न्यायपालिका से टकराव या सहयोग

डॉ. नरेन्द्र गौरहा
लोकतंत्र में न्यायालय के फैसलों के खिलाफ बावेला मचाना स्वस्थ प्रजातांत्रिक व्यवस्था के लिए ठीक नहीं है। अक्सर मशहूर हस्तियों या उनसे जुड़े लोगों के मामलों में न्यायपालिका पर उँगलियाँ उठाई जाती हैं। अगर न्यायपालिका-कार्यपालिका में संबंध प्रगाढ़ होंगे तो इसका लाभ सबको नहीं मिलेगा, बल्कि न्याय के लिए विश्वास का संकट खड़ा हो जाएगा। बेहतर यही है कि कार्यपालिका, न्यायपालिका में टकराव की स्थिति बनने ही न दी जाए। इसी से लोकतांत्रिक व्यवस्था सुदृढ़ होगी।

उच्चतम न्यायालय या उच्च न्यायालय जब भी सांसद या मंत्री का फैसला सुनाते हैं तो काफी बावेला मचता है। यहाँ तक कि लोकतंत्र को भी खतरा है, बताया जाता है। यह सच है कि विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका लोकतंत्र के स्थायी स्तंभ हैं। रहा सवाल इन के बीच टकराव का तो किसी भी तरह से कार्यपालिका-न्यायपालिका के संबंध प्रगाढ़ या सहयोगात्मक नहीं होना चाहिए। अगर ऐसा होगा तो मंत्री, सांसद या असरदार लोगों का बचना आसान हो जाएगा। फिर किसी केंद्रीय मंत्री (शिबू सोरेन) को हत्या के मामले में सजा देना मुश्किल हो जाएगा। जेसिका लाल का हत्यारा मनु शर्मा इसलिए बच सकता है कि वह किसी रसूखदार राजनेता का बेटा है। मेरे विचार से यह कोई टकराव नहीं, बल्कि आपराधिक निरंकुशता पर कानून का नियंत्रण है। चर्चित मामलों में कार्यपालिका, न्यायपालिका के बीच जितना ज्यादा टकराव होगा, देश के स्वास्थ्य के लिए उतना ही अच्छा होगा।

ऐसे भी विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका लोकतंत्र के तीन स्तंभ अवश्य हैं, परंतु इन स्तंभों की स्थिति और स्वरूप एक समान नहीं है। तीनों का स्थान समानांतर धरातल पर नहीं है। न्यायपालिका का स्थान विधायिका और कार्यपालिका से एकदम अलग है। न्यायपालिका का काम विधायिका और कार्यपालिका के कार्यों की न्यायिक समीक्षा कर सही और गलत को स्पष्ट करना है। जब न्यायपालिका का काम ही समीक्षा करना है, तब उनमें सहयोग कैसे होगा। सहयोग होने पर न्यायपालिका निष्पक्ष समीक्षा कैसे करेगी।

कार्यपालिका के किसी कार्य को न्यायपालिका द्वारा सही ठहराए जाने पर कार्यपालिका एवं विधायिका प्रसन्ना रहते हैं, परंतु उनके किसी कार्य को गलत कहने पर टकराव की बात कही जाती है। संविधान के अनुच्छेद 122 में प्रावधान है कि संसद अपने कार्य के लिए स्वतंत्र है तथा न्यायालय उसमें दखल नहीं दे सकता, परंतु यह कौन देखेगा कि सांसद तथा संसद संवैधानिक मर्यादाओं का पालन करते हुए अपने अधिकार का उपयोग कर रहे हैं या नहीं। यह अधिकार न्यायपालिका के ही पास है। संविधान के अनुच्छेद 132 के अनुसार संवैधानिक प्रावधानों की व्याख्या का अधिकार मात्र उच्चतम न्यायालय को ही है। उच्चतम न्यायालय संवैधानिक प्रावधानों के सही या गलत के परिपालन की व्याख्या करता है। तब यह कहना कि संसद के किसी कार्य या निर्णय पर न्यायालय को संवैधानिक अधिकार नहीं है, यह एकदम गलत है। संवैधानिक प्रावधानों की व्याख्या का अधिकार संविधान ने उच्चतम न्यायालय को दिया है, बल्कि संविधान ने यह अधिकार संसद को नहीं दिया है। उच्चतम न्यायालय यदि अपने संवैधानिक उत्तरदायित्व का पालन करता है- तब यह टकराव कहाँ हुआ। यदि यह टकराव है, तो यह टकराव और भी अधिक होना चाहिए। टकराव जितना अधिक होगा, उतनी ही मात्रा में कार्यपालिका की निरंकुशता पर विराम लगेगा।

