बात कल या परसों की नहीं, बल्कि करीब दो दशक पुरानी है। मई 1998 में तत्कालीन राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) सरकार के रक्षामंत्री की हैसियत से समाजवादी नेता जार्ज फर्नांडीस ने जब सामरिक दृष्टि से चीन को भारत का दुश्मन नंबर एक करार दिया था तो उनके ही कई साथी मंत्रियों ने उनके इस बयान पर नाक-भौं सिकोड़ी थीं। आज की तरह उस समय भी कांग्रेस विपक्ष में थी और उसे ही नहीं बल्कि एनडीए की नेतृत्वकारी भारतीय जनता पार्टी को भी तथा यहां तक कि उसके पितृ संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को भी जार्ज का यह बयान नागवार गुजरा था। वामपंथी दलों को तो स्वाभाविक रूप से जार्ज की यह साफगोई नहीं सुहा सकती थी, सो नहीं सुहाई थी।
यह दिलचस्प था कि संघ और वामपंथियों के रूप में दो परस्पर विरोधी विचारधारा वाली ताकतें इस मुद्दे पर एक सुर में बोल रही थीं, ठीक वैसे ही जैसे दोनों ने अलग-अलग कारणों से 1942 में ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ भारत छोड़ों आंदोलन का विरोध किया था। जार्ज के इस बयान के विरोध के पीछे भी दोनों की प्रेरणाएं अलग-अलग थीं। संघ परिवार जहां अपनी चिर-परिचित मुस्लिम विरोधी ग्रंथि के चलते पाकिस्तान के अलावा किसी और देश को भारत के लिए सबसे बड़ा खतरा नहीं मान सकता था, वहीं वामपंथी दल चीन के साथ अपने वैचारिक बिरादराना रिश्तों के चलते जार्ज के बयान को खारिज कर रहे थे।
कई तथाकथित रक्षा विशेषज्ञों और विश्लेषकों समेत मीडिया के एक बड़े हिस्से ने भी इसके लिए जार्ज की काफी लानतमलानत की थी। जार्ज आज भले ही शारीरिक अशक्तता तथा याददाश्त खो चुके होने के चलते मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य से बाहर हैं, लेकिन चीन को लेकर उनका आकलन समय की कसौटी पर लगातार बिलकुल सही साबित हो रहा है। बीते एक महीने का ताजा घटनाक्रम भी उस आकलन की तस्दीक कर रहा है।
वैसे न तो चीनी खतरा भारत के लिए नया है और न ही उससे आगाह करने वाले जार्ज फर्नांडीस पहले राजनेता रहे हैं। दरअसल, चीन ने जब तिब्बत पर आक्रमण कर उस पर कब्जा किया था, तब से ही वह भारत के लिए खतरा बना हुआ है। देश को सबसे पहले इस खतरे की चेतावनी डॉ. राम मनोहर लोहिया ने दी थी। तिब्बत पर चीनी हमले को उन्होंने 'शिशु हत्या’ करार देते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से कहा था कि वे तिब्बत पर चीनी कब्जे को मान्यता न दें लेकिन नेहरू ने लोहिया की सलाह मानने के बजाय चीनी नेता चाऊ एन लाई से अपनी दोस्ती को तरजीह देते हुए तिब्बत को चीन का अविभाज्य अंग मानने में जरा भी देरी नहीं की।
यह वह समय था जब भारत को आजाद हुए महज 11 वर्ष हुए थे और माओ की सरपरस्ती में चीन की लाल क्रांति भी कुल नौ साल पुरानी ही थी। हमारे पहले प्रधानमंत्री नेहरू तब समाजवादी भारत का सपना देख रहे थे, जिसमें चीन से युद्ध की कोई जगह नहीं थी। उधर, माओ को पूरी दुनिया के सामने जाहिर करना था कि साम्यवादी कट्टरता के मामले में वे लेनिन और स्टालिन से भी आगे हैं। तिब्बत पर कब्जा उनके इसी मंसूबे का नतीजा था। हालांकि तब तक दलाई लामा ल्हासा में ही रहते थे लेकिन यह साफ हो चुका था कि उनकी हैसियत सिर्फ एक धर्मगुरु की रह गई है और 'दुनिया की छत’ यानी तिब्बत पर लाल सेना काबिज है।
