केवल 'भारत बंद' समाधान नहीं है

ललि‍त गर्ग
सोमवार, 10 सितम्बर 2018 (22:32 IST)
पेट्रोल और डीजल के बढ़ते मूल्यों को लेकर आम जनता परेशान है। उसका दम-खम सांसें भरने लगा है, जीवन दुश्वार हो गया है और इन स्थितियों को लेकर राजनीतिक दलों यानी विपक्षी दलों का सक्रिय होना स्वाभाविक ही है। जब पेट्रोल और डीजल के लगातार बढ़ते दामों के बावजूद केंद्र सरकार कोई कदम उठाती नहीं दिख रही हो तो विपक्ष का हमलावर होना भी समझ आता है। लेकिन इस हमले का स्वरूप 'भारत बंद' की शक्ल में ही क्यों हो? विपक्षी दल और खासकर कांग्रेस यह स्पष्ट करे कि इस तरह 'भारत बंद' करने से उसे या फिर आम जनता को क्या हासिल होने वाला है?
 
 
केवल 'भारत बंद' से जनता की सहानुभूति पाने का रास्ता अनेक प्रश्नों को खड़ा कर रहा है। बंद और हड़ताल जैसे तरीके लोकतंत्र में आजादी के बाद से इस्तेमाल होते रहे हैं। लेकिन प्रश्न है कि क्या यही तरीका अपनी बात को रखने का सही तरीका है? अपनी-अपनी पार्टी के परचम के सामने हाथ उठाकर सिद्धांतों के प्रति वफादारी दिखाने वाले हाथ इन तरीकों को उपयोग में लेते हुए कितने नीचे उतर आते हैं। ऐसे अविश्वसनीय तौर-तरीके किसी भी तरह से जायज नहीं माने जा सकते हैं। जनता के हित की बात करते हुए ऐसा लगता है कि जनता को ठगने के ही ये हथकंडे हैं।
 
चुनाव की सरगर्मियों के बीच विपक्षी दलों द्वारा इन तथाकथित विरोध प्रदर्शनों के ऐसे आरोपों के माध्यम से जनता की सहानुभूति हासिल करना सस्ती राजनीति के अलावा और कुछ नहीं है। क्या जब संप्रग सरकार के समय एक बार पेट्रोल के दाम 70 रुपए प्रति लीटर से अधिक हो गए थे तब ऐसा ही किया जा रहा था? 'भारत बंद' के लिए लामबंद कांग्रेस और अन्य दल इस पर प्रकाश डाल सकें तो बेहतर होगा कि सरकार को आम जनता को राहत देने के लिए क्या कदम उठाने चाहिए?
 
विरोध प्रदर्शन के साथ समस्या के समाधान का कोई रास्ता भी प्रस्तुत किया जाए तो उचित होगा अन्यथा 'भारत बंद' से फायदा क्या होगा? इससे किसे लाभ हुआ और किसे नुकसान? ये तमाम प्रश्न आम लोगों के सामने हैं। इस पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है। बंद व हड़ताल सिर्फ आम लोगों के लिए ही परेशानी खड़ी नहीं करते, बल्कि विकास के लिए भी बाधा खड़ी करते हैं। बावजूद इसके, राजनीतिक पार्टियां एवं विभिन्न संगठन सरकार पर दबाव बनाने के लिए अक्सर ही इसे हथियार के तौर पर इस्तेमाल करते रहे हैं। डीजल, पेट्रोल, रसोई गैस की कीमत बढ़ने से लोग पहले ही परेशान हैं। उस पर बंद व हड़ताल जख्म पर नमक डालने जैसा है।
 
विपक्षी दल यह सोचते हैं कि यह उनकी जिम्मेदारी है कि लोगों के हित में वे आवाज उठाएं। आम जनता की परेशानियों की चिंता करना अच्छी बात है। लेकिन विडंबनापूर्ण सच्चाई यह है कि उनकी चिंता में आम आदमी की परेशानी कहीं नहीं होती। आज तक बंद या हड़ताल से क्या किसी भी वस्तु की कीमत कम हुई है? नहीं। इसके बावजूद हड़ताल व बंद होता ही है। कुल मिलाकर बढ़ी हुई दर की वसूली आम लोगों से ही की जाती है। उस पर हड़ताल और बंद की परेशानी अतिरिक्त है। इससे क्या सरकार पर दबाव बन जाएगा? और तेल की कीमत कम हो जाएगी?
 
