मुद्रा आवागमन का पिंडारीकरण

विष्णुदत्त नागर
गत सप्ताह वित्तमंत्री पी. चिदम्बरम ने रुपए की पूर्ण परिवर्तनीयता की वकालत करते हुए कहा कि दुनिया के सभी विकसित देशों में उनकी मुद्राएँ पूर्ण परिवर्तनीय हैं, इसलिए यदि हमें भी विकसित होना है तो पूँजी खाते को पूर्ण परिवर्तनीय बनाना होगा।

पूर्ण परिवर्तनीयता के पक्ष में यह भी कहा जा रहा है कि जहाँ हांगकांग और सिंगापुर में विदेशी निवेश सकल घरेलू उत्पाद का क्रमशः 299.9 और 158.6 है, वहाँ भारत में केवल 5.8 प्रतिशत है। पिछले दिनों तारापोर समिति (द्वितीय) ने आगामी पाँच साल के दौरान तीन चरणों में रुपए को पूरी तरह परिवर्तनीय बनाने के लिए जो सुझाव दिए हैं, उनसे यह आशंका हुई है कि देश के पूँजी बाजार और जमीन-जायदाद (रियल इस्टेट) विदेशी पूँजी की गिरफ्त में आ जाएँगे।

समिति के सुझावों के अनुसार पूर्ण परिवर्तनीयता की दिशा में पहला चरण इसी वित्त वर्ष में शुरू किया जा सकता है, उसके बाद 2007 से 2009 तक दूसरे चरण में और 2011 तक तीसरे चरण को पूरा किया जा सकता है। समिति ने कहा है कि इस दौरान विभिन्ना आर्थिक गतिविधियों पर नजदीकी से नजर रखते हुए नागरिकों, कंपनियों और बैंकों से विदेशों में पूँजी के उदार निवेश की निगरानी के मजबूत उपाय करने होंगे।

आमतौर पर यह माना गया है कि जब भी आम नागरिकों के लिए पूँजीगत खाते में बाहरी निवेश को उदार बनाया गया है, तब देश के अंदर निवेश आने में कमी नहीं आती है। इसी सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए समिति ने व्यक्तिगत तौर पर एक कैलेंडर वर्ष में विदेशों में राशि ले जाने की वर्तमान 25,000 डॉलर की सीमा को चरणों में 2011 तक बढ़ाकर ढाई लाख डॉलर तक ले जाने, कंपनियों के विदेशों में निवेश की शर्तों को और आसान बनाने की सिफारिश की है।

रुपए की पूर्ण परिवर्तनीयता पर विदेशी शेयर बाजारों तथा दूसरे पूँजी माध्यमों में निवेश ज्यादा आसान होगा। व्यक्तिगत तौर पर भी भारतीय नागरिक विदेशों में पूँजी में निवेश कर सकेंगे। साथ ही देश में भी विदेशी पूँजी निवेश में और तेजी आ सकती है। समिति की सिफारिशों पर यदि अमल किया गया तो विदेशों में अधिक धन ले जाने के साथ-साथ भारतीय दुनिया में कहीं भी अपना खाता खोल सकेंगे।

भारतीय पूँजी बाजार में विदेशों से कोई भी निवेश कर सकेगा। अभी तक केवल विदेशी संस्थागत निवेशकों को ही निवेश की अनुमति है, लेकिन पूँजी खाते में पूरी परिवर्तनीयता के बाद विदेशों से कोई भी व्यक्ति यहाँ निवेश कर सकेगा। घरेलू कंपनियाँ और बैंक विदेशों से बड़ी मात्रा में कर्ज उठा सकते हैं और विदेशी कंपनियाँ भी भारत से रुपए में उधारी उठा सकती हैं।

पूँजी को विदेश ले जाने की सीमा धीरे-धीरे बढ़ाने का भी सुझाव दिया गया है। समिति ने यह सिफारिश की है कि प्रथम चरण के दौरान शुरू में भारतीय रिजर्व बैंक को प्रत्येक मामले में ऐसी नीतियाँं विकसित करनी चाहिए जिससे औद्योगिक घरानों, भारतीय बैंकों की इक्विटी में भागीदारी कर सकें या नई बैंक चालू कर सकें। नरसिम्हम्‌ समिति के इस सुझाव को भी समिति ने रेखांकित किया है कि सरकार को सार्वजनिक बैंकों में इक्विटी भागीदारी 33 प्रतिशत तक सीमित कर देना चाहिए।

लेकिन सरकार को पूँजी खाते में रुपए को पूर्णतः परिवर्तनीय बनाने के पूर्व तीन सावधानियाँ अपनानी होंगी। पहली, जमीन-जायदाद और अचल समिति में निवेश केवल भारतीय मूल के लोगों के लिए ही निर्धारित करना चाहिए। दूसरी, देश में दो सौ अरब डॉलर के स्वर्ण स्टॉक को विनिमय संकट से बचने के लिए उपयोग करना चाहिए। तीसरी, सरकार और राजकोषीय घाटा सकल घरेलू उत्पाद घटकर 3 प्रतिशत से नीचे लाना चाहिए।

