ऐसे तो बदलने से रही गांवों की तस्वीर

अनिल जैन
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सौ स्मार्ट सिटी बनाने का इरादा जताने के बाद अब गांवों को भी स्मार्ट बनाने की दिशा में पहल करते हुए अपनी सरकार के एक और महत्वाकांक्षी कार्यक्रम 'सांसद आदर्श ग्राम योजना' की शुरुआत कर दी है। इस योजना के तहत सभी सांसद 2019 तक 3 गांवों में बुनियादी और संस्थागत ढांचा विकसित करने की जिम्मेदारी उठाएंगे। इस योजना के तहत गांवों में बुनियादी ढांचा विकसित किया जाएगा, साफ-सफाई रखी जाएगी और वहां शांति-सौहार्द के साथ लिंग समानता और सामाजिक न्याय कायम किया जाएगा। आदर्श ग्राम का एक कार्यभार महिलाओं की सुरक्षा सुनिश्चित करना भी होगा। नरेन्द्र मोदी खुद भी अपने संसदीय क्षेत्र बनारस के रोहनियां इलाके के ककरहिया गांव को विकसित करने का काम करेंगे। गौरतलब है कि 15 अगस्त पर लाल किले से अपने भाषण में प्रधानमंत्री ने सभी सांसदों और विधायकों से अपने-अपने क्षेत्र में आदर्श गांव विकसित करने की अपील की थी।
 
कहा जा रहा है कि प्रधानमंत्री का मकसद 'सांसद आदर्श ग्राम योजना' के जरिए देश के लगभग 6 लाख गांवों को उनका वह हक दिलाना है जिसकी परिकल्पना स्वाधीनता संग्राम के दिनों में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने की थी। महात्मा गांधी की नजर में गांव गणतंत्र के लघु रूप थे, जिनकी बुनियाद पर देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था की इमारत खड़ी होनी थी। महात्मा गांधी को गांवों में 'लघु गणतंत्र' की छवि दिखी थी, क्योंकि सामाजिक व्यवस्था की इकाई होने के साथ इनमें प्रशासनिक और आर्थिक व्यवस्था में आत्मनिर्भरता वाला तेज हुआ करता था। गांधी ने अपने इस सपने को ग्राम स्वराज्य के रूप में परिभाषित किया था। लेकिन गांधी की वैचारिक विरासत के दावेदारों यानी आजाद भारत के शासकों ने विकास का जो मॉडल अपनाया था उससे आजादी के साढ़े 6 दशकों में गांवों की हालत लगातार बद से बदतर होती गई। आज जो हालात हमारे गांवों के हैं, वे बताते हैं कि हम गांधी के सपनों के भारत से कितनी दूर भटक गए हैं।
 
प्रधानमंत्री ने सांसद आदर्श ग्राम योजना की शुरुआत के लिए गांधी के ही अनन्य अनुयायी रहे जयप्रकाश नारायण (जेपी) के जन्मदिवस को चुना। आमतौर पर देखा गया है कि महापुरुषों और राष्ट्रनायकों के नाम पर जनकल्याणकारी सरकारी योजनाओं की शुरुआत तो खूब धूमधाम से होती है, ऐसी योजनाओं को लेकर सरकार की ओर से बड़े-बड़े दावे भी किए जाते हैं और मीडिया में भी इन योजनाओं की चर्चा होती है लेकिन थोड़े ही समय बाद ये योजनाएं या तो ठंडे बस्ते में चली जाती हैं या फिर उन्हें भ्रष्टाचार का घुन लग जाता है। ऐसे तमाम अनुभवों के आधार पर सवाल उठना लाजिमी है कि क्या नई योजना भी जेपी का नाम भुनाने की भाजपा सरकार की एक और कोशिश होकर रह जाएगी या सचमुच इससे कोई खास फर्क पड़ेगा और गांवों का कायापलट हो सकेगा?
 
