शहीदों के लिए मात्र पाखंड या नमन

आलोक मेहता
टेलीविजन के समाचार चैनलों पर समझदार प्रस्तुतकर्ता चीखते रहे- 'शर्म करो, शर्म करो। संसद पर हमले के दौरान हुए शहीदों को याद करने, फूल चढ़ाने के लिए 740 सांसद क्यों नहीं आए? उपराष्ट्रपति और विदेश मंत्री क्यों नहीं दिखाई दिए' वगैरह-वगैरह। टीवी चैनलों से प्रेरित कुछ पत्रकार मित्रों ने तीखी टिप्पणियाँ अखबारों में छाप दीं।

राजनीतिज्ञों की गड़बड़ियों और गैरजिम्मेदाराना रवैए की आलोचना करने वालों में हम भी
  सिनेमाघरों में राष्ट्रगान होने पर सावधान की मुद्रा में खड़े रहते थे लेकिन अब दिल्ली सहित देश के कई भागों में शहीद दिवस पर दो मिनट का मौन रखना दूर, कहीं कुछ थमा हुआ नहीं दिखता। गाँधी की पुण्यतिथि पर भी कितने सांसद अब राजघाट पहुँचते हैं      
पीछे नहीं रहे हैं। लेकिन इस मुद्दे पर 'शर्म करो' जैसी भर्त्सना कष्टदायक लगी। संसद और सांसदों की रक्षा करते हुए शहीद होने वाले वीर सिपाहियों के परिवारों की दशा पर 13 दिसंबर को हमने विशेष समाचार भी प्रकाशित किए। उनके प्रति जितना सम्मान दिखाया जाए, वह कम होगा। लेकिन क्या फूल चढ़ाने और शोकसभा में उपस्थित रहने से ही सही अर्थों में शहीदों के लिए सम्मान व्यक्त होता है?

विश्व में भारत संभवतः एकमात्र ऐसा देश है, जहाँ स्वतंत्रता आंदोलन या उससे पहले भी समाज और राष्ट्र की सेवा करते अनेक महापुरुषों, समाजसेवियों, राजनीतिक कार्यकर्ताओं, सामान्यजनों ने जीवन दाँव पर लगा दिया। गुरु गोविंदसिंहजी का परिवार, गुरु तेगबहादुर, गुरु अर्जन देव, महर्षि दयानंद, तात्या टोपे, झाँसी की रानी, चन्द्रशेखर आजाद और भगतसिंह, लोकमान्य बालगंगाधर तिलक, महात्मा गाँधी सहित पचासों नाम गिनाए जा सकते हैं। 1948, 1962, 1965, 1971 में पाकिस्तान और चीन के साथ हुए युद्धों अथवा हिमालय या हिन्द महासागर क्षेत्र में भारत की रक्षा करते हुए शहीद होने वाले सेनाधिकारियों तथा सैनिकों के नाम इतिहास में दर्ज हैं।

30 जनवरी को महात्मा गाँधी की पुण्यतिथि को तो शहीद दिवस के रूप में ही मनाया जाता है। वैसे भारतीय समाज और विश्व को नया ज्ञान देने वाले भगवान महावीर तथा गौतम बुद्ध की पुण्यतिथियों को भी देश विनम्रता के साथ याद करता है। पूर्वोत्तर और दक्षिण भारत में अथवा आदिवासी अंचलों में भारत के लिए समर्पित रहे शहीदों की सूची छोटी नहीं है। जिन आदर्शों, लक्ष्यों, समाज और राष्ट्र की परिकल्पना के लिए उन्होंने अपना जीवन दिया, उन्हें साकार करना क्या नमन के साथ अधिक महत्वपूर्ण नहीं है?

एक समय था जब हर साल 30 जनवरी को शहीद दिवस पर सुबह 11 बजे हमारे शहर में एक सायरन-सा बजता था और स्कूल-कॉलेजों में हम खड़े रहकर महात्मा गाँधी सहित भारत के शहीदों को दो मिनट का मौन रखकर श्रद्धांजलि देते थे। सिनेमाघरों में राष्ट्रगान होने पर सावधान की मुद्रा में खड़े रहते थे लेकिन अब दिल्ली सहित देश के कई भागों में शहीद दिवस पर दो मिनट का मौन रखना दूर, कहीं कुछ थमा हुआ नहीं दिखता। गाँधी की पुण्यतिथि पर भी कितने सांसद अब राजघाट पहुँचते हैं!

