महाराष्ट्र में राष्ट्रपति शासन लागू होने से पहले चले घटनाक्रम में जब शिवसेना और कांग्रेस के साथ आने की संभावनाएं बन रही थीं तो टेलीविजन चैनलों पर कई राजनीतिक विश्लेषक और टिप्पणीकार हैरानी जता रहे थे। सभी का कहना था कि अगर कांग्रेस और शिवसेना साथ आते हैं तो यह भारतीय राजनीति में अनोखी घटना मानी जाएगी और इससे अभूतपूर्व अवसरवाद की मिसाल कायम होगी।
अपने उग्र हिंदूवादी तेवरों के लिए जानी जाने वाली शिवसेना का भाजपा से करीब 30 साल पुराना नाता तोडकर एनसीपी और कांग्रेस हाथ मिलाने की संभावना ने राजनीतिक विश्लेषकों से इतर कई आम लोगों को भी हैरान किया। मगर सवाल है कि क्या वाकई शिवसेना और कांग्रेस राजनीतिक तौर पर एक-दूसरे के लिए वैसे ही अछूत हैं, जैसा कि उन्हें समझा जा रहा है?
यह सही है कि भाजपा और शिवसेना का साथ तीन दशक से भी ज्यादा पुराना है। 1980 और 1990 के दशक में जब कोई भी पार्टी भाजपा से हाथ मिलाने में हिचकिचाती थी, तब शिवसेना ही वह पार्टी थी, जिसने भाजपा के साथ महाराष्ट्र में गठबंधन कर उसका 'अछूतोद्धार’ किया था। लेकिन इसके बावजूद अगर अब शिवसेना और कांग्रेस साथ आती हैं तो इसमें हैरानी या ताज्जुब जैसी कोई बात नहीं होगी, क्योंकि महाराष्ट्र की राजनीति में कांग्रेस और शिवसेना के सहयोगपूर्ण रिश्तों का इतिहास इससे भी पुराना है।
पिछले तीन दशक की ही बात करें तो ऐसे कई मौके आए हैं जब शिवसेना ने भाजपा के साथ रहते हुए भी उसकी राजनीतिक लाईन से हटकर फैसले लिए और कांग्रेस का समर्थन किया।
बहुत पहले की नहीं, बल्कि 2012 की ही बात करें तो राष्ट्रपति पद के चुनाव में शिवसेना ने कांग्रेस के उम्मीदवार प्रणब मुखर्जी का समर्थन किया था, जबकि भाजपा ने उनके खिलाफ पीए संगमा को एनडीए का उम्मीदवार बनाकर मैदान में उतारा था। इससे पहले 2007 में भी शिवसेना ने राष्ट्रपति पद के लिए कांग्रेस की उम्मीदवार प्रतिभा पाटिल को समर्थन दिया था। उस चुनाव में तत्कालीन उपराष्ट्रपति और भाजपा के वरिष्ठ नेता रहे भैरोसिंह शेखावत भाजपा नीत एनडीए के उम्मीदवार थे।
यही नहीं, शिवसेना के संस्थापक बाल ठाकरे ने 1975 में इंदिरा गांधी सरकार के लगाए आपातकाल का और फिर 1977 के लोकसभा चुनाव में भी कांग्रेस का समर्थन किया था। 1977 में मुंबई के मेयर के चुनाव में कांग्रेस नेता मुरली देवडा को जिताने में भी बाल ठाकरे ने अहम भूमिका निभाई थी। हालांकि शिवसेना को इन चुनावों में कांग्रेस का समर्थन करने की राजनीतिक कीमत भी चुकानी पडी। 1978 में महाराष्ट्र विधानसभा और बंबई म्युनिसिपल कॉरपोरेशन (बीएमसी) के चुनाव में शिवसेना को बुरी तरह से हार का सामना करना पड़ा।
आपातकाल के प्रति अपना समर्थन जताने के लिए तो बाल ठाकरे खुद बंबई के राजभवन में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से मिलने गए थे। हालांकि आपातकाल का समर्थन करने की पेशकश राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन सर संघचालक मधुकर दत्तात्रय उर्फ बाला साहब देवरस ने भी की थी, लेकिन उनकी पेशकश सशर्त थी।
