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पश्चिमी जगत शाकाहारी बन रहा है और भारत मांसाहारी, भारत में अब कितने बचे शाकाहारी

राम यादव
बुधवार, 1 अक्टूबर 2025 (08:16 IST)
International Vege Day: पश्चिमी देशों में स्वास्थ्य, पर्यावरण और नैतिक चिंताओं से प्रेरित शाकाहार और 'वीगन' कहलाने वाली एक नई अतिशाकाहारी प्रवृत्ति – कुछ बदलावों और चुनौतियों का सामना करते हुए भी – एक बढ़ते हुए आंदोलन का रूप धारण करती जा रही है। इसी कारण, पश्चिमी देशों की मुख्यधारा की दुकानों में पेड़-पौधों पर आधारित वनस्पतिज उत्पादों की उपलब्धता में उल्लेखनीय वृद्धि हो रही है। इससे सभी आयु वर्गों के उपभोक्ताओं के आहार और विचार ही प्रभावित नहीं हो रहे हैं, पादप-आधारित समग्र वैश्विक खाद्य बाजार का भी विस्तार हो रहा है। भविष्य में इस रुझान के और अधिक बढ़ने की प्रबल संभावना देखी जा रही है।
 
अतीत में एक समय हुआ करता था, जब इसी पश्चिमी जगत के अपने आाप को सुखी, स्वस्थ और सुसंस्कृत समझने वाले परमज्ञानी, हम भारतवासियों की, विशेषकर हिंदुओं की खिल्ली उड़ाया करते थे। कहते थे कि ये ऐसे सिरफिरे लोग हैं कि ''भूख से मर जायेंगे, पर गाय नहीं खाएंगे!'' आज यही पश्चिमी परमज्ञानी गाय तो क्या, हर प्रकार के मांस से परहेज़ करने और यथासंभव शुद्ध शाकाहारी जीवनशैली अपनाने में ही अपना और पूरे समाज का भला देखने लगे हैं। उदाहरण के लिए, अमेरिका में मेसाच्यूसेट्स विश्वविद्यालय में सामाजिक मनोविज्ञान की प्रोफेसर रहीं मेलानी जॉय का कहना है, ''मैंने मांस खाना इसलिए नहीं छोड़ दिया कि मुझे मांस का स्वाद अच्छा नहीं लगता, बल्कि सिर्फ़ इसलिए कि मैं नहीं चाहती कि जीवहत्या हो।''
 
मांसाहार हिंसा है : अमेरिका की प्रोफेसर मेलानी जॉय ही नहीं, इस बीच अमेरिका और यूरोप के बहुत सारे लोग भी यह कहने लगे हैं कि हम मांसाहार से इसलिए नहीं विमुख हो रहे हैं कि मांस खाना हमें स्वादिष्ट नहीं लगता, बल्कि इसलिए कि हम नहीं चाहते कि हम किसी की जान लेकर अपना पेट भरें। हमें यदि जीने का अधिकार है, तो जीव-जंतुओं को भी जीने का अधिकार होना चाहिए। शाकाहार, मांसाहार को जितना अधिक विस्थापित करेगा, हामारे स्वास्थ्य और पर्यवरण में भी उतना ही अधिक सुधार होगा। मांसाहार के बदले शाकाहार को प्रोत्साहन देने के लिए ही 1977 से, 1 अक्टूबर को हर साल ''विश्व शाकाहार दिवस'' मनाया जाता है।
 
इस बीच, पश्चिम के ऐसे लोगों के लिए, जो मांसाहार से दूरी बनाना तो चाहते हैं, पर इसलिए दूरी नहीं बना पा रहे हैं कि शाकाहार में उन्हें स्टेक (Steak) या बेकन (Bacon) जैसा स्वाद नहीं मिलता, उनके लिए प्रयोगशाला में विकसित मांस भावी विकल्प बनने जा रहा है। पश्चिमी जगत के ऐसे शाकाहारी, जो चाहते हैं कि स्वाद तो मांस जैसा हो, पर वह चीज़ हो शाकाहार, उन्हें भी अपनी पसंद के ''वेजी-बर्गर (Veggie-Burger)'' और ''टोफू-सॉसेज (Tofu-Sausage)'' कहलाने वाले कुछेक विकल्प मिल जाते हैं। पर, सच यह है कि मांस जैसा स्वाद देने वाले शुद्ध शाकाहारी विकल्प अभी बहुत कम ही हैं। 
 
