व्यवस्था के नाम पर धर्म, साम्यवाद और पूंजीवादी का खूनी खेल

अनिरुद्ध जोशी 'शतायु'
भारत और दुनिया को ऐसे धार्मिक नेताओं की जरूरत है, जो धर्मों के बीच समानताएं ढूंढें न कि उनकी रैंकिंग करें कि कौन ऊपर है और कौन नीचे। सभी धर्मों के धर्म प्रचारक लोगों के बीच खुद के धर्म को श्रेष्ठ और दूसरे के धर्म को निकृष्ट घोषित करने के लिए कुतर्कों का सहारा लेते आएं हैं। इस बीच साम्यवादियों या धर्मनिरपेक्षतावादियों ने कहीं एक विशेष धर्म से हाथ मिलाया तो कहीं किसी अन्य स्थान पर उन्हीं के खिलाफ मोर्चा खोल दिया।
दरअसल, इस दौर में धर्म की राजनीति और राजनीति का धर्म जोरों पर हैं। पूंजीवाद, साम्यवाद और धार्मिक कट्टरता तीनों ही तरह की विचारधाराओं ने धर्म का भरपूर दोहन कर अधर्म का साम्राज्य कायम कर रखा है। एक बुद्धिमान व्यक्ति पूर्णत: नकार सकता है सारे धर्मों को, साम्यवाद और साम्राज्यवाद की सभी विचारधाराओं को और तमाम तरह की प्रचलित राजनीतिक प्रणालियों को। क्यों? क्योंकि सभी मूक प्राणियों, पक्षियों, वृक्षों, नदियों, पहाड़ों, महिलाओं, बच्चों और मानवता के शोषक तथा व्यक्ति स्वतंत्रता के दुश्मन है।

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राजनीति क्या हैं?
आज राजनीति का अर्थ है झूठ, फरेब, हिंसा, भ्रष्टाचार, गुंडागर्दी और तमाम तरह के वे आपराधिक नुस्खें- जिससे धन और सत्ता पर काबिज हुआ जा सकें। दूसरों पर अधिपत्य स्थापित करने की भावना ही राजनीति है, फिर चाहे वह भाई हो, मित्र हो, पत्नी हो, शहर हो या देश। आज इसे ही राज करने की नीति मानी जाती है।
 
माओवादी चाहते हैं कि हमारे अनुसार राजीतिक व्यवस्था हो, कम्युनिस्टों ने अलग व्यवस्था बना रखी है। हिंदू और मुसलमानों की अपनी-अपनी व्यवस्थाएं हैं। ईसाईयों ने अपनी अलग व्यवस्था गढ़ रखी है। इस सबके अलावा कई अन्य राजनीतिक पार्टियों ने अपनी-अपनी व्यवस्थाएं तैयार कर रखी है। प्राचीन काल से ही मानव जाति पर व्यवस्थाएं लादी जाती रही हैं। राजनीतिक दिमाग चाहता है कि हमारे अनुसार मानव समाज को हांका जाए। ये राजनीतिक माइंड का व्यक्ति जरूरी नहीं है कि सत्ता में ही हो वह किसी कथित धार्मिक पद पर, ऑफिस में, घर में, व्यापार में, पोलित ब्यूरो या अन्य कहीं भी विराजमान हो सकता है। 
 
किसी भी जगह पर जब तक 'पद' शब्द का इस्तेमाल किया जाता है तब तक वहां राजनीति ही होगी, चाहे वह विष्णुपद हासिल करने की बात हो। और यह भी तय है कि राजनीति से कभी भी किसी का भला नहीं हुआ है। राजनीति के कारण मानवता दरबदर ही हुई है। खुद के ही देश में लोग शरणार्थी हैं। लाखों लोग भूख से मर जाते हैं जबकि अरबों टन अनाज को बाजार में तेजी लाने के लिए समुद्र में फेंक दिया जाता है या गोदामों में ही सड़ा दिया जाता है।
 
