शुक्रवार से नवरात्रि शुरू हो रही है। देवी आराधना के इस पर्व में यह प्रासंगिक ही होगा कि परिवारों, समाज और देश की सुख-समृद्धि तभी आएगी जब कोई 'दुर्गा' उनके घर में जन्म ले। ज्यों-ज्यों यह बेटी बड़ी होती जाएगी, त्यों-त्यों आर्थिक समृद्धि का सूचकांक भी बढ़ता जाएगा।
गत सप्ताह गाँधी जयंती के मौके पर राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल के बालिका बचाओ एवं पूर्व राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम के राष्ट्रीय समृद्धि के सूचकांक के संबंध में दिए गए संबोधनों में समाहित के अंतरबोध ने मानस के इस प्रसंग की याद दिला दी।
( अर्थात जब से हिमाचल के घर पार्वती का जन्म हुआ तब से सुख-समृद्धि वहाँ आई)
प्रसिद्ध उर्दू शायर बशीर बद्र ने लिखा है-
वो शाख है न फूल, अगर तितलियाँ न हों। वह घर भी कोई घर है, जहाँ बच्चियाँ न हों। दुश्मन को भी खुदा ऐसा मकां न दे ताजी हवा की जिसमें खिड़कियाँ न हों।
बेटी के जन्म के साथ समृद्धि आने का संकेत सामाजिक शोधकर्ताओं का एक महत्वपूर्ण विषय हो सकता है, लेकिन समृद्ध देशों के इतिहास ने यह अवश्य रेखांकित किया है कि वहाँ सकल आबादी में महिलाओं का अनुपात अधिक है। प्रति एक हजार पुरुषों पर जहाँ भारत में केवल 933 महिलाएँ हैं, वहीं दूसरी ओर रूस में 1140, जापान में 1041, अमेरिका में 1029 महिलाएँ हैं।
सन 1901 के अँधेरे युग में जब भारतीय समाज में पर्दा, सती, बाल विवाह जैसी कुप्रथाएँ व्याप्त थीं, स्त्री शिक्षा लगभग नहीं थी और स्त्रियों के लिए पौष्टिक आहार का नितांत अभाव था, हजार पुरुषों के मुकाबले स्त्रियों की संख्या 972 थी। नब्बे के दशक को बालिका दशक घोषित कर दिया गया, फिर भी कुछ बेहतर लक्षण सामने नहीं आए।
विचित्र बात तो यह है कि इसी अवधि में पंजाब, हरियाणा, गुजरात और दिल्ली जैसे संपन्न राज्यों में बेटों पर बेटियों की संख्या 945 से घटकर क्रमशः 793, 820, 828 और 865 रह गई। क्या संपन्नाता और बेटियों की गुमशुदगी के बीच कोई घिनौना रिश्ता है? क्या संपन्नाता सदियों पुराने लैंगिक भेदभाव को हकीकत में बदलने का माध्यम बन गई है? न जाने कब पुत्र-मोह की सामंती चाह के प्रति हमारी सोच बदलेगी।
दूसरी ओर, विकास की दौड़ में पीछे रह गए देश के दस जिले स्त्री संख्या में आगे निकल गए। पूर्वोत्तर में पाँच, जम्मू-कश्मीर के तीन और छत्तीसगढ़ के दो जिले ऐसे हैं, जहाँ आर्थिक विकास की किरणें नहीं पहुँचीं, लेकिन लड़कियों की जन्म से पहले हत्या करने की कुटिलता भी नहीं पहुँची।
इन सभी जिलों में प्रति हजार बेटों पर बेटियों की संख्या एक हजार से ज्यादा है। इन जिलों में काफी गरीबी है और स्वास्थ्य सेवाओं का विस्तार भी नहीं हुआ है। यहाँ लोगों को यह भी नहीं पता कि कोई ऐसी मशीन होती है, जो गर्भस्थ कन्या शिशु की जाँच कर सके, लेकिन हैरत की बात यह है कि पहाड़ों में लड़कियों की संख्या घटने लगी है।
तमिलनाडु में कल्लार और तोड़ा जातियों में, राजस्थान और हरियाणा की कई जातियों में नवजात कन्याओं की हत्या का इतिहास रहा है। तमिलनाडु के एक सुदूर गाँव में समवेत स्वरों में गाए जाने वाले गीत का भाव है, 'माँ, ससुराल भेजने से पहले तुमने मुझे श्मशान भेज दिया। गर्भनाल काटने से पहले ही तुमने मेरा गला घोंट दिया।'
यह क्रूर विडंबना है कि आख्यानों और पौराणिक कथाओं के माध्यम से हम स्त्री को सरस्वती मानकर ज्ञान का वरदान माँगते हैं, लक्ष्मी बनाकर संपदा का आग्रह करते हैं और दुर्गा का रूप अनुष्ठान करते हैं। लेकिन दूसरी ओर घर की साक्षात दुर्गा और देवी को संसार में नहीं आने देते।
आज स्थिति यह है कि स्त्री को पूजेंगे भी और मारेंगे भी, क्योंकि विज्ञान ऐसे लोगों के साथ है और तकनीक सर्वशक्तिमान है। पिछले सौ वर्षों में इतना फर्क पड़ा है कि जन्म के पहले बेटी को संसार से विदा करने की जिम्मेदारी अशिक्षित लोगों पर थी, लेकिन अब भ्रूण हत्या के इस खेल में शिक्षित खिलाड़ी भी लगे हैं। भ्रूण हत्या का चलन अब कम होता जा रहा है और विज्ञान की मदद से मादा भ्रूण हत्या का चलन बढ़ता जा रहा है।