वैसे चुनिंदा गांवों के विकास की योजना पहली बार सामने नहीं आई है। वित्त वर्ष 2009-10 में यूपीए सरकार ने भी इसी तरह का एक कार्यक्रम 'प्रधानमंत्री आदर्श गांव योजना' के नाम से शुरू किया था। इसमें चुने जाने वाले गांव वे थे जिनमें अनुसूचित जातियों की आबादी 50 फीसद से अधिक हो। यह कसौटी मायने रखती थी, क्योंकि दलित हमारे समाज के सबसे दबे-शोषित और वंचित समुदाय है। वह योजना कितनी कारगर रही, यह ठीक-ठीक कोई नहीं बता सकता, शायद योजना शुरू करने वाले भी नहीं। हालांकि नई योजना में वैसी कोई सामाजिक कसौटी नही रखी गई है। उस योजना और इस योजना में एक और महत्वपूर्ण फर्क यह है कि इसे प्रधानमंत्री या केंद्र सरकार को नहीं, सांसदों को अंजाम देना है।
 
प्रधानमंत्री ने हर सांसद को अपने निर्वाचन क्षेत्र का कोई ऐसा गांव चुनने को कहा है जिसकी जनसंख्या 3 से 5 हजार के बीच हो। हर सांसद को एक गांव को चुनकर 2016 तक उसे आदर्श गांव के रूप मे विकसित करना है। उसके बाद 2019 तक 2 गांव और गोद लेने होंगे। इस तरह अगले आम चुनाव तक हर सांसद को 3 गांवों को आदर्श गांव बनाना होगा। गांव का चुनाव सांसद अपनी मर्जी से करेंगे। प्रधानमंत्री ने यह हिदायत जरूर दी है कि सांसद अपने या अपने किसी रिश्तेदार के गांव का चयन न करें ताकि पक्षपात की शिकायत नहीं रहे।
 
प्रधानमंत्री ने उम्मीद जताई है कि अगर इस तरह के कुछ गांव तैयार किए जाएं तो बाकी गांव भी इसी तर्ज पर विकसित हो जाएंगे और ग्रामीण भारत का कायाकल्प हो जाएगा। इस योजना के तहत आदर्श गांवों की अवधारणा में बुनियादी ढांचे को छोड़ दें तो बाकी सारी बातें वही हैं, जो पंचायती राज या अन्य गांवों पर केंद्रित अन्य योजनाओं के संदर्भ में कही जाती रही हैं। तमाम दावों और आदर्श वचनों के बावजूद हमारे गांवों की हालत दिनोदिन खराब ही होती जा रही है।
 
कंगाली और बदहाली के महासागर में संपन्नता के कुछ टापुओं को छोड़ दें तो बाकी सारे गांवों में जीने के लिए आवश्यक बुनियादी चीजें भी नहीं हैं। आजादी के बाद के वर्षों में, खासकर नवउदारीकरण की अर्थव्यवस्था शुरू होने के बाद शहरों की तो चांदी हो गई लेकिन इसकी कीमत भी देश की आत्मा कहे जाने वाले गांवों को ही चुकानी पड़ी, क्योंकि सरकारों ने रीयल एस्टेट या बड़े कल-कारखानों के लिए किसानों की जमीनों का अधिग्रहण शुरू कर दिया। गांव के छोटे-मोटे उद्योग-धंधे और व्यवसाय चौपट हो गए। शिक्षा, स्वास्थ्य और व्यवसाय जैसी तमाम बुनियादी सुविधाओं का रुख शहरों की ओर मुड़ गया। गांव बुनियादी सुविधाओं से महरुम बने रहे। वहां न तो ढंग के स्कूल बन पाए, न अस्पताल और न ही शौचालय। गांवों के सामाजिक जीवन को खाप पंचायतों या ऐसी ही दूसरी पंरपरागत संस्थाओं के भरोसे छोड़ दिया गया। बदहाली और मजबूरी के इसी माहौल के चलते गांवों से लोगों के पलायन का दौर शुरू हो गया, जो आज भी चिंताजनक रूप से जारी है।
 