भारतीय अचल संपत्ति और जमीन-जायदाद में केवल भारतीय मूल के लोगों के लिए सीमित रखने का उद्देश्य यह है कि विदेशी निवेश करने से जहाँ एक ओर जमीन-जायदाद और अचल संपत्ति की आसमान छूती कीमतें विदेशी निवेश के लिए खोलने के बाद निवेश उन ऊँचाइयों को छू लेगी, जहाँ भारतीय नागरिकों के लिए निवेश पहुँच से बाहर हो जाएगा। सिंगापुर का उदाहरण हमारे सामने है, जहाँ लोग जमीन-जायदाद के माध्यम से कमाई नहीं कर सकते।

पुनः बेचने की स्थिति में लोगों को अपने फ्लैट्स और मकान सरकारी एजेंसियों को ही बेचने होते हैं। विदेशी निवेश के लिए भारतीय अचल संपत्ति को खरीदने का अर्थ यह भी होगा कि आगामी पीढ़ियों को डॉलर में विदेशियों को किराया देना होगा।

दिलचस्प तथ्य यह है कि देश का 200 अरब डॉलर का स्वर्ण स्टॉक सकल घरेलू उत्पाद का एक-तिहाई है और विश्व के सकल घरेलू उत्पाद का 18 प्रतिशत है, जबकि विश्व का उत्पाद केवल 1.6 प्रतिशत है। हाल ही के वर्षों में निर्यात के लिए निर्मित जवाहरात को छोड़कर भारतीय उपभोग करीब 57 प्रतिशत बढ़ा है।
यह उल्लेख करना प्रासंगिक होगा कि भारत में स्वर्ण स्टॉक अमेरिका के तेल रिजर्व के बराबर है। यदि इस स्वर्ण स्टॉक को बैंकिंग प्रणाली में लाया जाए तो विनिमय संकट को दूर करने के लिए नया कवच ही नहीं निर्मित होगा, बल्कि मुद्रास्फीति पर भी अंकुश लगाया जा सकेगा।

जहाँ तक समिति द्वारा विदेशों में भारतीयों के निवेश की सीमा 25 हजार से बढ़ाकर ढाई लाख करने का सुझाव है, इस दिशा में चीन का अनुभव अच्छा नहीं रहा है वहाँ से अवैध तरीके से पूँजी बाहर चली गई। पिछले दस वर्षों में हुई अर्जेंटीना और मैक्सिको की घटनाओं ने मुद्रा को पूर्ण परिवर्तनीय करने की दिशा में कुछ सबक छोड़ा है। 3 करोड़ 70 लाख की आबादी वाले अर्जेंटीना के ऊपर 140 अरब डॉलर का विदेशी ऋण है, लेकिन उसके पास कर्ज की किस्त और ब्याज चुकाने के लिए वित्तीय संसाधन नहीं है।

मैक्सिको में श्रम सस्ता था, इसलिए अमेरिका की बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने अपनी उत्पादन इकाइयाँ मैक्सिको में लगाईं। तेल की बढ़ती कीमतों से मैक्सिको की समृद्धि ने बहुराष्ट्रीय कंपनियों को बाजार दिया है और मैक्सिकोवासियों ने अपनी जीवनशैली अमेरिकी उपभोगवादी संस्कृति के अनुरूप ढाली।

लेकिन जैसे ही तेल की कीमतें गिरीं, मैक्सिको में राजनीतिक अव्यवस्था फैली, मैक्सिको की मुद्रा का अवमूल्यन हुआ और मुद्रा संकट गहराया। पूँजी पलायन ने मैक्सिको की अर्थव्यवस्था ध्वस्त कर दी। दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों में भी यही हुआ। हालाँकि विदेशी पूँजी के तौर-तरीके में कुछ बदलाव था।

विदेशी वित्तीय संस्थाओं ने दक्षिण अमेरिकी देशों में बैंकों और संस्थाओं को लंबे समय के उपयोग के लिए अल्प अवधि ऋण दिए। इन देशों में पर्यटन, होटल, उद्योग भवन निर्माण आदि की गतिविधियों ने जोर पकड़ लिया, लेकिन जैसे ही वित्तीय संस्थाओं ने अल्पअवधि के ऋण के भुगतान करने के लिए जोर डाला, इन देशों की समृद्धि के सपनों का महल ढह गया। साथ ही इन देशों के वित्तीय कुप्रबंधन ने भी पूँजी पलायन को बढ़ावा दिया और दक्षिण-पूर्व एशिया का मॉडल भी विकासशील देशों के लिए अप्रासंगिक हो गया।

इन कटु अनुभवों से यह भी सीखा जा सकता है कि विदेशी पूँजी पूरक की भूमिका निभा सकती है मुख्य भूमिका नहीं, सहारा दे सकती है सर्वेसर्वा नहीं। विदेशी निवेश को उस सीमा तक और दिशा तक ही स्वीकृति दी जाए, जो हमारे राष्ट्रीय वित्त और मौद्रिक व्यवस्थाओं को सुदृढ़ करने में बाधक न हो। हमें यह भी सुनिश्चित करना होगा कि देश की पूँजी बड़े पैमाने पर बाहर न जाए।

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