किसी समाज की सामाजिक व्यवस्था का वांछित विकास नैतिक मापदंडों के निर्वाह पर निर्भर करता है। लाभ के पद के मामले में सांसदों ने तो नैतिकता को ही ध्वस्त कर दिया। नैतिकता के नाम पर सोनिया गाँधी ने लोकसभा से इस्तीफा दे दिया। पूरे देश में उनके उच्चनैतिक मापदंडों का खूब प्रचार किया गया। इस्तीफा देने के बाद रायबरेली में उपचुनाव हुआ। सोनिया गाँधी पुनः जीतकर आ गईं। उसके कुछ दिन बाद संसद ने लाभ के पद की परिभाषा ही बदल दी और उन सभी पदों को लाभ के पद के दायरे से अलग कर दिया जिसे अब तक लाभका पद माना जाता था। बाकी मामलों में विभिन्ना पार्टी के सांसदों में तू-तू मैं-मैं होती है, परंतु लाभ के पदों का दायरा बढ़ाने में सब सांसद एक हो जाते हैं। बस अपने हित के लिए उन्होंने एक कानून बना दिया, जिसे पहले लाभ का पद माना जाता था, कानून बन जाने परउसे लाभ का पद नहीं माना जाएगा। अगर ऐसा करना ही था तो नैतिकता के नाम पर सोनिया गाँधी ने इस्तीफा ही क्यों दिया? रायबरेली में उपचुनाव कराने में हुए करोड़ों रुपए का खर्च बच जाता।

सांसदों के नैतिक पतन को स्तंभित कर देने वाली यह घटना है- प्रश्न पूछने के नाम पर सांसदों द्वारा पैसा लिया जाना। यह स्पष्ट रूप से घूस का आपराधिक मामला है। आपराधिक मामलों में फैसले का अधिकार संसद को नहीं है। संविधान ने यह अधिकार मात्र न्यायालय को दियाहै। संविधान के अनुच्छेद 142 में यह स्पष्ट उल्लेख है कि 'पूर्ण न्याय' के लिए उच्चतम न्यायालय जो फैसला देगा, वह फैसला संसद के द्वारा बनाए गए कानून के समान प्रभावी होगा। संविधान ने संसद को ऐसा कोई अधिकार नहीं दिया है जिसमें किसी मामले का वह निर्णय करे और उसके निर्णय को उच्चतम न्यायालय (सुप्रीम कोर्ट) के निर्णय के समान माना जाए। संवैधानिक प्रावधानों से स्पष्ट है कि कार्यपालिका तथा न्यायपालिका दोनों की स्थिति समान धरातल पर नहीं है। संवैधानिक कार्य तथा उत्तरदायित्व की व्याख्या का अधिकार मात्र न्यायपालिका को है- संसद को नहीं। अपने संवैधानिक उत्तरदायित्व के निर्वाह में न्यायालय यदि सांसद एवं संसद के नैतिकताविहीन निर्णय पर अंकुश लगाता है- तो वह टकराव नहीं, वरन समाज की विधि एवं नैतिक व्यवस्थापन की दिशा में एक प्रशंसनीय कदम है। टकराव की बात उछालकर हो-हल्ला मचाने वाले न्यायालय को आतंकित करने का प्रयास कर रहे हैं। सामाजिक एवं नैतिक व्यवस्था का स्थान किसी सांसद के व्यक्तिगत हित की तुलना में बहुत ऊपर है। ऐसे मामलों में न्यायपालिका का कार्यपालिका से सहयोग अपेक्षित नहीं है। नैतिक मापदंडों के अनुरूप विधिसम्मतव्यवस्था बनाए रखने का उत्तरदायित्व न्यायालय का है।

इस स्थिति को प्राप्त करने के लिए सख्त न्यायालयीन निर्णय समय की अनिवार्य आवश्यकता है। न्यायालय का यह विधिसम्मत दखल कुछ लोगों के लिए टकराव जरूर प्रतीत होता है, तब कि समाज हित में यह टकराव होने दीजिए। सामाजिक हित का स्थान व्यक्तिगत हित से बहुत ऊँचा है और इसे बनाए रखना हम सबका सामाजिक एवं संवैधानिक उत्तरदायित्व है।
( लेखक रविशंकर शुक्ल विवि रायपुर के पूर्व कुलपति हैं)

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