दिल्ली में फिर बलात्कार : क्या स्त्री होना इतना बुरा है?

स्मृति आदित्य

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नवरात्रि की पूजन के लिए पांच वर्ष की कन्या का विशेष महत्व है। पांच वर्ष की उसी कन्या के साथ नवरात्रि के दिनों में राजधानी में बलात्कार और उसके बाद बेहद जघन्य व बर्बर हरकतें की गई। पतित होने की तमाम सीमाएं मानव पहले ही लांघ चुका है। अब लगता है कि सीमा पार के बाद लगातार गिरते रहने की प्रतिस्पर्धा चल पड़ी है।

निर्भया कांड के बाद जो जनआक्रोश उमड़ा था उससे एक आम लड़की में आत्मविश्वास को जन्म लेना था लेकिन वह भी नहीं ले सका है बल्कि एक अनजानी आशंका से मन ना जाने क्यों कांपता रहता है।

दिल्ली में अकेली रह रही मेरी सखी ने इस दूसरे बड़े दिल्ली कांड के बाद फोन पर कहा क्या स्त्री होना इतना बुरा है? मेरा मन थरथरा रहा है। मैं अपने होने से डरने लगी हूं। अंधेरी सड़कों पर अकेली आते हुए मुझे लगता है मैं गायब हो जाऊं, किसी को नजर ना आऊं। रोज घर की चौखट पर पहुंचते ही एक ठंडी सांस लेती हूं, मां को फोन करती हूं-मैं आ गई और फिर उसके बाद ही मां गांव में और मैं यहां खाना खाती हूं।

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मैं सच में सहम गई। एक साहसी और दबंग लड़की की यह बात सुनकर मेरा यूं सहम जाना स्वाभाविक था लेकिन क्या हम एक 'अस्वाभाविक' युग की तरफ कदम नहीं बढ़ा रहे हैं? माना कि यह बलात्कार की पहली या दूसरी घटना नहीं है लेकिन क्या सिर्फ इसलिए हमें चुप हो जाना चाहिए कि समाज है तो अच्छाई और बुराई दोनों होगी?

नहीं, मैं नहीं मानती। अगर हम ऐसा करते हैं तो अपराधी हम स ब है ं। समाज का अर्थ ही एक सभ्य, समन्वित, सुगठित व्यवस्था होता है। किंतु जो बर्बरताएं निरंतर हमारे सामने आ रही है वे विकृति की पराकाष्ठा को पार कर रही हैं। हम इसी समाज में रोज असभ्यता के प्रतिमान गढ़ रहे हैं। इंसानियत के नाम पर बिखरते जा रहे हैं। मानवीय मूल्यों का पल-प्रति-पल विघटन कर रह े है ं।

एक मासूम सी बच्ची इस कदर घृणित कृत्य का शिकार होती है तो हमारे इंसान होने पर हमें ही शर्म आती है। शर्म पर शर्म यह भी कि जिन्हें हम अपनी सुरक्षा के लिए तैनात मानते हैं वे अपनी नाकामी और जनभावना को समझे बिना तमाचा मार देने पर आमादा हैं? (दिल्ली पुलिस के अधिकारी ने इस घटना का विरोध कर रही लड़की के गाल पर तमाचा जड़ दिया। लिखना तो बहुत कुछ है लेकिन गुस्सा आ रहा है कि इस लिखने से भी होगा क्या??

अगर पहले दिल्ली बलात्कार मामले पर तत्काल और समुचित कार्रवाई हो जाती तो शायद... इस शायद के पीछे भी ए क डर कांप रहा है? उफ, क्या स्त्री होना इतना डरावना है????

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