ऐसा भी नहीं कि ऐसे लोगों को अपराधबोध न हो, लेकिन यह अपराधबोध महिलाओं की बदहाली और विभिन्न सामाजिक कुरीतियों में खो जाता है, जहाँ कन्या के जन्म को स्वागतयोग्य नहीं मानने की मानसिकता बनती है। कैसी क्रूर नियति है कि गाँवों में चाहे चिकित्सा, बिजली, पानी की सुविधा न हो, लेकिन लिंग निर्धारण और मादा भ्रूण हत्या की समझ वहाँ पहुँच चुकी है।
राष्ट्रीय स्तर के एक अध्ययन के अनुसार पिछले दशक में अकेले मुंबई नगर में भ्रूण हत्या के चालीस हजार मामले सामने आए। उनमें से सोलह हजार एक ही क्लिनिक में थे। कुछ समय पूर्व तक उत्तर भारत के कुछ राज्यों के क्लिनिकों के बाहर लगे बोर्ड पर लिखा होता था कि 'पाँच हजार लगाओ, पचास हजार बचाओ'। विज्ञान की आँख गर्भ में ही भ्रूण का सूक्ष्मतम रूप देख लेती है।
क्रोमोसोम विभाजन यह निश्चित कर देता है कि सूक्ष्मतम रूप कोशिका भी बन न पाए। ऐसे वैज्ञानिक तरीके चिकित्सा जगत ने ढूँढ लिए हैं, जिनसे गर्भ में लिंग का पता लगाया जा सकता है। ऐसे पुरुषों को नन्ही-मुन्नी बेटी का बचपन नहीं चाहिए जो नन्ही मुट्ठियों से उसे सिर के बाल फँसवाने का सुख, दूध के दाँतों से उँगली कटवाने का शौक, सीने पर मीठे बोझ का सुखद अहसास दे सके।
डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम ने जिस राष्ट्रीय समृद्धि सूचकांक का सुझाव दिया है उसके महत्वपूर्ण और निर्णायक घटक बालिका बचाना तो है ही, साथ ही बालिका शिक्षा, स्वास्थ्य और बालिका बड़ी होने पर महिला सशक्तीकरण का भी है। नवीनतम जनगणना के आँकड़ों के अनुसार भारत की कार्यशील आबादी में महिलाओं का प्रतिशत 35 है।
विभिन्न अध्ययनों ने यह साबित किया है कि कृषि उत्पादन और उत्पादकता में महिलाओं का योगदान 60 प्रतिशत है। कृषि खेतों में पौधे रोपने, निंदाई, गुड़ाई, फसल काटने-बीनने में महिलाओं के योगदान के बिना कृषि विकास की कल्पना भी नहीं की जा सकती। लेकिन इतने बड़े योगदान के बावजूद एक वर्ष की अवस्था से कम की 1000 बालिकाओं में 65 काल का ग्रास बनती हैं।
कॉपरेटिव एंड अमेरिकन रिलीफ एवरीवेयर (केयर) संस्था द्वारा कुपोषण के संबंध में किए गए सर्वेक्षण के संबंध में पाया गया कि पंजाब में 71 प्रतिशत बालिकाएँ कुपोषण से ग्रस्त हैं। खून की कमी और कुपोषण के कारण 40 प्रतिशत की मृत्यु प्रसवकाल में होती है। ऐसी स्थिति में भला आर्थिक समृद्धि की मजबूत नींव कैसे रखी जा सकती है।
ज्ञातव्य है कि मध्यप्रदेश और तमिलनाडु ने प्रसवकाल में सुरक्षित प्रसव सुनिश्चित करने के लिए प्रशंसनीय कदम उठाए हैं। स्त्री शिक्षा की स्थिति यह है कि जहाँ केरल तमिलनाडु, महाराष्ट्र और गुजरात में क्रमशः 87.9, 64.5, 67.5 और पंजाब में 63.6 प्रतिशत स्त्रियाँ शिक्षित हैं, वहीं दूसरी ओर मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, राजस्थान और बिहार में क्रमशः 50.3, 43.0, 44.3 और 33.6 प्रतिशत स्त्रियाँ ही शिक्षित हैं।
उल्लेखनीय है कि शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं के उन्नायन के कारण राष्ट्रीय मानव विकास सूचकांक में केरल शीर्ष स्थान पर है। जबकि दूसरी ओर मानव संसाधन सूचकांक के मापदंड के अनुसार मप्र, राजस्थान, उत्तरप्रदेश, बिहार जैसे राज्य भी हैं, जो उच्च उत्पादन क्षमता होते हुए भी आर्थिक विकास की दौड़ में पीछे हैं।
राजस्थान में कुछ गाँव तो ऐसे हैं जहाँ बरसों से कोई बारात ही नहीं आई है। दरअसल, बालिका बचाओ के साथ-साथ सामाजिक क्षेत्रों में स्त्रियों की शिक्षा, स्वास्थ्य सशक्तीकरण जैसी आवश्यकताओं की पूर्ति किए बिना आर्थिक समृद्धि की कल्पना नहीं की जा सकती। ऐसे पिता जो बालिकाओं को पराया धन मानते हैं और दहेज जुटाने की चिंता करते हैं, को भली-भाँति समझना होगा कि उनकी और देश की सुख-समृद्धि तभी आएगी, जब कोई उमा उनके घर में जन्म ले और ज्यों-ज्यों यह बेटी बड़ी होती जाएगी, त्यों-त्यों आर्थिक समृद्धि का सूचकांक भी बढ़ता जाएगा।