आज धर्म का अर्थ है हिंदू साम्प्रदायिकता, मुस्लिम जेहाद, ईसाई क्रूसेड, धार्मिक कानून और तमाम गलत ‍तरीके से किए जा रहे धर्म प्रचार जिससे धर्मांतरण हो और जिससे दूसरे की स्त्री और भूमि को हड़पा जा सके। दूसरे का धर्म असल में धर्म नहीं है हमारा धर्म ही श्रेष्ठ धर्म है ऐसी सोच में जीने वाले मूढ़जनों को नहीं मालूम की धर्म क्या है? वे जानना भी नहीं चाहते। यही सोच दुनिया के लिए खतरा है। ठीक इसके विपरीत सोच है कम्युनिस्टों की अर्थात सिक्के का दूसरा पहलू।
 
धर्म क्या है?
यदि मार्क्सवादियों से पूछो की धर्म क्या है- तो वे कहेंगे कि 'अफीम का नशा' लेकिन यहां कहना होगा कि मानवता को शोषित करने का एक मार्क्सवादी सभ्य तरीका। पश्चिम बंगाल पर तीस वर्ष और केरल में न जाने कितने वर्ष तक राज करने के बाद आज भी मजदूरों को मजदूर और गरीबों को गरीब ही बनाए रखा है क्योंकि ये ही कम्युनिज्म को जिंदा बनाए रखने का आधार है। कम्युनिस्ट कहते हैं कि धर्म कभी प्रगतिशील हो ही नहीं सकता, जबकि उन्होंने हर तरह की प्रगति में रोढ़े अटकाएं हैं।
 
धर्मनिर्पेक्षतावादियों या गांधीवादियों से पूछो की धर्म क्या है- तो वे कहेंगे दरिद्र नारायणों की सेवा करना धर्म है और यह भी कि हमें साम्प्रदायिक शक्तियों को देश पर काबिज नहीं होने देना हैं। जबकि वे पिछले 70 साल से देश पर काबिज होकर दरिद्र नारायणों की सेवा कर रहे हैं, लेकिन द्ररिद्र अभी भी क्यों दरिद्र बने हुए हैं? दरिद्रों को नारायण कहना क्या शोषण करने की सुविधा जुटाना नहीं हैं? क्या अमीर नारायण नहीं हो सकता? क्या नारायण दरिद्र है या नारायण सिर्फ दरिद्रों की ही सुनता है?
 
कथित साम्प्रदायिक शक्तियों से पूछो की धर्म क्या हैं- तो शायद वे कहेंगे कि हम साम्प्रदायिक नहीं राष्ट्रवादी है और सर्वधर्म समभाव की भावना रखना ही धर्म है। हमारा धर्म सहिष्णुता सिखाता है। अरे नहीं साबह नपुंसकता सिखाता है?
 
साम्प्रदायिकों और कट्टरपंथियों के तो कहने ही क्या। पहला दूसरे के खिलाफ क्यों हैं? क्योंकि दूसरा पहले के खिलाफ है। हमारे धर्म में जो लिखा है वह तुम्हारे धर्म से कहीं ज्यादा महान, सच्चा पवित्र और जांचा-परखा है। जबकि उन्होंने दूसरे के धर्म को पढ़ा ही नहीं हो फिर भी वे दावे के साथ अपने धर्मग्रंथों को दूसरे के धर्मग्रंथों से महान बताते हैं। रुहानी या आसमानी बताते हैं।
 
धार्मिक व्यवस्थाएं : धर्म और व्यवस्था में फर्क होता है ये बात किसी को शायद ही कभी समझ में आए। व्यवस्था राजनीति और समाज का हिस्सा है न कि धर्म का। व्यवस्था तो मार्क्स या कम्युनिज्म ने भी दी है। तथाकथित धर्म और कम्युनिज्म से कहीं ज्यादा श्रेष्ठ व्यवस्था बताने वाले कई दार्शनिक और विचारक इतिहास के गर्त में खो गए हैं। आदर्श समाज की कल्पना करने वाले भी मर गए हैं।
 