शहीद दिवस या शहीदों को श्रद्धांजलि देने वाले किसी टीवी चैनल की हमें दो मिनट के लिए कार्यक्रम थाम देने की कोशिश नहीं दिखाई दी। अधिक दुःख उस समय होता है जब महात्मा गाँधी की समाधि पर कोई विदेशी सैनिक तानाशाह, हजारों मासूम लोगों पर बम बरसाने वाले अमेरिकी नेता या ब्रिटिश या चीनी और उनके सेनाधिकारी औपचारिकता निभाने के लिए शीश झुकाते हैं।

भारत के भी कई नेता शहीदों की समाधि या धार्मिक उपासना स्थलों पर नमन करते हुए फूल
  उपराष्ट्रपति यदि किसी पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के कारण संसद भवन पहुँचकर शहीदों को फूल नहीं चढ़ा पाए तो यह निष्कर्ष कैसे निकल सकता है कि उनके मन में शहीदों के प्रति कोई सम्मान या चिंता नहीं है      
चढ़ाने का पाखंड करते हैं लेकिन उनका आचरण बिलकुल विपरीत, भ्रष्ट, आपराधिक तथा समाजविरोधी होता है। स्वामी दयानंद, स्वामी विवेकानंद, बाबा साहेब आम्बेडकर, जयप्रकाश नारायण, डॉ. हेडगेवार और पं. दीनदयाल उपाध्याय का नाम लेकर राजनीति करने वाले कुछ नेताओं की गतिविधियाँ किसी भी रूप में उनके आदर्शों के अनुरूप नहीं होतीं।

लेकिन पिछले 60 वर्षों में अच्छे राजनेताओं, सामाजिक कार्यकर्ताओं की भी अच्छी खासी संख्या रही है। वर्तमान संसद में भी कई ईमानदार, कर्तव्यनिष्ठ तथा योग्य सदस्य हैं। उपराष्ट्रपति यदि किसी पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के कारण संसद भवन पहुँचकर शहीदों को फूल नहीं चढ़ा पाए तो यह निष्कर्ष कैसे निकल सकता है कि उनके मन में शहीदों के प्रति कोई सम्मान या चिंता नहीं है।

असल में हमारे देश में आडंबर, पाखंड को बड़ी आसानी से गले उतार लिया जाता है। आचरण की अपेक्षा श्राद्धकर्म को अधिक महत्वपूर्ण माना जाता है। आजादी से पहले तो समाज में श्राद्धकर्म के लिए घर, जमीन बेच देने की घटनाएँ आम थीं। आजादी के बाद एक नया सिलसिला शुरू हुआ - हर उत्सव, त्योहार की तरह शहीदों के नाम पर छुट्टियाँ घोषित करवाने, मूर्तियाँ लगवाने और चंदा इकट्ठा कर कुछ आयोजन करने का।

सब अपनी दुकान चलाने लगे। ब्रिटेन, जर्मनी, अमेरिका, रूस, जापान, मिस्र, यूनान, क्यूबा, ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका जैसे देशों में स्वतंत्रता और अखंडता की रक्षा में कितने ही लोगों ने शहादत दी लेकिन क्या वहाँ भारत की तरह हर दूसरे पखवाड़े दिखावे के साथ श्रद्धांजलियाँ दी जाती हैं? जन्मदिनों और पुण्यतिथियों के नाम पर राजनीति तथा समय की बर्बादी कहाँ तक उचित है?

संसद और विधानसभाओं में एक-एक घंटे की कार्रवाई पर हजारों रुपया खर्च होता है। केवल फूल चढ़ाकर नमन करने के लिए देश के 760 सांसदों और उनके सहयोगी या सुरक्षाकर्मियों को हवाई जहाज और रेलगाड़ियों से इकट्ठा करके वापस अपने निर्वाचन क्षेत्र भेजने की औपचारिकता के बजाय इतनी राशि हाल में मारे गए सिपाहियों के परिवारों को दिलवा दी जाए तो क्या दिवंगत आत्मा को अधिक शांति नहीं मिलेगी? केवल मूर्तियों, डाक टिकटों और फोटो लगाने की बजाय वीर शहीदों के जीवन पर भारतीय भाषाओं में पुस्तक-पुस्तिकाएँ लाखों की संख्या में छपवाकर सस्ते मूल्य अथवा मुफ्त में उपलब्ध कराने से समाज के हर वर्ग तक उनकी जानकारियाँ पहुँचाना क्या अधिक सार्थक प्रयास नहीं होगा?

भारत सरकार का प्रकाशन विभाग सत्तारूढ़ राजनीतिक दलों के नेताओं या उनके चुनिंदा अफसरों की सिफारिशों पर कुछ महापुरुषों और शहीदों के जीवनवृत्त छापता है लेकिन ऐसी पुस्तकों की संख्या अधिक से अधिक हो सकती है तथा उनका प्रसार भी लाखों में हो सकता है। भारत सरकार के इशारों पर चलने वाला दूरदर्शन हाल के वर्षों में शहीद हुए सिपाहियों की वीरता की सच्ची कहानियाँ प्रतिदिन प्रसारित कर सकता है। गृह मंत्रालय छोटी वीडियो फिल्में बनवाकर छोटे-छोटे कस्बों और गाँवों तक केबल के जरिए दिखाकर उनसे प्रेरणा दिलवा सकता है। यह सब संभव है, जब भारतीय समाज और सरकार घिसे-पिटे पाखंड की बजाय सच्चे अर्थों में शहीदों की स्मृति को चिरस्थायी बनाने की कोशिश करे।

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