपने' व्यक्तियों और स्वार्थों की गरज है।

हमारा राजनीतिक नेतृत्व एकता के व्यापक धरातलों पर स्वयं को असुविधाजनक और आशंकित महसूस करता है। उसकी राजनीति को स्वार्थपरक, छोटे-छोटे खंडित आधार अनुकूल लगते हैं। इसीलिए शायद वह इतना कमजोर हो चुका है कि चिंगारी को आग समझकर छुईमुई हो जाता है और हवाओं को तूफान समझकर गुलाटी खाने लगता है। मध्यप्रदेश में 'जोधा-अकबर' पर प्रतिबंध और महाराष्ट्र में राज ठाकरे जैसे प्रसंग शायद इन्हीं कमजोरियों के प्रतिफल के रूप में सामने आ रहे हैं।

ये घटनाएँ दर्शाती हैं कि समाज में राजनीतिक नेतृत्व का तानाबाना बिखर चुका है। जाने-अनजाने यह देश नागरिक अराजकता की ओर बढ़ रहा है, क्योंकि कद्दावर राजनीतिक नेतृत्व का अभाव है। व्यवस्था राजनेताओं के हाथ से फिसलकर 'पोलिटिकल मैनेजरों' के हाथों में आ गई है, जिनकी नजरें स्वार्थों और तात्कालिक लाभ के गुणा-भाग के कारण इस कदर धुँधला गई हैं कि वो दो गज आगे का भविष्य भी नहीं पढ़ पाते हैं।

देश सब मिलकर बनाते हैं और सबको मिलाकर बनता है। हिन्दू, मुसलमान, बिहारी, गुजराती, मराठी, बंगाली या पंजाबी भाषा-भाषी होने से देश नहीं बनता है। इसके लिए पसीना बहाने की जरूरत होती है और पसीने का कोई मजहब, कोई भाषा और कोई क्षेत्र नहीं होता...!

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