ऐसा नहीं है कि कीमत बढ़ने का विरोध नहीं होना चाहिए। विरोध हो, पर बंद और हड़ताल कर नहीं। लोग बंद और हड़ताल की संस्कृति से ऊब चुके हैं। उसके लिए जरूरी है कि हड़ताल की संस्कृति हमेशा के लिए समाप्त करने पर सामूहिक सहमति बने। सभी राजनीतिक दलों के नेताओं को चाहिए कि वे हड़ताल व बंद का रास्ता त्यागकर विरोध जताने का दूसरा रास्ता अख्तियार करें।
 
क्यों नहीं हम जापान जैसी स्थिति पैदा करते? वहां के नेताओं वाली मानसिकता क्यों नहीं अपनाते? जापान में एक बार कल-कारखानों के कर्मचारियों ने अपनी मांग की पूर्ति के लिए विरोध किया था। उस दिन सभी कर्मचारी कारखाने पहुंचे और विरोध में इतना अधिक उत्पादन कर दिया कि मालिकों की हालत खराब हो गई। आम लोग भी हड़ताल नहीं चाहते। ऐसे में राजनीतिक दलों को चाहिए कि वे जनमत को देखकर हड़ताल व बंद जैसा विकास बाधक रास्ता न चुने बल्कि सृजनात्मक आंदोलन हो ताकि लोगों का भला हो सके।
 
यदि विपक्षी दल यह चाह रहे हैं कि केंद्र सरकार पेट्रोलियम पदार्थों पर लगाए जाने वाले करों में कमी करे तो फिर राज्य सरकारों को भी इसमें भागीदार बनना होगा। क्या वे इसके लिए तैयार हैं? यदि हां तो फिर क्या कारण है कि अभी तक विपक्ष शासित किसी भी राज्य और यहां तक कि कर्नाटक अथवा पंजाब ने पेट्रोल और डीजल पर वैट की दरें घटाने का काम नहीं किया है? 
आखिर वे पेट्रोल और डीजल पर वैट की दरें घटाकर जनता को राहत देने के साथ ही केंद्र सरकार के समक्ष कोई नजीर पेश क्यों नहीं कर रहे हैं? जबकि ऐसा उदाहरण भाजपा शासित राजस्थान की सरकार ने 4 प्रतिशत वेट कम करने की घोषणा से कर दिखाया है। संभवत: केंद्र सरकार एवं अन्य भाजपा शासित राज्यों की सरकारें भी ऐसे ही कदम उठा लें। लेकिन वह सब 'भारत बंद' की निष्पत्ति नहीं कहलाई जा सकती।
 
यह सत्य है कि पेट्रोलियम पदार्थों के मूल्यों में वृद्धि अंतरराष्ट्रीय कारणों से हो रही है। यह भी सही है कि कच्चे तेल के मूल्यों में वृद्धि ईरान, वेनेजुएला और तुर्की के संकटग्रस्त होने के कारण हो रही है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि भारत सरकार पेट्रोल एवं डीजल के मूल्य बढ़ते हुए देखती रहे। उसे यह आभास होना चाहिए कि महंगा पेट्रोल और डीजल आम जनता को परेशानी में डालने के साथ ही महंगाई के सिर उठाने का जरिया बन रहा है।
 
पेट्रोल और डीजल के दाम बढ़ने का सीधा असर आम आदमी की थाली पर पड़ता है। गरीबों के साथ यह क्रूर मजाक है। महंगाई बढ़ने का कारण बनता है पेट्रोल और डीजल के दामों में बढ़ोतरी होना। इससे मध्यम एवं निम्न वर्ग के लोगों की हालत तबाही जैसी हो जाती है, वे अपनी परेशानी का दुखड़ा किसके सामने रोए?
 