दरअसल, गांवों का मूलाधार है खेती और उस पर आधारित लघु उद्योग। लेकिन देश की विकास नीतियां इनके लिए घातक साबित हुई हैं। आजादी के बाद हरित क्रांति जरूर हुई और उससे देश खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर भी बना, मगर उस हरित क्रांति का दायरा सीमित ही रहा जिसकी वजह से देश में एक असंतुलन ही पैदा हुआ। दरअसल, आजादी के बाद आई तमाम सरकारों की प्राथमिकताओं में खेती-बाड़ी की जगह काफी नीचे रही। सवाल उठता है कि क्या गांवों के विकास को कृषि की बेहतरी के तकाजे से अलग करके देखा जा सकता है? पिछले 2 दशक में लाखों किसान खुदकुशी करने को मजबूर हुए हैं। यह सिलसिला अभी भी जारी है, जो इस कटु सच्चाई की ही देन है कि खेती अब मुनाफे का धंधा कतई नहीं रह गई है। तमाम सरकारें बेशक गांवों के विकास पर भारी-भरकम खर्च करने का दावा करती रही हैं लेकिन सरकारी तंत्र में भ्रष्टाचार के चलते बिजली, पानी और शौचालय जैसी बुनियादी जरूरतों से महरुम हमारे गांवों की हकीकत तो कुछ और ही बयां करती है।
 
लेकिन सवाल है कि क्या इन हालात को सुधारने का अकेला यही रास्ता है कि कुछ आदर्श गांव पेश कर दिए जाएं? सचाई यह है कि अघोषित रूप से कुछ आदर्श गांव देश के विभिन्न हिस्सों में आज भी मौजूद हैं। कई राजनेताओं ने अपने-अपने गांवों में ऐसी सुविधाएं जुटाई हैं, जिनके बारे में सुनकर दूसरे गांवों के ही नहीं, बल्कि शहरों में रहने वाले लोग भी ईर्ष्या से भर उठते हैं। केंद्र सरकार की इस नई योजना को लेकर भी पहला सवाल यही उठता है कि क्या चुनिंदा गांवों पर ही विशेष ध्यान देने से बाकी ग्रामीण भारत के प्रति भेदभाव नहीं होगा? अगर यह पहल रंग लाती है तो जाहिर है कि प्रधानमंत्री इसका श्रेय लेने से क्यों चूकेंगे? और अगर यह योजना संतोषजनक परिणाम नहीं दे पाएगी, तो उसके लिए सांसद जिम्मेदार ठहराए जाएंगे। मगर सियासी गुणा-भाग से ज्यादा अहम सवाल यह है कि क्या ग्रामीण भारत के विकास के तकाजे को इस तरह चुने हुए गांवों पर केंद्रित कर देने की नीति सही है?
 
सरकार कोई रोटरी या लायंस क्लब जैसी सामाजिक संस्था या एनजीओ नहीं है कि वह एक क्षेत्र विशेष में विकास का नमूना पेश करने तक सीमित रहे, उसे तो समूची आबादी के बारे में सोचना चाहिए। ग्रामीण इलाकों को ध्यान में रखकर महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम यानी मनरेगा, भारत निर्माण जैसी कई योजनाएं अस्तित्व में हैं। हालांकि इनके अमल में बहुत-सी खामियां सामने आती रही हैं लेकिन इन खामियों को दूर कर योजना का ज्यादा कारगर क्रियान्वयन करने के बजाय ऐसी नीति क्यों अपनाई जा रही है जिससे बाकी गांव खुद को उपेक्षित महसूस करे? 
 
अहम सवाल यह भी है कि सरकार के फैसलों और नीति-निर्धारण में भागीदारी करने वाले हमारे सांसदों को सरकार के फैसलों और नीतियों को अधिक जनपक्षीय बनाने पर जोर देना चाहिए या किसी खास गांव पर अपना ध्यान केंद्रित करने पर? दरअसल, गांवों को एक हद तक आत्मनिर्भर बनाकर, गांव के लोगों के लिए रोजी-रोजगार के साधन मुहैया कराकर ही गांवों का विकास संभव है। ऐसी व्यवस्था के बगैर गांवों की तस्वीर में कभी कोई मुकम्मल बदलाव नहीं हो सकता। जो भी बदलाव होगा, उसके भी टिकाऊ होने की कल्पना नहीं की जा सकती। 

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