गंगा की खातिर एक जान और कुरबान

अनिल जैन
गंगा की सफाई को लेकर केंद्र सरकार की वादाखिलाफी, अकर्मण्यता और जुमलेबाजी ने एक और पर्यावरणविद संत की बलि ले ली। नगाधिराज हिमालय की बेटी मानी जाने वाली, देश के करोड़ों करोड़ लोगों की आस्था की प्रतीक और दुनियाभर के लोगों को अपनी ओर आकर्षित करने वाली गंगा की अविरलता बहाल कराने को अपने जीवन का मिशन बना लेने वाले जाने-माने पर्यावरणविद और वैज्ञानिक प्रो. गुरूदास (जीडी) अग्रवाल उर्फ स्वामी ज्ञानस्वरूप सानंद ने अनशनरत रहते हुए अपनी जान दे दी।
 
 
मंगलवार को हालत बिगडने पर उन्हें ऋषिकेश के एम्स ले जाया गया था और बुधवार को वहां दिल्ली लाते वक्त बीच रास्ते में ही उनके जीवन का अंत हो गया। गंगा को अविरल बहता देखने का उनका सपना पूरा नहीं हो सका लेकिन गंगा की सफाई के नाम पर भ्रष्टाचार की गंगा अविरल बह रही है। वह कब तक बहती रहती रहेगी, कोई नहीं बता सकता। 
 
 
86 वर्षीय प्रो. अग्रवाल यानी स्वामी ज्ञानस्वरूप गंगा की सफाई की मांग को लेकर गत 22 जून से हरिद्वार में गंगा किनारे स्थित मातृ सदन में अनशन कर रहे थे। उन्होंने अपने निधन से पहले ही वसीयत कर दी थी कि उनका पार्थिव शरीर ऋषिकेश स्थित एम्स के शरीर विज्ञान विभाग को सौंप दिया जाए। गंगा को बचाने के लिए जान देने वाले स्वामी ज्ञानस्वरूप हाल के वर्षों में दूसरे पर्यावरण प्रेमी संन्यासी हैं। इससे पहले 2011 में 13 जून को अनशन करते हुए स्वामी निगमानंद ने भी इसी तरह हरिद्वार में अनशन करते हुए अपनी जान दे दी थी। जिस दिन निगमानंद का निधन हुआ था वह उनके अनशन का 115वां दिन था। 
 
 
स्वामी ज्ञानस्वरुप ने मनमोहनसिंह की सरकार के समय भी 2010 और 2012 में अनशन किया था। 2012 में उनके अनशन के परिणामस्वरूप गंगा की मुख्य सहयोगी नदी भगीरथी पर बन रहे लोहारी नागपाल, भैरव घाटी और पाला मनेरी बांधों की परियोजना रोक दी गई थी, जिसे मोदी सरकार के आने के बाद फिर शुरू कर दिया गया था। सरकार से इन बांधों की परियोजना पर आगे का काम रोकने और गंगा एक्ट लागू करने की मांग को लेकर ही स्वामी ज्ञानस्वरूप गत 22 जून से अनशन पर थे।
 
 
गंगा के निर्मलीकरण को अपने शेष जीवन का लक्ष्य बनाने का दावा केंद्रीय मंत्री उमा भारती ने भी किया था। 2014 में मंत्री पद की शपथ लेने के बाद उमा भारती ने कहा था कि अगर वे अपने मंत्रालय में रहते हुए गंगा को प्रदूषण मुक्त नहीं कर सकीं तो गंगा में ही जल समाधि ले लेंगी। लेकिन न तो वे गंगा की सफाई करा सकीं और न ही उन्होंने समाधि ली। जब एक साल पहले उन्हें गंगा की सफाई से संबंधित मंत्रालय से हटाकर पेयजल और सफाई मंत्रालय तथा नितिन गडकरी को गंगा से संबंधित मंत्रालय सौंपा गया, तब भी उन्होंने कहा था कि अगर अक्टूबर 2018 तक गंगा की सफाई का काम पूरा नहीं हुआ तो वे अनशन पर बैठेंगी।
 