उनकी शर्त थी कि यदि सरकार संघ पर लगाया गया प्रतिबंध हटा लेती है और संघ के गिरफ्तार स्वयंसेवकों को रिहा कर देती तो संघ किसी भी तरह की राजनीतिक गतिविधि से दूर रहते हुए श्रीमती इंदिरा गांधी के बीस सूत्रीय तथा संजय गांधी के पांच सूत्रीय कार्यक्रम का समर्थन करेगा। यह और बात है कि श्रीमती गांधी ने देवरस की यह पेशकश मंजूर नहीं की थी।
बाल ठाकरे ने शिवसेना की स्थापना 1960 के दशक के मध्य में की थी। यह वह दौर था जब फायरब्रांड समाजवादी नेता जॉर्ज फर्नांडीज को मुंबई का बेताज बादशाह कहा जाता था। महानगर की तमाम छोटी-बडी ट्रेड यूनियनों के वे नेता हुआ करते थे और उनके एक आह्वान पर पूरा महानगर बंद हो जाता था, थम जाता था।
उसी दौर में 1967 के लोकसभा चुनाव में 35 वर्षीय जॉर्ज ने मुंबई में कांग्रेस के अजेय माने जाने वाले दिग्गज नेता एसके पाटिल को हराकर उनकी राजनीतिक पारी समाप्त कर दी थी। उस समय महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री वसंतराव नाईक हुआ करते थे और बाल ठाकरे से उनकी काफी नजदीकी थी।
कहा जाता है कि मुंबई के कामगार वर्ग में जॉर्ज के दबदबे को तोड़ने के लिए वसंत राव नाईक ने शिवसेना को खाद-पानी देते हुए बाल ठाकरे का भरपूर इस्तेमाल किया। इसी वजह से उस दौर में शिवसेना को कई लोग मजाक में 'वसंत सेना’ भी कहा करते थे। आपातकाल के बाद जॉर्ज जब पूरी तरह राष्ट्रीय राजनीति में सक्रिय हो गए तो उन्होंने मुंबई में समय देना कम कर दिया।
उसी दौर में मुंबई में मजदूर नेता के तौर दत्ता सामंत का उदय हुआ। वे भी टेक्सटाइल मिलों में हड़ताल और मजदूरों के प्रदर्शन के जरिए जब महाराष्ट्र की कांग्रेस सरकार के लिए सिरदर्द बनने लगे तो कांग्रेस के मुख्यमंत्रियों ने उनका भी 'इलाज’ बाल ठाकरे की मदद से ही किया।
सिर्फ वसंतराव नाईक ही नहीं, बल्कि उनके बाद शंकरराव चह्वाण, वसंतदादा पाटिल, शरद पवार, अब्दुल रहमान अंतुले, बाबा साहेब भोंसले, शिवाजीराव पाटिल निलंगेकर आदि कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों ने भी समय-समय पर महाराष्ट्र और मुंबई की राजनीति में बाल ठाकरे का अपने लिए भी और कांग्रेस के लिए भी भरपूर इस्तेमाल किया। शरद पवार से तो उनकी दोस्ती जगजाहिर ही रही।
ऐसा नहीं कि सिर्फ बाल ठाकरे ही कांग्रेस की मदद करते थे। वे भी कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों से बाकायदा अपनी मदद की राजनीतिक कीमत वसूल करते थे। यह कीमत होती थी विधानसभा और विधान परिषद में अपने उम्मीदवारों की जीत सुनिश्चित कराने के रूप में भी और इससे इतर दूसरे स्तरों पर भी। उस पूरे दौर में बाल ठाकरे पर उनके भड़काऊ बयानों और भाषणों को लेकर मुकदमे तो कई दर्ज हुए लेकिन पुलिस उन्हें कभी छू भी नहीं पाई।
ऐसा सिर्फ कांग्रेस से उनके दोस्ताना रिश्तों के चलते ही हुआ। 1980 के दशक के अंत में भाजपा के साथ गठबंधन होने से पहले तक शिवसेना और कांग्रेस के दोस्ताना रिश्ते जारी रहे। इसलिए यह कहना बेमतलब है कि कांग्रेस और शिवसेना एक दूसरे के लिए राजनीतिक तौर पर अछूत रहे हैं।
(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)