इतना सब होने के बावजूद लगभग एक दशक तक भारत-चीन के बीच राजनयिक संबंध बहुत अच्छे रहे। दोनों देशों के शीर्ष नेताओं ने एक-दूसरे के यहां की कई यात्राएं कीं। लेकिन 1960 का दशक शुरू होते-होते चीनी नेतृत्व के विस्तारवादी इरादों ने अंगड़ाई लेना शुरू कर दी और भारत के साथ उसके रिश्ते शीतकाल में प्रवेश कर गए। तिब्बत जब तक आजाद देश था, तब तक चीन और भारत के बीच कोई सीमा विवाद नहीं था, क्योंकि तब भारतीय सीमाएं सिर्फ तिब्बत से मिलती थीं। लेकिन चीन द्वारा तिब्बत को हथिया लिए जाने के बाद वहां तैनात चीनी सेना भारतीय सीमा का अतिक्रमण करने लगी।
उन्हीं दिनों चीन द्वारा जारी किए गए नक्शों से भारत को पहली बार झटका लगा। उन नक्शों में भारत के सीमावर्ती इलाकों के साथ ही भूटान के भी कुछ हिस्से को चीन का भू-भाग बताया गया था। चूंकि इसी दौरान भारत यात्रा पर आए तत्कालीन चीनी नेता चाऊ एन-लाई नई दिल्ली में पंडित नेहरू के साथ हिंदी-चीनी भाई-भाई का नारा लगाते हुए शांति के कबूतर उड़ा चुके थे, लिहाजा भावुक भारतीय नेतृत्व को भरोसा था कि सीमा विवाद बातचीत के जरिए निपट जाएगा। मगर 1962 का अक्टूबर महीना भारतीय नेतृत्व के भावुक सपनों के ध्वस्त होने का रहा जब चीन की सेना ने पूरी तैयारी के साथ भारत पर हमला बोल दिया। चूंकि हमारे प्रतिरक्षा कर्णधार भी चीन की ओर से बिलकुल बेफिक्र थे, लिहाजा हमारी सेना के पास मौजूं सैन्य साजो-सामान का अभाव था। नतीजे में भारत को पराजय का कड़वा घूंट पीना पड़ा और चीन ने अपने विस्तारवादी नापाक मंसूबों के तहत हमारी हजारों वर्गमील जमीन हथिया ली। इस तरह तिब्बत पर चीनी कब्जे के वक्त लोहिया द्वारा जताई गई आशंका सही साबित हुई।
चीन से मिले इस गहरे जख्म के बाद दोनों देशों के रिश्तों में लगभग डेढ़ दशक तक ठंडापन रहा जो 1970 के दशक के उत्तरार्ध में केंद्र में पहली गैर कांग्रेसी सरकार बनने पर कुछ हद तक खत्म हुआ। दोनों देशों की सरकारों के प्रयासों से दोनों के बीच एक बार फिर राजदूत स्तर के राजनयिक रिश्तों की बहाली हुई। तब से लेकर अब तक दोनों देशों के बीच राजनयिक रिश्ते भी बने हुए हैं, दोनों देशों के शीर्ष नेतृत्व का एक-दूसरे के यहां आना-जाना भी हो रहा है और दोनों देशों के बीच विदेश मंत्री और विदेश सचिव स्तर की वार्ताएं भी होती रहती हैं। पिछले 15 सालों के दौरान दोनों देशों के बीच व्यापार में भी 24 गुना इजाफा हो गया है। चीन की कई नामी कंपनियां भारत में कारोबार कर रही हैं। भारतीय कारोबारी भी चीन पहुंच रहे हैं, लेकिन इस सबके बावजूद चीन के विस्तारवादी इरादों में कोई तब्दीली नहीं आई है। कभी उसकी सेना हमारे यहां लद्दाख में घुस आती है तो कभी अरुणाचल में। अपने नक्शों में भी वह जब-तब इन इलाकों को अपना भू-भाग बता देता है।
ताजा विवाद के तहत चीन ने जिस तरह कैलाश मानसरोवर की यात्रा पर जा रहे भारतीय यात्रियों को रोका और भारतीय सैनिकों पर सिक्किम से लगी अपनी सीमा में घुसपैठ करने का आरोप लगाया, उससे लगता है कि वह भारत की बढ़ती कूटनीतिक सक्रियता से बौखला गया है। चीनी मीडिया ने तो दोनों देशों के बीच युद्ध की भविष्यवाणी तक कर दी है। चीनी मीडिया में भारत को अमेरिका के इशारे पर काम करने वाला एक मानसिक गुलाम देश बताया जा रहा है।
चीन के मीडिया पर चीनी सरकार का नियंत्रण है और उसमें वही छापा और दिखाया जाता है जो सरकार चाहती है, लिहाजा सहज अंदाजा लगाया जा सकता है कि चीनी हुक्मरान भारत के बारे में क्या सोच रहे हैं? भारत स्थित चीनी राजदूत ने भी भड़काऊ बयान दिया है। चीनी राजदूत ने कहा है कि गेंद भारत के पाले में है और भारत को यह तय करना है कि किन विकल्पों को अपनाकर तनाव खत्म किया जा सकता है। इस बयान के मुताबिक, सिक्किम सेक्टर के डोकलाम इलाके से भारतीय सैनिकों की वापसी चीन की पूर्व शर्त है।