बार-बार पेट्रोल और डीजल के दाम बढ़ाना सरकार की नीयत में खोट को ही दर्शाता है, इस तरह की सरकार की नीति बिलकुल गलत है, शुद्ध बेईमानी है। इस तरह की नीतियों से जनता का भरोसा टूटता है और यह भरोसा टूटना सरकार की विफलता को जाहिर करता है। लेकिन यह सब होते हुए भी 'भारत बंद' उसका समाधान किसी भी सूरत में नहीं हो सकता।
 
नरेन्द्र मोदी सरकार समस्या की गंभीरता को समझती है, इसमें कोई शंका नहीं है। लेकिन उसे समस्या के समाधान के लिए भी आगे आना होगा। इन विकराल होतीं स्थितियों में सरकार को ही कोई कठोर कदम उठाने होंगे। ऐसे कदम उठाने होंगे जिससे कि पेट्रोल-डीजल सस्ता हो सके। इस मामले में कुछ दक्षिण एशियाई देशों का उदाहरण हमारे सामने है, जहां पेट्रोल-डीजल के दाम एक सुनिश्चित दायरे में रहते हैं, भले ही अंतरराष्ट्रीय बाजार में इसके भाव ऊपर-नीचे होते रहें एवं मुद्रा विनिमय की स्थितियों में भी उतार-चढ़ाव चलता रहे। वहां की सरकारें पेट्रोल-डीजल के दामों को बांधे रखती हैं।
 
इस प्रक्रिया से भले ही सरकार की राजस्व धनराशि घटती-बढ़ती रहे, लेकिन आम जनजीवन इनसे अप्रभावित रहता है। मोदी सरकार को भी ऐसी ही स्थितियों को लागू करने की जरूरत है ताकि आमजन एवं उपभोक्ताओं को मुसीबत के कहर से बचाया जा सके। महंगाई की मार से बचाने का उपाय सरकार को ही करना होगा और वही सरकार सफल है, जो इन आपात स्थितियों से जनजीवन को प्रभावित नहीं होने देती।
 
सरकार की ओर से किसी समस्या के कारणों को रेखांकित करना भर पर्याप्त नहीं और ऐसे बयानों का तो कोई मतलब ही नहीं कि भारत जैसा बड़ा देश बिना सोचे-समझे एक झटके में कोई कदम नहीं उठा सकता। अगर सरकार पेट्रोल और डीजल की खपत कम करने के उपाय कर रही है, तो यह अच्छी बात है लेकिन उसे यह पता होना चाहिए कि ऐसे उपाय रातोरात अमल में नहीं लाए जा सकते।
 
माना कि डॉलर के मुकाबले रुपए की गिरती कीमत ने सरकार के विकल्प सीमित कर दिए हैं, लेकिन वह इसकी अनदेखी नहीं कर सकती कि अगर पेट्रोल और डीजल के दामों में वृद्धि का सिलसिला थमा नहीं तो महंगाई बेलगाम हो सकती है और चुनावी माहौल में यह उसके लिए कहीं बड़ा संकट होगा। मोदी सरकार को उसके लिए एक सादा, साफ और सच्चा समाधान प्रस्तुत करना ही होगा। तभी हम उस कहावत को बदल सकेंगे 'इन डेमोक्रेसी गुड पीपुल आर गवर्नेड बाई बैड पीपुल' कि लोकतंत्र में अच्छे आदमियों पर बुरे आदमी राज्य करते हैं।

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