प्रयोगशाला में विकसित मांस : मांस जैसे ही वनस्पतिज खाद्यपदार्थ आसानी से बन तो सकते हैं, पर पाया यह गया है कि बिना किसी जीवहत्या के, तकनीकी विधि से प्रयोगशाला में विकसित मांस ही असली मांस की बराबरी कर सकता है। नीदरलैंड में स्थित मासस्ट्रिश्त विश्विद्यालय के प्रोफेसर मार्क पोस्ट की टीम ने, 2013 में, बिना गोहत्या किए, गाय के स्टेम-सेलों (सर्वमुखी कोशिकाओं) की सहायता से प्रयोगशाला में बर्गर वाला ''इन-वाइट्रो (in-vitro)'' मांस बनाया और साथ ही यह मांस बनाने की एक कंपनी भी स्थापित की। अमेरिका की प्रो़फेसर मेलानी जॉय का कहना है, ''यह मांस कोई दिखावटी चीज़, कोई झूठ नहीं है। वह मांस ही है, एक अलग ढंग से बना मांस।'' उनका मानना है कि प्रयोगशाला में बने इस मांस को ''कृत्रिम मांस'' कहना उचित नहीं होगा। इंगलिश में उसे ''कल्चर्ड मीट'' (संवर्धित मांस) कहा जाता है।
 
संवर्धित मांस, जानवरों को पालने और मारने के बजाय, प्रयोगशाला में कोशिकाओं से सीधे उगाया गया पशु मांस है। इस प्रक्रिया में, जिसे ''कोशिकीय कृषि'' भी कहा जाता है, पशु कोशिकाओं का एक छोटा-सा नमूना लेकर उन्हें एक बायोरिएक्टर के भीतर पोषक तत्वों से भरपूर विकास-माध्यम में पोषित किया जाता है। कोशिकाएं अपनी संख्या बढ़ाते हुए मांसपेशी-ऊतक बनाती हैं, जिससे असली मांस प्राप्त होता है। बाद में इसे बर्गर और नगेट्स जैसे खाद्य उत्पादों में संसाधित किया जा सकता है। संवर्धित मांस को पारंपरिक मांस उत्पादन की तुलना में एक अधिक नैतिक और टिकाऊ विकल्प के रूप में विकसित किया गया है, जिसका उद्देश्य इसके पर्यावरणीय प्रभाव को कम करना और बढ़ती वैश्विक मांग को पूरा करना है।
 
इस दिशा में हो रही तेज प्रगति पर प्रकाश डालते हुए विज्ञान जगत की 'नेचर' पत्रिका ने 2024 में एक अध्ययन प्रकाशित किया। उसमें कहा गया था कि अमेरिका की 'टफ्ट्स यूनिवर्सिटी' के शोधक, सोयाबीन के प्रोटीन वाले एक सस्ते तंतु-विन्यास की सहायता से गाय की मांसपेशियों की कोशिकाएं उपजाने में सफल रहे। इस प्रयोग में, मांसपेशियों की कोशिकाओं का धारक बना सोयाबीन का प्रोटीन, जो स्वयं खाने योग्य पदार्थ है। मांस जैसा जो अंतिम उत्पाद बना, वह महीन तंतुओं से भरपूर था। कोशिका संवर्धन की इस विधि का लाभ यह बताया कि किसी गाय या पशु की हत्या के बिना ही मांस के उत्पादन की लागत बहुत कम की जा सकती है और उत्पादन भी बड़ी मात्रा में हो सकता है। जो कथित 'मांस' बनता है, वह वास्तव में सोयाबीन के प्रोटीन की सहायता से कोशिका संवर्धन का परिणाम होता है। 
 
