आज देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ अपराधी, पूंजीपति व शासक वर्ग किस तरह खेल रहे हैं, यह सब जानते हैं। महात्मा गांधी का कहना था कि पत्रकारिता को हमेशा सामाजिक सरोकारों से जुड़ा होना चाहिए, चाहे इसके लिए कोई भी कीमत चुकानी पड़े।
आज भारत में 60 हजार से ज्यादा अखबार तथा 600 से ज्यादा टीवी चैनल्स मौजूद हैं पर फिर भी किसी को मानवीय और सामाजिक मूल्यों से कोई सरोकार नहीं रहा, बल्कि आज देश की हर गली-मुहल्ले में लाखों छुटभैये पत्रकार दिखाई देने लगे हैं।
इनकी रगों में वैसे भी पत्रकारिता का कोई कण दिखाई नहीं देता मगर आज के यह पत्रकार स्वार्थवश पत्रकार बन बैठे हैं।
देश के कई अच्छे व नामी पत्रकारों को हाशिए पर डाल दिया गया है। इसी बाजारवाद के कारण पत्रकारिता अपने सरोकारों व कर्तव्यों को भूलकर महज एक व्यवसाय बनकर रह गई है और साथ ही साथ मीडिया राजनीतिक तंत्र का जीता जगता हथियार भी बन गया है, जिसमें राजनीतिक तंत्र ने भारतीय मीडिया का जब चाहे, जहां चाहे उपयोग किया है और बदले में ये राजनीतिक तंत्र मीडिया घरानों, प्रबंधकों व संपादकों की आवश्यकताओं की पूर्ति प्रमुखता से करता आया है।
ळहमारा मीडिया चाहे प्रिंट हो या इलेक्ट्रानिक केवल सामाजिक सरोकारों का दंभ भरता हैं, कोई भी समाज में व्याप्त बुराइयों को दूर करने का प्रयास नहीं करता। बस केवल सरकार की कमियों का हवाला देकर अपना पल्ला झाड़ लेता है और इसी बाजारीकरण को मीडिया टीआरपी का नाम देता है।
जो अन्ना हजारे से लेकर रामदेव तक के मसले को फुल कवरेज देता है, जिससे रामदेव जैसे व्यक्तियों के साथ अख़बार व इलेक्ट्रॉनिक मीडिया खुद की टीआरपी बढ़ा पाते है, मगर इसका प्रभाव करीब एक अरब से ज्यादा भारतीयों पर किस ढंग से पड़ता है इसका अनुमान भारतीय मीडिया नहीं लगा पाता और वह मानवीय मूल्यों को नकारता चला जाता है, यही कारण है कि पत्रकार बनना जितना आसान होता है, पत्रकारिता का निर्वाहन करना उतना ही कठिन होता है….।
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