अंधेरों की ओर अग्रसर है विश्व का राजनीतिक प्रवाह

शरद सिंगी
बीसवीं सदी (याने पिछली शताब्दी) में हिटलर, स्टालिन, माओ इत्यादि जैसे तानाशाहों की तानाशाही देखने के बाद पश्चिमी दुनिया में उदारवाद की लहर चली। वहीं चीन और रूस साम्यवाद की ओर मुड़े जहां व्यक्ति आधारित सत्ता से अलग हटकर, पार्टी को सर्वेसर्वा बनाया गया। तानाशाहों के काल में 'व्यक्ति विशेष' सत्ता का केंद्र होता था या कहें शासक और सत्ता में भेद नहीं था। जब उदारवाद आया तो पश्चिम में आम आदमी को अभिव्यक्ति की आजादी मिली। उदारवाद में आम जनता को अधिकार मिला अपने शासक को खुद चुनने का।


जनता ने राष्ट्र को संविधान के अनुसार चलाने के लिए चुनावों के माध्यम से किसी दल को अधिकृत किया। दूसरी ओर चीन और रूस में सत्ता, व्यक्ति से हटकर समूह नेतृत्व के हाथों चली गई है यद्यपि दल एक ही रहा। इस तरह दुनिया लगभग दो भागों में बंट गई। अब देखना रोचक होगा कि अपने तरुणाई काल से गुजर रही हमारी इस 21वीं सदी में दुनिया किस स्थिति में है। जिन देशों में प्रजातंत्र की शुरुवात हुई वहां धीरे-धीरे राजनेताओं को शासक होने का रोग लग गया। सत्ता प्राप्ति के पश्चात् शासक और नौकरशाही भ्रष्ट होने लगी।

उधर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पाते ही जनता भी अनुशासनहीन हो गई। ऊपर से शासक वर्ग ने अपनी भलाई के लिए राष्ट्र को भी दांव पर लगाने में कोताही नहीं की। भ्रष्ट प्रशासन में असामाजिक तत्वों को नेताओं का प्रश्रय मिला और वे राष्ट्र को घुन की तरह खाने लगे। उधर साम्यवाद में जनता अनुशासित तो थी, किन्तु सिस्टम द्वारा उनका शोषण आरंभ हो गया। पार्टी का सामूहिक नेतृत्व पूरा ही भ्रष्टाचार में उलझ गया, क्योंकि चुनौती देने वाला कोई नहीं था। जो पार्टी का संविधान वही राष्ट्र का संविधान। जनता की सत्ता में भागीदारी गौण हो गई और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का गला घोंट दिया गया।

इन हालातों में जहां प्रजातंत्र का मजाक बन रहा था वहां राष्ट्रवाद का उदय हुआ। राष्ट्रवाद का अर्थ है राष्ट्र को केंद्र में होना यानी राष्ट्र और राष्ट्र के हित सर्वोपरि। आज अमेरिका में डोनाल्ड ट्रम्प, इसराइल में नेतन्याहू, भारत में मोदी और जापान में आबे राष्ट्रवाद पर आधारित सरकारों के अधिपति बने हैं। अभिव्यक्ति की आज़ादी तो हो किन्तु राष्ट्र के सम्मान को ठेस नहीं पहुंचे। सरकार में भ्रष्टाचार और जनता में अनुशासनहीनता पर रोकथाम हुई। उधर साम्यवाद में भी बदलाव आया।

पिछले माह हमने देखा कि चीन एक पार्टी के समूह नेतृत्व को छोड़कर पुनः व्यक्तिवाद की ओर उन्मुख हुआ जब उसने शी जिन पिंग को आजीवन के लिए राष्ट्रपति चुन लिया। वस्तुतः उन्हें सम्राट की गद्दी पर ही बैठा दिया गया। उसी प्रकार पीछे सप्ताह रूस भी व्यक्तिवाद की ओर अग्रसर हुआ जहां राष्ट्रपति पुतिन पुनः छह वर्षों के लिए निर्वाचित घोषित हुए वह भी लगभग निर्विरोध। इस कार्यकाल के पूरा होने तक वे रूस पर 24 वर्षों तक राज कर चुके होंगे। इस तरह चीन शीवाद की ओर अग्रसर हुआ और रूस पुतिनवाद की ओर। सत्ता गौण, व्यक्ति सिरमौर।

व्यक्तिवाद में राष्ट्र गौण और अहं ऊपर हो जाता है। हम यह भी जानते हैं कि व्यक्तिगत अहम् राष्ट्र के पतन का कारण बन जाता है। उत्तरी कोरिया का उदाहरण हमारे सामने है। चीन और रूस अब किस मार्ग पर आगे बढ़ेंगे यह एक गूढ़ चिंता का प्रश्न है। लीडर को यदि कोई चुनौती देने वाला या सही मार्ग दिखलाने वाला न हो तो हश्र सुखद तो होगा नहीं। दोनों ही देश आजकल निरंतर गलत कारणों से सुर्ख़ियों में हैं। रूस कुछ ऐसे देशों का साथ देने में लगा है जिन्हें विश्व पसंद नहीं करता, वहीं चीन का नेतृत्व आक्रामक हो चुका है क्योंकि उसे अब गद्दी छूटने का भय नहीं है।

वह कमज़ोर राष्ट्रों को भय और धन का लोभ देकर अपनी ओर खींच रहा है। इस तरह विश्व के वर्तमान परिदृश्य में व्यक्तिवाद और राष्ट्रवाद दोनों आमने-सामने आ चुके हैं। इस समय दुनिया में अचानक पुनः शीतयुद्ध का वातावरण बन रहा है। राष्ट्रवाद में नेतृत्व हर मुद्दे को राष्ट्र की अस्मिता के साथ जोड़ता है। अतः आने वाले कुछ वर्ष हठ और जिद के होंगे जो विश्व में अशांति का कारण बनेगा यदि विश्व की महाशक्तियों के इन नेताओं ने अपने अहम् को सर्वोपरि रखना जारी रखा तो। आशा यह भी करें कि राष्ट्रवाद, अंध राष्ट्रवाद की ओर न बढ़े और न ही व्यक्तिवाद तानाशाही की तरफ अन्यथा हम बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में पुनः पहुंच जाएंगे। वर्तमान घटनाक्रम तो यही संकेत देता है।

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