गुरिल्ला युद्ध बन गया आतंकी आतताइयों का अस्त्र

शरद सिंगी
गुरिल्ला युद्ध, युद्ध का ऐसा प्रकार जिसमे लड़ाई प्रत्यक्ष रूप से न करके परोक्ष रूप से की जाती है। इस  युद्ध की सबसे सफल रणनीति, असावधान शत्रु पर प्रहार कर छुप जाने की होती है। नियमित युद्ध में सेनाओं में जंग आमने सामने की होती है। यदि दोनों पक्ष बराबर के हों तो क्षति भी बराबर की होती है और यदि एक पक्ष ज्यादा मजबूत हो तो कमजोर की हानि अधिक होती है, परन्तु गुरिल्ला युद्ध की बात कुछ अलग है, इसमे दुर्बल पक्ष अपने से कई गुना सबल पक्ष को हानि पहुंचाता है।
 
इतिहास देखें तो पायेंगें कि अनेक देशों के क्रांतिकारियों ने गुरिल्ला युद्ध की तकनीक से कई सामर्थ्यवान  साम्राज्यों  को चुनौती दी, शक्तिशाली सेनाओं को परास्त किया और उन्हें वापस लौटने पर मजबूर किया। गुरिल्ला युद्ध अनियमित और विधि विरुद्ध युद्ध है जिसके कोई कायदे या कानून नहीं होते। इस युद्ध में कोई भी तरीका निषिद्ध नहीं है। पाठकों को स्मरण कराया जा सकता है कि भगवान राम की सेना ने रावण की शक्तिशाली सेना को गुरिल्ला युद्ध लड़कर ही परास्त किया था वहीं महाभारत का युद्ध एक नियमित युद्ध का उदाहरण है।  
 
आधुनिक काल में भारत में सर्वप्रथम इस विधा का सफल प्रयोग छत्रपति शिवाजी ने मुग़लों के विरुद्ध किया था। गुरिल्ला छापामार  अदृश्य सेना की तरह होते हैं जिन पर वार करना अँधेरे में तीर चलाने के समान होता है। सत्रहवीं शताब्दी में शिवाजी ने अपनी नगण्य सी सेना को लेकर बीजापुर सल्तनत और कुतुब शाही साम्राज्य की महती फ़ौज़ को भारी  नुकसान पहुँचाया और छोटे छोटे कई युद्ध जीते थे। रूस के कम्युनिस्ट क्रांतिकारी, राजनेता और विचारक व्लादिमीर लेनिन और चीन के माओ  त्से तुंग ने इस विधा को आगे बढ़ाया। लेनिन, छापामार युद्ध को न्यायसंगत बताते हुए कहते थे  कि शासक के आतंक का जवाब आतंकी और अपराधिक तरीके से देना तर्कसंगत है।
 
चीन के माओ ने लेनिन के मार्ग को चीन के सन्दर्भ में थोड़ा फेर बदल किया।  माओ के अनुसार गुरिल्ला युद्ध के सैनिक आम जनता के बीच उसी तरह रहते हैं जिस तरह समुद्र में मछलियाँ रहती हैं। पानी, मछलियों को जीवन के साथ रहने, खाने और विचरने के लिए जगह देता है उसी तरह गुरिल्ला छापामारों को जनता आत्मसात करती है। यही उनकी सफलता का राज है।
 
वियतनामी छापामारों और अमेरिकी सेना के बीच लगभग आठ वर्षों तक चले युद्ध में शक्तिशाली अमेरिका को मुँह की खानी पड़ी और सेना भारी नुकसान उठाकर अमेरिका लौट गयी। तमिल छापामार श्रीलंका सेना पर वर्षों तक आघात करते रहे। अल कायदा के छापामारों ने पहले अफगानिस्तान से रूस को खदेड़ा और अब अमेरिका से लड़ाई शुरू हुए एक दशक से भी ज्यादा हो चुका है। 
 
यदि गुरिल्ला युद्ध के उद्देश्य आम जनता की राजनैतिक और आर्थिक आकांक्षाओं के साथ मेल खाते हैं तब तो इस युद्ध को  जनता का समर्थन और सहायता प्राप्त होती है। जैसे ही  यह युद्ध अपने उद्देश्यों से भटक जाता है वैसे ही  जनता का सहयोग भी समाप्त हो जाता है। जब तक छापामारों को जनता का समर्थन प्राप्त है तब तक इन्हें समाप्त करना दुनिया की किसी ताकत के वश में नहीं है। भारत में नक्सलवादी आंदोलन के जीवित रहने के यही कारण हैं।
 
कई लोग छापामार  युद्ध को तर्कसंगत ठहराते हैं क्योंकि यह सैद्धांतिक रूप से  आततायी शासक के शोषण या राष्ट्र के शत्रुओं के विरुद्ध लड़ा जाता है किन्तु जबसे इस  विधा का उपयोग आतंकवादियों ने शुरू किया है तबसे युद्ध का यह तरीका दुनिया की शक्तिशाली सेनाओं के लिए एक चुनौती बन गया है।
 
यहाँ यह समझना जरुरी है कि अपने राजनीतिक उद्देश्यों के लिए लड़ रहे अनेक गुट अपने हित में धार्मिक भावनाओं को भी जोड़ने में सफल रहे हैं जिससे उनको  मिलने वाला  समर्थन और व्यापक हो गया है किन्तु हिंसा के पक्ष में। अभी तक ये जनता का सीमित समर्थन ही प्राप्त कर सके हैं क्योंकि अधिकांश जनता हिंसा के विरुद्ध रहती है। तकनीकि तौर पर यदि छापामारों को जनता का समर्थन प्राप्त नहीं है तो यह युद्ध अधिक समय तक नहीं चलना चाहिए। यही एक बात हमें निश्चिन्त करती है कि देर सवेर ही सही दुनिया इन आतंकियों के चंगुल से  मुक्त होगी।
 
विश्व के सामने चुनौती है इस छापामार विधा के गलत इस्तेमाल से निपटने की। इस युद्ध का सामना करने  के लिए कई तरह के शोध किये  जा रहे हैं। अभी तक किये गए  शोध के अनुसार केवल हवाई युद्ध से ही इनसे निपटा जा सकता है।  जमीनी युद्ध बहुत मुश्किल और नियमित सेना को क्षति पहुँचाने वाला है। यही कारण है कि मध्य पूर्व में कार्यशील  संगठन ईसिस के विरुद्ध पिछले कुछ महीनों से केवल हवाई कार्यवाही की जा रही है। 
 
कैसी  विडम्बना है कि इतिहास का अधिकांश भाग खून से लिखा गया है। गुरिल्ला युद्ध हो या नियमित युद्ध पृथ्वी को तो  लाल होना ही है। धार्मिक और सामाजिक उन्माद में आसानी से बह जाने  वाला हमारा मानव समाज कब और  किस मोड़ पर सन्मति को  प्राप्त होगा, इस प्रश्न का उत्तर किसी के पास नहीं है।  शोषण और अन्याय के विरुद्ध लड़ने वाले गुरिल्ला सैनिक आज स्वयं अन्याय और दरिंदगी के प्रतीक बन चुके हैं। इसे मानवता  का दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि गुरिल्ला युद्ध की विधा आज उन वहशी दरिंदों के हाथों में है जो सरे बाजार सिरों को धड़ों से अलग कर रहे हैं। मज़बूरी है उस समाज की जिन्हें अनचाहे ही  इन दरिंदों को पनाह देनी पड़ रही है। यह सब सोचकर चिंतनशील लोगों का मन अवसाद से भर जाता है।
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