हिंदू कानून या मुस्लिम कानून का क्या धर्म से कोई नाता है? यदि है तो फिर सोचना होगा कि ये धर्म है की नहीं। तथाकथित धार्मिक या कट्टरपंथी लोग मानते हैं कि मानव समाज को व्यवस्था नहीं दी तो वे भटक जाएंगे और समाज में अराजकता फैल जाएगी। इसलिए नियम, कायदा तो बताना ही पड़ेगे। धार्मिक कानून तो बनाना ही पड़ेंगे। फिर उन नियमों का पालन भी कराना होगा और यदि कोई नियम तोड़ता है तो फिर उसे कड़ी से कड़ी सजा भी दी जानी चाहिए। उसका सामाजिक बायकॉट किया जाना चाहिए, उसे जेल भेज देना चाहिए या उसके खिलाफ फतवा जारी कर देना चाहिए।
 
सभी आध्‍यात्मिक पुरुषों ने अपने-अपने तरीके से आत्मज्ञान प्राप्त करने और नैतिक रूप से जीने के मार्ग बताए थे। असल में धर्म का मर्म सत्य, अहिंसा, न्याय, प्रेम, व्यक्तिगत स्वतंत्रता और मुक्ति का मार्ग माना जाता है। लेकिन गुरु घंटालों, राजनीतिज्ञों और मुल्ला-मौलवियों की भरमार ने धर्म के मर्म को अधर्म का मर्म बनाकर रख दिया है।
 
आप लाख कितना ही किसी को भी समझाओं की दुनिया के सारे धर्म एक ही तरह की शिक्षा देते हैं। उनका इतिहास भी सम्मलित है, लेकिन फिर भी वे दूसरे के धर्म से नफरत ही रखेंगे। इसका सीधा-सा कारण है प्रत्येक धर्म की अधार्मिक, अलोकतांत्रिक व्यवस्थाएं, धर्म का संगठित रूप और धार्मिक पुस्तकों में उल्लेखित राजनीति और नफरत के वे सूत्र जिन्हें छद्म छंदों में लिखा गया है। 
 
'अनेकानेक लोग सोचते हैं कि सारे मनुष्यों को पढ़ना-लिखना सिखा देने से मानव समस्याओं का निदान हो जाएगा, लेकिन यह विचार मिथ्या साबित हुआ है। तथाकथित पढ़े-लिखे लोग भी शांतिप्रिय एवं समय-भावशील नहीं हैं और वे भी संसार में व्याप्त दु:ख और भ्रम के लिए उत्तरदायी हैं।'- जे. कृष्णमूर्ति
 
'सिर्फ कि एक सरकार को बदलकर उसकी जगह दूसरी सरकार बिठाकर या एक पार्टी अथवा वर्ग की एवज में दूसरी को लाकर, यानी एक शोषक के स्थान पर दूसरे को आसीन करके हम बुद्धिमय नहीं हो सकते। खूनी क्रांतियाँ कभी भी हमारी समस्याओं को हल नहीं कर सकती। 
 
सिर्फ एक सशक्त आत्ममुखी क्रांति ही कि जो हमारे सारे मूल्यों को बदल दें, वो ही किसी भिन्न किस्म के माहौल की और किसी समझदार सामाजिक संरचना की सृष्टि कर सकती है, लेकिन वह क्रांति सिर्फ तुम्हारे और मेरे द्वारा ही लाई जा सकती है। यदि हम हमारे अपने ही मानसिक प्रतिबंधों को तोड़कर मुक्त नहीं होंगे तो किसी भी प्रकार की कोई भी नई प्रणाली का विकास नहीं होगा।'- जे. कृष्णमूर्ति
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