चुनाव की हाँडी में खौलते मुद्दे

उमेश त्रिवेदी
राजनीति के थर्मामीटर में चुनाव की हरारत बढ़ने लगी है। देश मध्यावधि चुनाव के मुहाने पर है। भारत-अमेरिका परमाणु करार के संदर्भ में वाम दलों के कठोर रुख पर कांग्रेस में उबाल आया है।

सोनिया गाँधी के ताजे बयान से साफ झलक रहा है कि कांग्रेस-वामदलों की राजनीतिक-जुगलबंदी की साँसें अब टूटने लगी हैं। सोनिया ने साफ कहा है कि कांग्रेस मध्यावधि चुनाव के लिए तैयार है।

अब वामदलों को फैसला करना है कि केंद्र सरकार को समर्थन के मामले में उन्हें क्या करना है? गुजरात विधानसभा के चुनाव का शंखनाद कभी भी हो सकता है। अगले साल 2008 के अंत में मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, दिल्ली आदि राज्यों की निर्वाचन प्रक्रिया शुरू हो जाएगी।

अनुभव बताते हैं कि किसी भी आम चुनाव के छः महीने पहले राजनीति और प्रशासन से जुड़े सभी कार्य लगभग ठप हो जाते हैं। जो कुछ भी होता है, उसकी धुरी चुनाव के आसपास ही घूमती है। भले ही जैसे-तैसे देश मध्यावधि से बच जाए फिर भी राजनीति के अन्तर प्रवाह को चुनावी राजनीति से बचाना मुश्किल ही होगा।

जाहिर है कि पाँच साल के निर्धारित कालखंड के डेढ़ साल पहले देश 'इलेक्शन मोड' में आ गया है। अब सिर्फ चुनावी-राजनीति होगी। लोग हाथ पर हाथ रखकर इंतजार करेंगे कि अगली सरकार आए और काम शुरू करें।

किसी भी प्रजातांत्रिक-देश के लिए चुनाव अपरिहार्य है। साठ साल की गौरवमयी प्रजातांत्रिक सफलताएँ हमारी धरोहर है। खतरा यह है कि धरोहर कहीं छीजने नहीं लगे। पिछले पच्चीस-तीस सालों में देश और प्रदेशों में निर्धारित जीवन-काल के पहले ही सरकारों का गला घोटने का जो सिलसिला प्रारंभ हुआ है, उसके कारण प्रजातांत्रिक व्यवस्थाएँ और मूल्य रसातल में फिसलते महसूस होने लगे हैं।

चुनाव अपनी निर्धारित प्रक्रियाओं और समयावधि के अनुसार नहीं, बल्कि राजनीतिक कारणों से थोपे जाएँगे, तो प्रजातंत्र के स्वास्थ्य के लिहाज से स्थितियाँ बेहतर नहीं मानी जाएँगी। अनावश्यक और असमय चुनाव जनता के हितों पर कुठाराघात करते हैं। चुनावी अनिश्चितता और आचार-संहिता के कारण सरकारी मशीनरी सिमट और सिकुड़ जाती है। विकास-कार्य की रफ्तार भी प्रभावित होती है। फिर मुद्दों को पकाने के लिए राजनीतिक दल जो गंदा खेल खेलते हैं, उससे समाज का सीना छलनी हो जाता है। मौकापरस्त अफसरशाही अपने नए आकाओं के इंतजार में माला लेकर बैठ जाती है और राजनेता जीतने-जिताने के लिए 'राम-धुन' में जुट जाते हैं।

इलेक्शन मोड में विकास कार्यों के सामने किस प्रकार की जटिलताएँ आ सकती हैं, इसका ताजा उदाहरण इंदौर में होने वाली ग्लोबल-इन्वेस्टर्स-मीट है। मध्यप्रदेश में लाँजी और साँवेर विधानसभा के उपचुनाव लंबित हैं। खरगोन संसदीय सीट भी कृष्णमुरारी मोघे की सदस्यता रद्द हो जाने के कारण रिक्त है।

साँवेर में प्रकाश सोनकर और लाँजी में दिलीप भटेरे के निधन की वजह से ये स्थितियाँ बनी हैं। मध्यप्रदेश सरकार महीनों पहले अक्टूबर 2007 के अंतिम सप्ताह इंदौर में 'ग्लोबल इंवेस्टर्स-मीट' आयोजित करने की घोषणा कर चुकी थी। नतीजतन मप्र सरकार को चुनाव आयोग से अनुरोध करना पड़ा कि वो तीस अक्टूबर को लाँजी के साथ-साथ खरगोन संसदीय उपचुनाव और साँवेर विधानसभा उपचुनाव कराने में असमर्थ है।

यदि खरगोन और साँवेर में उपचुनाव होते तो सरकार को 'ग्लोबल-मीट' का कार्यक्रम रोकना पड़ता। 'ग्लोबल-मीट' को लेकर मप्र सरकार ने राज्य में नए उद्योगों के लिए माकूल माहौल बनाने के लिए बड़ी-बड़ी तैयारियाँ की हैं। उसे विश्वास है कि इससे प्रदेश के औद्योगिकीकरण को नई ऊर्जा मिलेगी।

