यदि हिन्दू धर्म की सनातनी व्याख्या में नहीं पड़ा जाए तो इतिहास कहता है कि सनातन धर्म को मठों में विभाजित कर देश के 4 कोनों में स्थापित करने की नई परंपरा इस देश को आद्य गुरु शंकराचार्य की ही देन है। फिर भले ही वह देश में एकता की स्थापना और उसे अक्षुण्ण बनाए रखने के उद्देश्य से चलाई गई थी। लेकिन उस दौर से लेकर आज तक वह परंपरा मठों और मठाधीशों की मठागिरी में उलझकर रह गई है।
एक तरह से अब यह केवल शंकराचार्यों की सियासत की नई परंपरा बन गई है, जो कभी सनातन नहीं थी और उसका एक इतिहास रहा है। अत: हमें यह कहने से कोई गुरेज नहीं होना चाहिए कि शंकराचार्य का सांई बाबा पर बयान एकता के उद्देश्य से बनाई गई पीठ और मठ की परंपरा से इतर आज के दौर में मठ के अर्थ से निकला एक सियासी बयान है।
बहरहाल, इतिहास का यह छोटा-सा संदर्भ इसलिए कि इसके परिप्रेक्ष्य में ताजा विवाद हमें इस देश में कभी भक्ति आंदोलन की अनूठी और बड़ी ही महत्वपूर्ण धारा की ओर ले जाता है।
भक्ति आंदोलन के रचनाकारों ने भक्ति काव्य के जरिए सांस्कृतिक क्षेत्र में एक तरह से नवजागरण की चेतना फूंकी और समाज को जाति-प्रथा, छूआछूत जैसी कुप्रथाओं से बाहर निकालने की शुरुआत की।
यदि इस मामले में हम थोड़ा-सा आगा-पीछा करें यानी कि सिद्धों, नाथों व योगियों की परंपरा में भी झांकें तो हमारे यहां सिद्धों और नाथ योगियों की परंपरा का बेहद महत्वपूर्ण स्थान रहा है।
सिद्ध और नाथ इस देश की सांस्कृतिक परंपरा में वे लोग रहे, जो न तो मुसलमान रहे और न हिन्दू। उनका कोई पंथ नहीं था। और जो था वह लोगों को सामंतशाही, शोषण और धर्म के नाम पर बढ़ते अंधविश्वास को रोककर जनता को सच्ची ईश्वर भक्ति की ओर प्रेरित करता था।
गोरखनाथ और उनका समय इस धारा का हमें आरंभ बताता है, जब नाथ मुसलमानों के बाह्याचार और हिन्दुओं के धार्मिक पाखंड, सांस्कृतिक और सामाजिक रूढ़िवाद पर कटाक्ष करने लगे थे।
कमाल की बात है कि नाथों की इसी परंपरा से भारतीय दार्शनिक, आध्यात्मिक परंपरा का सबसे बड़ा सुधारवादी नायक कबीर हमारे सामने आता है जिसके धर्म, जाति के बारे में तो छोड़िए- जन्म और मृत्यु भी रहस्य बने रहे और आज तक उसे लेकर विद्वानों में मतभेद है।
यही नहीं, कबीर के धर्म को लेकर भी मुसलमान और हिन्दू आज तक एकमत नहीं हुए जबकि कबीर के दोहों में छिपा आद्य गुरु शंकराचार्य के अद्वैतवाद से अलग एकेश्वरवाद है। फिर यहां यह भी नहीं कह सकते हैं कि कबीर अपने जीवन में केवल नाथपंथी होकर रह गए। हां, उसे हम प्रभाव मान सकते हैं, लेकिन न तो वे हठयोगी रहे, न बौद्ध।
कबीर सभी के रहे अर्थात उस जनमानस के, जो धार्मिक पाखंड से छला जा रहा था, छुआछूत, जाति-प्रथा और कठमुल्लेपन का शिकार था और वास्तव में ईश्वर अपने भीतर तलाशना चाहता था।
कबीर का संदर्भ यहां इसलिए कि कबीर भक्ति आंदोलन की जिस निर्गुण धारा में बह रहे थे उसी में दादू दयाल, गुरु नानक, बाबा फरीद बह रहे थे। दरअसल, उसके कई सौ सालों बाद ही महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले में शिर्डी गांव के सांई बाबा उसके संवाहक बने।