 
अब 2018 का अक्टूबर महीना चल रहा है और उमा भारती गंगा सफाई से संबंधित अपने हवाई बयानों को भूलकर मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ के चुनाव अभियान में मशगूल हैं। दूसरी ओर गंगा अपने शुद्धिकरण की बाट जोहते हुए गंदे नाले के रूप में उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश और बिहार के मैदानी इलाकों में बह रही है।
 
 
उमा भारती ने अनशन पर बैठना या जलसमाधि लेना तो दूर पिछले करीब साढ़े तीन महीने से ऋषिकेश में अनशन पर बैठे स्वामी ज्ञानस्वरुप से मिलना या उनसे अनशन समाप्त करने की अपील तक करना मुनासिब नहीं समझा। 2014 में 'मां गंगा के बुलावे’ पर चुनाव लड़ने बनारस पहुंचे नरेंद्र मोदी भी पिछले चार साल के दौरान बतौर प्रधानमंत्री कई विदेशी मेहमानों को बनारस ले जाकर समारोहपूर्वक गंगा की आरती कर आए, लेकिन गंगा की हालत में सुधार उनकी प्राथमिकता में जगह नहीं बना पाया। 2012 में जब स्वामी ज्ञानस्वरूप ने अनशन किया था, तब नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे और उन्होंने ट्वीट करके चिंता जताते हुए केंद्र सरकार से आग्रह किया था कि वह स्वामी ज्ञानस्वरूप की मांगों को गंभीरता से ले। 
 
 
इस बार प्रधानमंत्री के रूप में मोदी ने तो ज्ञानस्वरूप के अनशन पर कोई प्रतिक्रिया नहीं जताई, लेकिन ज्ञानस्वरूप ने खुद ही मोदी को अपने छोटे भाई का संबोधन देते हुए अनशन शुरू करने के एक दिन बाद ही एक पत्र लिखकर गंगा की दुर्दशा की ओर उनका ध्यान आकर्षित करने की कोशिश की थी। इस पत्र में उन्होंने पूर्व में लिखे अपने दो अन्य पत्रों का भी हवाला दिया था और उन पर कोई कार्यवाही न करने की शिकायत की थी। लेकिन इस पत्र का भी प्रधानमंत्री की ओर से कोई जवाब नहीं दिया गया। यही नहीं, प्रधानमंत्री ने अनशनरत स्वामी ज्ञानस्वरूप की कोई सुध भी नहीं ली और न ही उनके किसी मंत्री ने या उत्तराखंड की भाजपा की सरकार ने ऐसा करना उचित समझा।
 
 
हालांकि स्वामी ज्ञानस्वरूप का राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से औपचारिक तौर पर कोई जुडाव नहीं था, लेकिन जब तक केंद्र में भाजपा की सरकार नहीं थी, तब तक संघ उन्हें अपना ही आदमी मानता था। गंगा के निर्मलीकरण के उनके अभियान को भी संघ अपना समर्थन देता था। लेकिन केंद्र में भाजपा की सरकार बनने के बाद संघ के लोगों ने भी स्वामी ज्ञानस्वरूप से किनारा कर लिया था।
 
 
स्वामी ज्ञानस्वरूप बडे वोट बैंक वाली किसी जाति से नहीं आते थे। दूसरे बाबाओं और स्वामियों की तरह वे लोगों को 'जीने की कला’ सिखाने या 'कुंडलिनी जाग्रत’ करने का कारोबार भी नहीं करते थे। उनका कोई धार्मिक-आध्यात्मिक साम्राज्य यानी पांच सितारा मठ या आश्रम, 'विशेष साधना’ के लिए कोई आधुनिक गुफा और चमचमाती आयातित कारों का बेडा भी नहीं था।


वे राजनीति में रमे हुए दूसरे साधुओं और स्वामियों की तरह किसी राजनीतिक दल की मार्केटिंग भी नहीं करते थे और न ही उन्हें नेताओं या मंत्रियों की सोहबत में रहने का शौक था। उनके पास धनाढ्‍य शिष्यों-अनुयायियों का विशाल समुदाय भी नहीं था। कुल मिलाकर वे बाजार और राजनीति के संत नहीं थे। शायद यही वजह रही कि गाय, गंगा, मंदिर आदि की राजनीति करने वाले राजनीतिक कुनबे ने उनकी सुध नहीं ली वे गंगा की मुक्ति के लिए संघर्ष करते हुए खुद ही इस जीवन से मुक्त हो गए।
 

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