कोशिका संवर्धन द्वारा बना चिकन-मीट : अमेरिका की दो फर्मों का कहना है कि उन्हें 2023 में, अमेरिकी कृषि मंत्रालय से कोशिका संवर्धन द्वारा बने चिकन-मीट (मुर्गे का मांस) बेचने की अनुमति मिली है। उसी साल, इटली की प्रधानमंत्री जिओर्जिया मेलोनी की सरकार ने इटली में ऐसा मांस बेचने पर रोक लगा दी, जो किसी प्रयोगशाल में विकसित विधि से बना हो। तब तक ऐसा कोई मांस इटली के बाज़ारों में था भी नहीं। यूरोपीय संघ ने भी प्रयोगशाला आधारित किसी मांस के विक्रय का कोई लाइसेंस अभी तक जारी नहीं किया है। बताया जाता है कि ऐसा कोई लाइसेंस जारी करने की कार्यविधी पूरी होने में काफ़ी समय लग सकता है। 
 
प्रयोगशाला में विकसित जीव हत्या विहीन कोई मांस जब तक बाजार में नहीं आ जाता, तब तक सामान्य शाकाहारी या 'वीगन' कहलाने वाले परम शाकाहारी लोग सोयाबीन, मटर, चने या गेहूं के बने खाद्य पदार्थों से अपना का काम चला सकते हैं। इन चीज़ों के आधार पर यूरोप में स्टेक, बेकन या बर्गर के नाम से प्रसिद्ध जो शाकहारी चीज़े बिक रही हैं, उन्हें ये नाम देना उचित है या अनुचित, इसे लेकर यूरोपीय संघ की संसद अभी तक कोई निर्णय नहीं कर पाई है। 2020 में केवल यह तय हुआ था कि इन नामों पर फिलहाल कोई रोक-टोक नहीं लगेगी। 
 
भारत में उल्टी गंगा : जहां तक भारत का प्रश्न है, दुनिया के सबसे अधिक शाकाहारी लोगों का देश होने के लिए प्रसिद्ध भारत में उल्टी गंगा बह रही है। भारत में शाकाहारी तेज़ी से घट रहे हैं और मांसाहारी उसी तेज़ी बढ़ रहे हैं। ब्राह्मण भी मांसाहारी होते जा रहे हैं। कभी 80 प्रतिशत तक शाकाहारी रहे भारत की, उदाहरण के लिए 2021 में, केवल 29.5 प्रतिशत, यानी 27,60,00,000 जनता ही शाकाहारी रह गई थी। इस बीच यह अनुपात और भी घट गया होगा। भारत में केवल 9 प्रतिशत, यानी 12,15,00,000  लोग अपने आप को 'वीगन' कहलाने वाले परमशुद्ध शाकाहारी बताते हैं।
 
सदा मांसाहारी रहे ठंडे मौसम वाले यूरोपीय देशों में शाकाहार का प्रचलन अभी कुछ ही दशक पहले शुरू हुआ है। मांसाहार को त्यागने वाले सामान्य शाकाहारियों और कठोर शाकाहारी 'वीगनों' का अनुपात लेकिन अब गति पकड़ने लगा है। उदाहरण के तौर पर, जर्मनी में अब 10 प्रतिशत शाकाहारी और 2 प्रतिशत लोग वीगन हैं। लगभग सदा बर्फ से ढके रहने वाले फ़िनलैंड में 12 प्रतिशत शाकाहारी और 2 प्रतिशत वीगन हैं। फ्रांस में 5.2 प्रतिशत लोग अपने आप को शाकाहारी और 1.1 प्रतिशत वीगन बताते हैं। आयरलैंड, डेनमार्क, नॉर्वे और स्वीडन में लगभग 4 प्रतिशत लोग वीगन-वादी हैं। पाया गया है कि शुद्ध शाकाहारियों को मांसाहारियों की अपेक्षा कम बीमारियां होती हैं।

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