भारत-चीन के बीच ताजा विवाद तब शुरू हुआ जब चीनी सेना ने भूटान के कब्जे वाले क्षेत्र में सड़क बनानी शुरू कर दी। भूटान से सुरक्षा संबंधी संधि के कारण भारत के सैनिकों ने स्वाभाविक रूप से बीच-बचाव किया, जो चीन को रास नहीं आया। उसने लद्दाख सेक्टर से सटी सीमा पर भारी मात्रा में अपने सैनिक तैनात कर दिए हैं और लंबे अरसे बाद हवाई पट्टियां भी खोल दी हैं। पचपन साल बाद सीमा पर टैंकों की तैनाती भी की जा रही है। दोनों देशों के बीच तल्खी बढ़ने के पीछे वैसे तो कई वजह हैं लेकिन ताजा वजह अमेरिका तथा अन्य पश्चिमी देशों से भारत की बढ़ती नजदीकियां हैं।
कटुता बढ़ने की शुरुआत गत अप्रैल में दलाई लामा के अरुणाचल दौरे के समय हुई, जब चीन सरकार के मुखपत्र पीपुल्स डेली ने टिप्पणी की कि लगता है भारत 1962 को भूल गया है। हाल ही में उसने यह बात एक बार फिर दोहराई। इसके जवाब में भारतीय रक्षामंत्री अरुण जेटली ने सख्त टिप्पणी की कि चीन को सिर्फ 1962 याद रहता है, लेकिन उसे 1967 भी याद रखना चाहिए, जब भारतीय सेना ने चीनी सैनिकों को खदेड़ दिया था। जेटली ने यह भी कहा था कि 1962 और आज के भारत में बहुत अंतर है।
चीन से इस तनातनी की कुछ वजहें कूटनीतिक भी हैं। दरअसल, चीन अपने को विश्व की एक बड़ी ताकत के रूप में स्थापित करने की कवायद में जुटा हुआ है। अपने पड़ोस में इस रास्ते की सबसे बड़ी रुकावट उसे भारत ही नजर आता है। भारत ने पिछले कुछ वर्षों के दौरान अपने हितों के हिसाब से दूसरे देशों से व्यापारिक और सामरिक संबंध स्थापित किए हैं। चीन इसे अपने लिए चुनौती मानता है। उसे डर है कि भारत के जरिए पश्चिमी देश उसे घेरने की कोशिश कर रहे हैं। इसीलिए उसने हमारे राष्ट्रीय हितों के खिलाफ कई कदम उठाए हैं। परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह एनएसजी की सदस्यता के मसले पर वह भारत की राह में रोड़े अटका रहा है। पाकिस्तान स्थित आतंकवादी गुटों के सरगनाओं को वैश्विक आतंकवादी घोषित कराने की भारतीय कोशिशों को भी उसने कई बार संयुक्त राष्ट्र में वीटो का इस्तेमाल करके नाकाम किया है। चीन-पाकिस्तान इकोनॉमिक कॉरिडोर को लेकर भी भारत से चीन के रिश्ते सहज नहीं हैं।
यह सच है कि भारत अब 1962 वाला भारत नहीं है लेकिन इसमें भी कोई दो राय नहीं है कि चीन की सैनिक ताकत हमसे कहीं ज्यादा है। उसने हमारी सीमाओं तक सड़कों का जाल भी बिछा लिया है। ल्हासा तक ट्रेन चलाकर भी बीजिंग की हुकूमत ने अपनी मजबूती बढ़ाई है। अब उसकी थलसेना की आवाजाही हमारे मुकाबले कहीं ज्यादा सुगम है। ऐसा नहीं है कि चीन सिर्फ हमें ही धमका रहा है। पड़ोसी जापान और वियतनाम से भी उसकी तू-तू, मैं-मैं होती रहती है। हिंद महासागर में वह अपना दखल बढ़ाने की कोशिश कर रहा है तो दक्षिण चीन सागर में उसे चुनौती मिल रही है।
कई मोर्चों पर फंसा चीन ऐसे में भारत से युद्ध करेगा, ऐसा नहीं लगता। जो भी हो, पर यह तथ्य भी नहीं भूला जा सकता कि चीन अतिक्रमणकारी है। भारतीय भूमि पर उसकी ताजा गतिविधियां और युद्ध की धमकी एक बार फिर साबित कर रही है कि सामरिक रूप से भारत के लिए सबसे बड़ा खतरा चीन ही है। उसकी धमकी से देश में बेचैनी का माहौल है। वैश्विक यारबाजी में व्यस्त नई दिल्ली के सत्तानायक भी यकीनन इस तथ्य से वाकिफ होंगे कि देश बेचैनी से उनकी ओर देख रहा है।