उपचुनाव की जटिलताओं से भले ही सरकार बच निकली हो, लेकिन इसी दरमियान देश में मध्यावधि चुनाव की घोषणा हो गई तो आगे क्या होगा? मध्यावधि के कारण राजनीतिक दलों की प्राथमिकताएँ बदलेंगी? सरकारी मशीनरी के 'गियर' बदलेंगे। देश 'इलेक्शन-मोड' में होगा। इस परिप्रेक्ष्य में 'ग्लोबल-मीट' के निष्कर्ष और निदान बदले परिदृश्य में कहाँ गुम हो जाएँगे किसी को पता भी नहीं चलेगा।

प्रजातांत्रिक व्यवस्था के सभी अंग शिद्दत से महसूस करते हैं कि अनावश्यक और असमय चुनाव कदापि हितकर नहीं हैं। अलग-अलग तरीके से ये बातें उठाई भी जाती रही हैं। शिवराजसिंह चौहान ने मुख्यमंत्री बनने के बाद इस बात को कई मर्तबा दोहराया कि छोटे-बड़े सभी चुनाव एकसाथ, एक वक्त करवा लेना चाहिए, ताकि बाकी समय साढ़े चार साल तक सरकारें काम कर सकें।

मौजूदा व्यवस्थाओं के चलते, यदि आंतरिक दलीय स्थितियाँ ठीक रहें, तो कोई भी सरकार बमुश्किल ढाई साल काम कर पाती है। यदि मध्यप्रदेश भाजपा की तरह एक ही कार्यकाल में दो-तीन मुख्यमंत्री बदलना पड़े, तो हालात ज्यादा खराब हो जाते हैं।

आचार-संहिता और राजनीतिक अस्थिरता के कारण विकास में अवरोध अपनी जगह है, लेकिन उससे भी खतरनाक वो मुद्दे हैं, जो तेजाब की तरह फफोले पैदा कर रहे हैं। चुनाव में प्रत्येक राजनीतिक दल को मुद्दों की जरूरत होती है। लेकिन वो मुद्दे क्या हों, उनमें आम लोगों के दूरगामी हित अंतर्निहित हों, इस पर शायद ही कोई गौर करता होगा।

इसके विपरीत पार्टियाँ ऐसे मुद्दों को उठाना पसंद करती हैं, जो उनके 'वोट-बैंक' में उन्माद, उत्तेजना और आग पैदा कर सकें। देश में ज्यादातर चुनाव भावनात्मक मुद्दों और व्यवस्था-विरोधी प्रवृत्तियों को उभारकर होते रहे हैं। गरीबी-हटाओ, देश की स्थिरता, विकास जैसे पैमाने राजनीति में मुखौटा भर रह गए हैं। ये बातें सिर्फ कहने-सुनने और लिखने का मसाला बनकर रह गई हैं।

व्यावहारिक धरातल पर राजनीतिक दलों का आचरण अलग नजर आता है। वस्तुस्थिति यह है कि मुद्दों को पकाते समय राजनीतिक दलों का चेहरा बहुत ही हिंसक और वीभत्स होता है। वे यह परवाह नहीं करते कि इससे देश का कितना बड़ा नुकसान होगा? कितने लोग मारे जाएँगे? समाज कितना जहरीला हो जाएगा? दरारें कितनी गहरी होंगी? फफोले कभी सूख पाएँगे या नहीं? घाव कभी भर पाएँगे या नहीं?

भावनात्मक मसलों में सभी दलों की भूमिका हमेशा बेरहम रही है। राम मंदिर के मुद्दे ने हिन्दू-मुसलमानों के बीच स्थायी साम्प्रदायिक दरार पैदा कर दी है। मंडल कमीशन के खिलवाड़ ने समाज में जातीय-वैमनस्य का जिन्न पैदा कर दिया है, जो अपने जातीय आकाओं के इशारे पर चाहे जहाँ आग लगाया करता है।

तुष्टिकरण के हथियार सामाजिक सौहार्द, समन्वय और समरसता के लिए घातक बन चुके हैं। कांग्रेस, भाजपा, लेफ्ट, समाजवादी या बहुजनवादी सभी पिचकारी में तेजाब भरकर रंगों की लीला रच रहे हैं। वो रंग समाज में खून-खराबा पैदा करेंगे। उन घावों को हरा करेंगे, जिन्हें समय सुखाना चाहता है।

सेतु-समुद्रम के नाम राम पताका लेकर दौड़ती भाजपा फिर साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण का सबब बनती दिख रही है, वहीं वामदल परमाणु करार को लेकर लोगों को उद्वेलित करना चाहते हैं। कांग्रेस को परमाणु-करार में वो कारतूस नजर आ रहे हैं, जिनको चलाकर वो विरोधियों को धराशायी कर सकती है। मतलब साफ है कि कोई भी यह देखने को तैयार नहीं है कि देश-हित में क्या है? उसे कैसे आगे बढ़ाया जाए? क्या राजनीतिक दलों की यह निरंकुशता हमेशा लाइलाज बनी रहेगी कि वो जब चाहे, तब देश को चुनाव में झोंक देंगे। जीतने के लिए चाहे जैसा बर्ताव करेंगे। इसका इलाज जनता को ही ढूँढना होगा। umesh.trivedi@naidunia.com

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