नाजुक अंग काटने से कैसे ताकतवर होगा भारत?

कश्मीर को भारत से अलग करने की कोशिश 1948 से होती रही

आलोक मेहता
जम्मू-कश्मीर की आग बुझाने के लिए सुझाए जा रहे तरीके कितने उपयोगी और राष्ट्रविरोधी हैं? कश्मीर को अधिकाधिक स्वायत्तता के साथ इस्लामी राज्य बनाने अथवा जनमत संग्रह के जरिए भारत से अलग होने अथवा पाकिस्तान द्वारा हथियाए हुए गुलाम कश्मीर की गरीब शरणस्थली में पहुँचाने से क्या हिन्दू बहुल जम्मू, लद्दाख तथा पंजाब अधिक सुखी-संपन्न हो पाएँगे?

  इस्लामी राज्य बनाने अथवा जनमत संग्रह के जरिए भारत से अलग होने अथवा पाकिस्तान द्वारा हथियाए हुए गुलाम कश्मीर की गरीब शरणस्थली में पहुँचाने से क्या हिन्दू बहुल जम्मू, लद्दाख तथा पंजाब अधिक सुखी-संपन्न हो पाएँगे       
संपूर्ण भारत तब क्या आतंकवाद से मुक्त सशक्त लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के रूप में चैन से रह सकेगा? अलगाववादी आज संयुक्त राष्ट्र कार्यालय में दरवाजे खटखटा रहे हैं, लेकिन जब तबाही होगी, तो संयुक्त राष्ट्र को भी संभालना मुश्किल होगा।

कश्मीर को भारत की संवैधानिक छाया से मुक्त करने की सलाह देने वाले प्रभावशाली राजनयिक हों अथवा अमेरिकी-योरपीय चश्मे से पढ़ने वाले चंद प्रभावशाली अफसर, नेता या कथित बुद्घिजीवी हों, वे इस तथ्य की अनदेखी कर रहे हैं कि आर्थिक संसाधनों से खोखले कट्टरपंथी कश्मीर की हालत अफगानिस्तान के तालिबान आतंकवादी क्षेत्र से अधिक बदतर और खतरनाक हो जाएगी।

कश्मीर को भारत से अलग करने की कोशिश 1948 से होती रही है। पाकिस्तान की गुप्तचर एजेंसी आईएसआई तो बाद में विकसित हुई, अमेरिकी गुप्तचर एजेंसी सीआईए और कुछ पश्चिमी राजनयिकों ने तत्कालीन सदर-ए-रियासत शेख अब्दुल्ला को भारत से नाता तोड़ अलग राष्ट्र बनाने की माँग करने का पाठ पढ़ा दिया था। जो शेख अब्दुल्ला पं. नेहरू के प्रिय विश्वस्त साथी थे, वे इस लालच में फँस रहे थे।

  1950 से पहले पाकिस्तान द्वारा कश्मीर में की जा रही घुसपैठ से नेहरू तो इतने उत्तेजित हो गए थे कि उन्होंने प्रधानमंत्री पद छोड़कर रायफल ले कश्मीर जाने की इच्छा सार्वजनिक रूप से घोषित कर दी थी       
नेहरू ने समय रहते उन्हें बर्खास्त कर वर्षों तक जेल में डालकर रखा और अक्ल ठिकाने आने पर ही वापस छोड़ा। 1950 से पहले पाकिस्तान द्वारा कश्मीर में की जा रही घुसपैठ से नेहरू तो इतने उत्तेजित हो गए थे कि उन्होंने प्रधानमंत्री पद छोड़कर रायफल ले कश्मीर जाने की इच्छा सार्वजनिक रूप से घोषित कर दी थी।

इसी तरह जम्मू-कश्मीर की एकता-अखंडता के लिए भारतीय जनसंघ के संस्थापक श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने तो अपना बलिदान दे दिया था। आज उन्हीं राजनीतिक पार्टियों के नेता जम्मू-कश्मीर में लगी विभाजन की आग के सामने बेबस ही नहीं खड़े हैं, अपनी राजनीतिक रोटियाँ सेंक रहे हैं। उनमें से कई स्वायत्तता, जनमत संग्रह और जरूरत पड़ने पर ऐसे हिस्से को भारतीय शरीर से काट फेंकने की बात करने लगे हैं।

वे एकजुट होकर तिरंगे के साथ श्रीनगर की सड़कों पर शांति-जुलूस निकालने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं। पड़ोसी पाकिस्तान में जनरल मुशर्रफ के हटने से आतंकवादी गतिविधियाँ तेज होने की आशंका पिछले दिनों भारत के सुरक्षा सलाहकार एमके नारायणन व्यक्त कर चुके हैं।

पाकिस्तान में जनरल मुशर्रफ के हटने या राजनीतिक अस्थिरता रहने से भारत को बहुत लाभ नहीं होने वाला है। लेकिन अपने जम्मू-कश्मीर में अलगाव की लहर रोकने के लिए भारतीय तंत्र कमजोर क्यों साबित हो रहा है? जम्मू में धर्म और संप्रदाय के नाम पर फैलाई गई उत्तेजना से आगामी विधानसभा चुनाव में किसी भी दल को नफा-नुकसान हो, असली खामियाजा राष्ट्र को भुगतना पड़ेगा।

कश्मीर को अलग-थलग करने पर अमरनाथ या श्रीनगर-गुलमर्ग के गौरव का क्या होगा? यह तर्क कितना अजीब है कि जम्मू-कश्मीर के लिए प्रति व्यक्ति 9,754 रुपए के हिसाब से केंद्र सरकार का खर्च भारी बोझ है। इस बात की गारंटी कौन देगा कि कश्मीर में जनमत संग्रह या उसके विभाजन के बाद आतंकवादी हमलों के कारण भारत की जनता को हथियारों पर इससे अधिक खर्च नहीं करना पड़ेगा?

  जम्मू-कश्मीर के कुछ इलाके दूरगामी सामरिक दृष्टि से महाशक्तियों के लिए बेहद महत्वपूर्ण हैं। इन इलाकों को खुला छोड़ने से भारत के लिए अंतरराष्ट्रीय खतरे बढ़ जाएँगे       
जम्मू-कश्मीर में अशांति और उसके विभाजन से पड़ोसी पाकिस्तान ही नहीं, चीन और अमेरिका को भी इस क्षेत्र में अपने अड्डे बनाने में आसानी होगी। अफगानिस्तान में तालिबानी आतंकवाद और फिर अमेरिकी सेना की उपस्थिति से भारत को अब तक क्या लाभ मिल गया?

जम्मू-कश्मीर के कुछ इलाके दूरगामी सामरिक दृष्टि से महाशक्तियों के लिए बेहद महत्वपूर्ण हैं। इन इलाकों को खुला छोड़ने से भारत के लिए अंतरराष्ट्रीय खतरे बढ़ जाएँगे। पं. नेहरू और इंदिरा गाँधी ने जरूरत पड़ने पर कठोर अलोकतांत्रिक कदम उठाकर भी इस क्षेत्र को सुरक्षित रखा।

कश्मीर में लोकतंत्र और मानव अधिकारों की दुहाई देने वाले इस बात को कैसे नजरअंदाज कर रहे हैं कि सड़कों पर जुटाई जाने वाली भीड़ या धार्मिक उन्माद असली गरीब कश्मीरी अवाम की आकांक्षाओं को प्रतिबिंबित नहीं करता। कश्मीर के अलग होने पर किसी सिरफिरे तानाशाह और अराजक तालिबानी शासन न होने की गारंटी भी कोई नहीं दे सकता।

  कश्मीर में लोकतंत्र और मानव अधिकारों की दुहाई देने वाले इस बात को कैसे नजरअंदाज कर रहे हैं कि सड़कों पर जुटाई जाने वाली भीड़ या धार्मिक उन्माद असली गरीब कश्मीरी अवाम की आकांक्षाओं को प्रतिबिंबित नहीं करता      
सबसे आश्चर्यजनक बात यह है कि राष्ट्रवाद की बात करने वाले भाजपा के समझदार नेता भी तात्कालिक मोह-माया में फँस गए हैं। आखिरकार, आगरा में अटल-मुशर्रफ वार्ता के समय भी कुछ सलाहकारों ने भारत-पाकिस्तान (खासकर जम्मू-कश्मीर क्षेत्र में) के बीच नई विभाजन रेखा तय करने, कुछ क्षेत्र देने-लेने के प्रस्ताव सामने रखे थे।

तब इन्हीं लालकृष्ण आडवाणी और उनके कुछ वरिष्ठ साथियों ने इन प्रस्तावों को कड़ाई से ठुकराने में अहम भूमिका निभाई थी। आज जम्मू के लोगों की भावनाओं के नाम पर विभाजन की हद तक जाने वाली गतिविधियों को वे कैसे बर्दाश्त कर रहे हैं।

हुर्रियत ने आज श्रीनगर में संयुक्त राष्ट्र कार्यालय तक मार्च किया, कल वे दिल्ली या न्यूयॉर्क में दबाव बनाएँगे, लेकिन भाजपा या कांग्रेस अथवा अन्य जिम्मेदार दलों को इस नाजुक घड़ी में भारत की एकता तथा अखंडता के लिए क्या एकजुट होकर प्रयास नहीं करने चाहिए?

ऐसा नहीं हुआ, तो आने वाले वर्षों में नगालैंड, मणिपुर या अन्य सीमावर्ती राज्यों में जन-भावनाओं, क्षेत्रीय या धार्मिक उन्माद की स्थिति बनने पर क्या भारत के नाजुक अंगों को काटते रहना किसी को स्वीकार होगा?

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